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वोट करने से पहले मुसलमान एक बार ज़रूर सोच लें…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published April 4, 2014
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12 Min Read
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Faiz Ahmad Faiz for BeyondHeadlines

लोकसभा चुनाव-2014 हमारे सर पर है. लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में चुनाव न सिर्फ मतदाताओं को अपने नुमाइंदों व राजनीतिक दलों से हिसाब बराबर करने का मौका प्रदान करता है, बल्कि मतदाताओं के लिए चुनाव में उनकी जागरूकता की भी परीक्षा होती है कि मतदाता किस तरह की सोच रखते हैं.

राजनीतिक दल भी बड़ी मुस्तैदी और हुनरमंदी के साथ उन्हें नापा व तौला करते हैं. कई बार तो राजनीतिक दल राष्ट्र, क्षेत्र, धर्म, वर्ग और ज़ात व समुदाय आधारित वितरण करके आसानी से अपने हितों प्राप्त कर लेते हैं.

राजनीतिक विश्लेषक शायद हमारे विचार से सहमत न हो, लेकिन हकीकत यही है कि इस समय राजनीतिक दल खासकर सांप्रदायिक ताक़तें विभिन्न वर्गों और अल्पसंख्यकों पर गहरी नज़र रखे हुए हैं, क्योंकि इनके वोट किसी भी उम्मीदवार के लिए सफलता की राह हमवार कर सकते हैं.

आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में लगभग 129 सीटें ऐसी हैं, जहां मुसलमानों के वोट निर्णायक व महत्वपूर्ण हैं. यानी अपनी तादाद के लिहाज़ से जिसे चाहें उसके चुनाव जीतने की राह आसान कर सकते हैं. लेकिन जब इन्हीं वोटों को ध्रुवीकरण का शिकार बना दिया जाए तो किसी भी विरोधी ताक़तों के लिए बाजी मारना मुश्किल नहीं रहता.

राजधानी दिल्ली के पड़ोस पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ, मुजफ़्फ़रनगर और सहारनपूर जैसी कई ऐसी सीटें हैं, जहां फैसला मुसलमानों के वोटों पर निर्भर करता है, मगर हमने पिछले संसदीय चुनाव 2009 में खुली आंखों से यह निरीक्षण किया है कि कैसे अपनों और गैरों की साजिश के परिणाम में सभी संभावनाओं के विपरीत हमारे वोट तितर- बितर कर दिए गए और अधिकतर सीटें साम्प्रदायिक दलों ने बड़ी आसानी से जीत लीं.

राजनीतिक दलों ने 2009 के परिणाम से निष्कर्ष निकाला कि मुसलमानों के वोटों के लिए उनके दरवाजे पर दस्तक देने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि उनके कुछ लोग खरीद लिए जाएं और विभिन्न बैनरों तले उन्हें चुनाव मैदान में उतार दिया जाए ताकि मुस्लिम मतदाता भ्रमित  हो जाएं और टुकड़ों में बंट कर अपनी लोकतांत्रिक शक्ति का सत्यानाश कर दें.

इसी पॉलिसी पर इस बार भी संघी शक्तियों ने बहुत चालाकी के साथ अमल शुरू कर दिया है. विभिन्न लोगों को राजनीतिक प्रतिनिधि बनाकर मैदान में उतारा जा रहा है. इसका मक़सद इसके अलावा कुछ भी नहीं है कि अल्पसंख्यक मतदाता आशंकाओं की समुद्र में गोता खाने लगें, उनके वोट बिखर जाएं और आसानी से मोदी जैसे सांप्रदायिक नेता के रास्ते के तमाम कांटे दूर हो जाएं.

इस मरहले पर राजधानी दिल्ली के जागरूक मतदाताओं को सलाम करना चाहिए, जिन्होंने 2009 के आम चुनाव में सांप्रदायिक ताक़तों की साजिश को ताड़ लिया. जिससे कि सारे षड़यंत्र विफल हो गए. वरना जिस तरह से दिल्ली के उन सीटों पर जहां निर्णायक स्थिति में मुस्लिम वोट हैं, इतने उम्मीदवार खड़े कर दिए गए थे कि मुसलमानों का मामूली सा भटकाव भी साम्प्रदायिक ताक़तों की राह आसान कर सकता था. विशेषकर उत्तर पूर्वी सीट, पूर्वी दिल्ली सीट और चांदनी चौक सीट पर संघी शक्तियों ने खतरनाक ताने-बाने तैयार किए थे, लेकिन मुस्लिम मतदाताओं की दूरदृष्टि और क्षमता ने न सिर्फ साम्प्रदायिक ताक़तों की साजिश को नाकाम बना दिया, बल्कि धर्मनिरपेक्ष उम्मीदवारों को सफल करने में महत्वपूर्ण भूमिका भी अदा की.

