‘स्वच्छ राजनीति’ और ‘सुशासन’ से होगा विकास

Beyond Headlines
7 Min Read

Irshad Ali for BeyondHeadlines

सन 2011 से टयूनीशिया में आई जैसमीन क्रांति या अरब बसंत के साथ बदलाव की  कुछ ऐसी हवा चली कि विश्व के तमाम देशों में विकास, सुशासन तथा भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति आदि, मुद्दे ऐसे हो गये हैं कि इनकी वजह से कई तानाशाहों को अपनी सत्ता गवानी पड़ी तो कुछ देशों में भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़े आंदोलनों ने जन्म लिया. अमेरिका में वॉलस्ट्रीट मूवमेंट, पाकिस्तान में कुछ समय पूर्व का आंदोलन, और भारत में अन्ना आंदोलन मुख्य रुप से उभर कर सामने आये.

भारत के संबंध में काबिल-ए-गौर बात यह है कि हिन्दुस्तान जैसे विशाल देश में अन्ना के आंदोलन से एक चिंगारी निकली. जिसे भारतीय संविधानिक संस्थाओं के फैसलों ने आगे बढ़ाया और रही सही कसर ‘आप’ ने अस्तित्व में आकर पूरी कर दी. इस तरह देश में विकास, सुशासन और राजनीति में सुधार जैसे गंभीर मुद्दे आम हो गये है.

विकास की भी दो धारणाएं होती हैं. एक तो विकासवादी धारणा और दूसरी विकासवादी विचार धारणा. 1990 के बाद से भारत में विकासवादी धारणा का अनुसरण किया गया. इस धारणा में विकास कैसे हो ? और इसका लाभ समाज के सभी वर्गों तक कैसे पहुंचे, इस तथ्य पर ध्यान दिये बिना शीघ्र विकास करने की प्रवृति देखने को मिली है.

इसके परिणाम स्वरुप देश में असंतुलित विकास हुआ है. जिससे वैश्विक पटल पर करोड़पतियों की संख्या तो बढ़ी लेकिन साथ ही देश में बेतरतीब तरीके से विकास के परिणामस्वरुप अमीरी व गरीबी की खाई भी बढ़ी है.

इसके विपरीत अब विचारवादी विकास धारणा के अनुपालन की ज़रुरत है. जिसमें विकास नीचे से होता है और ऊपर तक जाता है. विकास का मतलब सिर्फ आर्थिक विकास से नहीं बल्कि सम्पूर्ण विकास से है. जिसमें व्यक्ति शासन व प्रशासन में भागीदार होता है. अब भारत में इसी विचारवादी विकास की शुरुआत होती हुयी दिखाई दे रही है.

किसी भी देश को विकासात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करने से पहले सुशासन संबंधी मामलों पर ध्यान देने की ज़रुरत होती है क्योंकि विकासात्मक निर्णय और नीतियां के बीच में कुशासनात्मक प्रवृतियों से सबसे ज्यादा बाधा होती है. वजह है कि कुशासन के कारण भ्रष्टाचार है, न कि भ्रष्टाचार के कारण कुशासन. यदि कुशासन पर रोक लगा दी जाए और कानून की कमजोर कड़ियों को मजबूत कर दिया जाए तो इस बात में कोई संदेह नहीं कि देश तीव्र विकास की राह पकड़ लेगा क्योंकि तब  निर्णय-निर्माण और नीति क्रियान्वयन में कोई बाधा उत्पन्न ही नहीं होगी.

शायद यही कारण है कि दिल्ली के नये मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस तरह के ही विकास की शुरुआत कर दी. लेकिन स्वार्थी तत्वों ने उन पर, उनकी पार्टी के  कार्यकर्ताओं पर हमला करना शुरु कर दिया है. आज नरेंद्र मोदी  भी विकास और सुशासन की वकालत कर रहे हैं और जनता भी शायद यही चाहती है. लेकिन सवाल भरोसे का है. आखिर विकास और सुशासन कौन ला सकता है ? कौन राजनीति की परम्परागत प्रवृति को बदल सकता है?

