BeyondHeadlines Editorial Desk
ज़रा ठहरिए और सोचिए! उन पाँच सैनिकों के बारे में जिनके बारे में न मीडिया ने आपको बताने में दिलचस्पी ली और न आपने जानने में. जो दिन भर ड्यूटी करने के बाद सोए तो लेकिन जाग नहीं पाए?
क्या, आप अब भी नहीं जान पाए कि हम किन अभागों की बात कर रहे हैं? ज़रा दिमाग़ पर ज़ोर डालिए, पिछले हफ़्ते ही अख़बारों के पहले पन्नों पर एक सिंगल कॉलम ख़बर आई थी जिसमें कश्मीर में एक भारतीय सैनिक के हाथों मारे गए पाँच सैनिकों का ज़िक्र था. और बाद में उस सैनिक ने ख़ुद को भी गोली मार ली थी.
याद आया, हाँ हैडिंग तो याद आई- ‘कश्मीर में जवान ने पाँच साथियों की जान लेकर आत्महत्या की’. लेकिन शायद उनके नाम या चेहरे आपके ज़हन में न आए हों और शायद कभी आ भी न पाएँ.
क्योंकि उनकी मौत में सनसनीख़ेज ख़बर का कोई एंगल नहीं हैं. पड़ोसी देश को दुश्मन बताकर राष्ट्रवादी भावनाए भड़काने का प्रोपागेंडा करने लायक मसाला भी नहीं हैं. वे तो एक ख़ामोश मौत मारे गए हैं वो भी अपने ही एक सैनिक के हाथों. फिर उनकी मौत को इतनी तवज़्ज़ों क्यों दी जाए?
किसे फ़र्क पड़ता है कि उनमें से किसी का माँ सुक़ून भरे बुढ़ापे की बाट जोह रही थी या किसी के बच्चे बेहतर भविष्य के सपने देख रहे थे या किसी की बीवी उसके लौटने का इंतज़ार कर रही थी.
न उनकी माओं की आँखों की बेबसी को समझने के लिए हमारे पास वक़्त है, न उनके बच्चों के बिखरे ख्वाबों को समेटने के लिए और न ही उनकी बेवाओं के अधूरे रह गए अरमानों के लिए?
हम क्यों उनकी मौत पर दुख करे जब उनके लिए किसी टीवी वाले ने कोई ख़ास रपट ही नहीं बनाई. जब किसी नेता ने उन्हें घर जाकर संवेदना देने के क़ाबिल नहीं समझा. तो हम ही क्यों अपना वक़्त ज़ाया करे उन गुमनामों की याद में?
हम क्यों सोचें कि उनकी मौत कैसे हुई. ये मायने नहीं रखता बल्कि ये मायने रखता है कि वे जब तक ज़िंदा थे सिर्फ़ हमारे लिए ही ज़िंदा थे. हम ये भी क्यों सोचें कि उनकी मौत किसी ख़तरनाक खेल का संकेत है. जो बताना चाह रही है कि हमारी सेनाओं में सबकुछ ठीक नहीं हैं. कहीं न कहीं कुछ न कुछ तो ग़लत हो रहा है. लेकिन हम क्यों जाने कि क्या ग़लत हो रहा है?
जब हमारे सबसे संवेदनशील वर्ग (मीडिया) ने इन मौतों पर ख़ामोशी अख़्तियार कर ली है, जब हमारे नेताओं ने उन्हें राजनीतिक मुद्दा बनाए जाने लायक न समझा है तो फिर हम क्यों सोचें उनकी मौत के बारे में?
अच्छा चलिए आप सिर्फ़ इतना सोच लीजिए कि आपने संवेदनहीनता की चादर क्यों ओढ़ रखी है. क्यों जो वास्तविक मुद्दे हैं वो आपके लिए मुद्दे नहीं हैं. क्यों आप आसानी से फँस जाते हैं चतुर नेताओं के जाल में? सोचिए कि क्यों और कैसे कोई 56 इंच के सीने की बात करके आपके सीने को 112 कर देता है? क्यों वो पाकिस्तान के हाथों मारे गए दो सैनिकों का तो हर मौक़े पर उल्लेख करता है लेकिन सेना में व्याप्त भ्रष्टाचार पर उसका मुँह नहीं खुलता.
क्यों हमारे रक्षामंत्री की ओर से दिल को दिलासा देने वाला एक बयान तक नहीं आता. और क्यों नहीं उठते उनकी नैतिकता पर सवाल?
सोच रहे थे कि आपको उन सैनिकों के नाम बताएं लेकिन रुक गए. क्योंकि आपकी संवेदनाएँ भी तो नामों का धर्म देखने की आदी हो गई हैं. तो नाम मत जानिए बस ये सोच लीजिए कि वे छह सैनिक थे, जो अब नहीं हैं लेकिन शायद हमारे बीच हो सकते थे यदि सबकुछ ठीक होता तो!