मोदी राज में आदिवासी होने का दर्द

Beyond Headlines
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Amit Bhaskar for BeyondHeadlines

देश के सबसे पिछड़े आदिवासी तबके के रहनुमा होने का दावा करने वाले अब बेनकाब हो रहे हैं. राहुल गांधी की सरकार ने आदिवासियों के नाम पर उड़ीसा से लेकर छ्त्तीसगढ़ तक विकास का मायाजाल बुन दिया, वहीं गुजरात की मोदी सरकार आदिवासियों के नाम पर केन्द्र से मोटी रक़म ऐंठती रही.

राहुल और मोदी दोनों ने ही गरीब आदिवासियों को ऐन चुनाव के मौके पर वोट बैंक की चक्की में पीस डाला, जबकि हक़ीक़त में इन तक़दीर के मारो को अपने नाम पर कागजों में खर्च की जा रही हज़ारों-करोड़ की रक़म की एक पाई भी नसीब नहीं हुई.

यहां बात हम गुजरात की करते हैं. गुजरात इसलिए क्योंकि इन दिनों पूरे देश में गुजरात को रोल-मॉडल बनाकर राजनीति की जा रही है. ऐसे में ज़रूरी है कि इस गुजरात में आदिवासियों की हक़ीक़त को जाना व समझा जाए.

जहां एक तरफ मोदी आदिवासियों के नाम पर अपनी योजनाओं की उपलब्धियां गिनाते नहीं थकते, वहीं दूसरी तरफ राहुल गांधी उसी गुजरात में आदिवासियों के बीच आकर मोदी के इस झूठ से पर्दा उठाने का काम करते हैं. पर इन दोनों संभावित ‘प्रधान मंत्रियों’ के आपसी लड़ाई से इन आदिवासियों का न कोई भला हुआ और न आगे होने की उम्मीद की जा सकती है. BeyondHeadlines को आरटीआई से हासिल रिपोर्ट्स बताते हैं कि आदिवासियों के नाम पर चलने वाले सारी योजनाएं यहां फेल हैं.

आदिवासी लड़कों व लड़कियों के लिए हॉस्टल बनाने की योजना केन्द्र के ज़रिए शुरू की गई. इस योजना के तहत गुजरात सरकार को साल 2010-11 में 1296.43 लाख रूपये मिले, लेकिन नरेन्द्र मोदी सरकार एक भी हॉस्टल गुजरात में नहीं बनवा सकी. साल 2011-12 का भी यही हाल रहा. साल 2012-13 में भी 187.06 लाख रूपये मिले, लेकिन किसी हॉस्टल का निर्माण नहीं हो सका.

यही कहानी गुजरात आश्रम स्कूल योजना की भी रही. आदिवासियों के बच्चों के तालीम के खातिर आश्रम स्कूल के स्थापना के लिए साल 2010-11 में 1887.53 लाख रूपये गुजरात सरकार को मिले. और गुजरात सरकार ने इस रक़म से 8 स्कूल खोले, लेकिन उसके बाद यह योजना पूरी तरह से फेल रही. हालांकि अगले साल यानी 2011-12 में 15 करोड़ की राशि सरकारी खाते में आई लोकिन इस रक़म ने सरकारी खजाने की शोभा बढ़ाने का काम किया. आदिवासियों के बच्चों के लिए एक भी आश्रम स्कूल नहीं खोले गए. आंकड़े बताते हैं कि आदिवासी क्षेत्रों में वोकेश्नल ट्रेनिंग हेतु साल 2011-12 में 228.96 लाख रूपये गुजरात सरकार को केन्द्र से मिले, पर खर्च शुन्य रहा. यही हाल बाकी को सालों का भी रहा. क्योंकि गुजरात सरकार नहीं चाहती कि आदिवासियों को कोई ट्रेनिंग दी जाए और उनको सशक्त बनाया जाए.

मानवाधिकार कार्यकर्ता हिमांशु कुमार के मुताबिक वो गुजरात में एक बार साईकिल यात्रा पर गए थे. वहां उन्होंने देखा कि गुजरात में मोदी की सरकार ने Forest Rights Act में एक भी आदिवासी को ज़मीन नहीं दी है. जिनके पास पहले ज़मीन थी. जो आदिवासी पहले से खेती कर रहे थे, उनको वहां से भगाकर जबरदस्ती पौधा-रोपन करके चारों तरफ फेंसिंग कर दी गई है और वहां गार्ड बैठा दिया गया, ताकि कोई आदिवासी घुस ना पाए.

हिमांशु कुमार बताते हैं कि मुझे कुछ लोग मिले. उन्होंने बताया कि जिन आदिवासियों के पास अपनी ज़मीन थी, उनसे कहा गया कि कागज़ात लेकर आओ. जब कागज़ात लेकर आए तो उनके साथ मार-पीट की गई और पुलिस वाले सारे कागज़ात छिन कर ले गए. इस तरह आदिवासियों के सारे कागज़ात छिन लिए गए.

वो आगे बताते हैं कि ‘मैंने मीडिया को इन घटनाओं के बारे में बताया. अख़बारों ने मेरी यात्रा के बारे में एक लेख छाप दिया, जिसका शीर्षक था “स्वर्णिम नो साचो दर्शन” अर्थात “गुजरात सरकार के स्वर्णिम गुजरात का सच्चा दर्शन” बस अगली सुबह पुलिस की तीन जीपें मेरे पीछे लग गयीं. पहले उन्होंने कहा कि मेरी हर मीटिंग में पुलिस मेरे साथ रहेगी. ऐसा “ऊपर” से हुकुम है. मैं सहमत हो गया, लेकिन रात होते-होते एस.पी. भी आ गया और अन्त में आधी रात में मेरी साइकल पुलिस ने अपनी जीप के ऊपर लादी और मुझे बरसते पानी में महाराष्ट्र की सीमा के भीतर ले जाकर फेंक दिया.

कहानी यहीं खत्म नहीं होती. गुजरात में अभी भी इतना छूआछूत है कि आदिवासी व दलितों के बच्चों को पोलियो ड्रॉप तक नहीं पिलाई जा रही है. (ऐसा हम नहीं कह रहे हैं बल्कि इस्ट-वेस्ट मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट बता रही है, जिस पर इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी.) आगे स्थिति का अंदाज़ा आप खुद ही लगा सकते हैं.

मोदी की तारीफ ना इस बात में है कि गुजरात में सोमनाथ का मंदिर है, ना नरेन्द्र मोदी की वजह से गीर में शेर होते हैं! और ना ही नरेन्द्र मोदी के कारण कच्छ में सफ़ेद रेत में चांदनी खूबसूरत होती है. हाँ! इतना ज़रूर है कि नरेन्द्र मोदी के रहते हुए गुजरात के आदिवासी गांव में महिला भूख से मर जाये तो इसके लिये वो जिम्मेदार हैं. अगर गुजरात में आदिवासियों को जिन्दा रहने भर भी ज़मीन खेती करने के लिये ना दी जाये, परन्तु 2 लाख एकड़ ज़मीन आदानी, टाटा, अंबानी को दे दी जाये जिसमें सिर्फ ई.टीवी को एक लाख दो हजार एकड़ जमीन दे दी गई हो, तो इसके जिम्मेदार नरेन्द्र मोदी ज़रुर हैं.

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