एक तरफ देश की राजनीति में बदलाव लाने वाली पार्टी पर कीचड़ उछाली जा रही है, उसके कार्यालयों  पर हमले हो रहे हैं, उसके कार्यों और कार्यशैली को नौटंकी बताया जा रहा है. तो दूसरी तरफ देश की दोनों ही बड़ी राजनीतिक पार्टियां प्रत्यक्ष रुप से ‘आप’ को चुनौती मानने से इंकार कर रही हैं. अगर ऐसा ही है तो क्यों अनेक दलों ने आम आदमी पार्टी के तौर तरीकों को अपनाना शुरु क्यों कर दिया?

 चाहे वे केसरिया टोपी पहनना हो, अपनी सिक्योरिटी में लगे काफिले को कम करने से जुड़े फैसले करना हो या भ्रष्टाचार के विरुद्ध खुलकर बोलने हो या फिर सुशासन लाने के प्रयास से संबंधित हो.

संयुक्त रुप से भारतीय राजनीति का परिप्रेक्ष्य अब बदलाव की बड़ी कगार पर है. जिसमें सबसे बड़ा मुद्दा साफ व स्वच्छ राजनीति चलन से जुड़ा है. जिसके परिणामस्वरुप ही देश में वास्तविक रुप से सुशासन और विकास आयेगा. देश के अंदर न तो संसाधनों की कमी हैं और न ही जनसंख्या की.

फिर किसलिए हम चीन से पीछे हैं जो हमारे बाद 1949 में आजाद हुआ. क्यो जापान से पीछे हैं जो 1945 में परमाणु हमले का शिकार हुआ था. स्वास्थ और पोषण के मामले में तो हम श्रीलंका और बांग्लादेश से भी पीछे हैं. आखिर हम पीछे हैं तो क्यों?

इसकी एक मुख्य वजह ये कि हमनें सर्वप्रथम तो सुशासन और बेहतर प्रबंधन पर ध्यान नहीं दिया. दूसरे हमनें अपने संसाधनों का उचित इस्तेमाल नहीं किया और तीसरे, हमने भारतीय जनसंख्या को मानव संसाधन में तब्दील नहीं किया बल्कि भारतीय जनसंख्या को मात्र मतदाता तक ही सीमित रहने दिया.

अगर राजनीतिक दलों ने भारत की सबसे बड़ी ताकत ‘जनसंख्या’ को सिर्फ मतदाता के तौर पर न देखा होता और भारतीय प्रतिभाओं को समान व उचित अवसर दिये होते तो भारतीय प्रतिभा का पलायन पश्चिमी देशों की ओर कभी न होता. लेकिन भारतीय हुक्मरानों के लिए तो देश के विकास की कुंजी सिर्फ विदेशी निवेश में ही दिखाई देती है. इसलिए न तो सुशान पर ध्यान दिया गया और न ही समतामूलक व न्यायसंगत विकास पर. राजनीति में भी वंशवाद और भाई भतीजावाद ही चरम पर है.

लेकिन अगर अब भी इस तरफ समुचित ध्यान नहीं दिया गया तो इस बात में कोई संदेह नहीं कि देश के सबसे बड़े व पुराने दल सिर्फ इतिहास बनकर ही रह जाएंगें. हाल ही में इस ओर केंद्रीय मंत्री जयराम नरेश ने भी इशारा किया है.

उम्मीद की जानी चाहिए कि देश के सत्ताधारी व विपक्षी लोग बदलाव की ज़रुरत को समझेंगे तथा विकास, सुशासन पर ध्यान देंगे. वरना भारत एक दिन छोट-छोटे काम करवाने के लिए आंदोलन की धरती बन जाएगा.

(लेखन इन दिनों प्रशासनिक सेवा की तैयारी कर रहे हैं. उनसे  trustirshadali@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)

Share This Article