कोई इस तथ्य को स्वीकार करे या न करे, लेकिन सच्चाई यही है कि जयप्रकाश अग्रवाल, संदीप दीक्षित और केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल को परास्त करने के लिए मुसलमानों के बीच सभी शक्तियां झोंक दी थी. हमारे अपनों में से ही कई ज़मीर-फरोशों ने राष्ट्र सुरक्षा का सौदा कर लेने की ठान ली थी. निजी फायदों के लिए वो इतना गिर चुके थे कि संघी शक्तियों के इशारों पर मुस्लिम वोटों को बांटने की कोशिश में एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया था. मगर शाबाशी दीजिए राजधानी दिल्ली के जागरूक मुस्लिम मतदाताओं को, जो विरोधियों की साजिशों को तार-तार करने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई.

दूसरी ओर देश के प्रमुख राज्य बिहार में अपनों की बेवफाई के कारण ही लगभग दस सीटें गवां दी गई. वहां हमने खुद आसानी से साम्प्रदायिक ताक़तों को अपने उम्मीदवारों को सफलता का जश्न मनाने का अवसर दे दिया.

उदाहरण के तौर पर बिहार के मधुबनी, कटिहार, पूर्णिया, पश्चिम चम्पारण सहित अररिया जैसे संसदीय क्षेत्रों का जाएज़ा ले सकते हैं, जहां हमारे नेताओं की नासमझी के कारण साम्प्रदायिक शक्तियों ने बिना कुछ किए मैदान मार लिया.

स्थिति 2014 के आम चुनाव में भी कुछ अलग नहीं है. इसी प्रकार का षड़यंत्र इस बार भी साम्प्रदायिक शक्तियां स्थापित कर रही हैं, ताकि किसी तरह हमें टुकड़ों में बांट दिया जाए, और हमारे जान के दुश्मनों को हमारे सीने पर मूंग दलने का सुनहरा अवसर मिल जाए.

हमें वोट देने से पहले एक संवेदनशील और जागरूक नागरिक होने के नाते बहुत सोच समझकर क़दम उठाना होता है. अपने संरक्षण के लिए ज़रूरी है कि पहले उम्मीदवारों की छानबीन की जाए, उनकी सोच और पॉलिसियों का जाएज़ा लिया जाए. हर तरह से जब धर्मनिरपेक्षता की कसौटी पर उसका प्रदर्शन स्थिर मिले, उसके बाद विचार का मौका आता है कि जिस उम्मीदवार के पक्ष में संयुक्त रूप से मतदान का हमने फैसला किया है, उसके जीतने की संभावना कितनी हैं?

दरअसल, हमें इस समय राजधानी दिल्ली के उन सीटों के जागरूक मतदाताओं को यह संदेश देना है कि मतदान से पहले उन शातिरों से होशियार हो जाए, जिनका राजनैतिक क़द कभी नुमाया नहीं रहा और न ज़मीनी तौर पर उन्हें कोई शक्ति प्राप्त है, मगर आपको बांट देने के लिए सांप्रदायिक ताक़तों का उपकरण बनकर चुनाव मैदान में खम ठोंक रहे हैं.

हमें यह भी देखना होगा कि कौन धर्मनिरपेक्ष उम्मीदवार अपने क़द के हिसाब से कितना वज़न रखता है और सफलता की संभावना कितनी है. हमें उन ज़मीर-फरोशों से भी सावधान रहना होगा कि विभिन्न राजनीतिक दरवाज़ों पर सर झुकाकर मिल्लत का सौदा करने में तनिक भी झिझक महसूस नहीं करते.

हमें यकीन है कि इस बार भी साम्प्रदायिक ताक़तों के हौसले टूट जाएंगे. उनके षड्यंत्र विफल हो जाएंगे और धर्मनिरपेक्ष शक्ति का बोलबाला होगा. जिन उम्मीदवारों को हम पिछले संसदीय चुनाव में सदन तक पहुँचाया था उनके में लाख कमियां हैं, लेकिन यह निश्चित है कि उनका सेक्यूलर किरदार बेदाग है.

मतदाताओं को यह समझना होगा कि इस समय भ्रष्ट ब्यूरोक्रेसी और एजेंसियों में शामिल संघी सोच वाले अधिकारियों ने मुसलमानों को तश्वीश का शिकार करने के लिए जो नीति तैयार की है, वह संघी शक्तियों के उसी योजना का हिस्सा है जिसके ज़रिए अपनी सफलता का ख्वाब वो देख रही हैं.

वर्तमान गिरफ्तारियों के पीछे यही उद्देश्य है कि किसी तरह सेक्यूलर ताक़तें कशमकश का  शिकार हो जाएं, धर्मनिरपेक्ष जमातों और उम्मीदवारों पर से उनका यकीन समाप्त हो जाए ताकि वोट देते समय वह दिशाहीनता में मुब्तला हो जाएं. मगर दिल्ली के जागरूक मतदाताओं ने 2009 में सांप्रदायिक ताक़तों का मुंह काला किया था और इस बार भी उनका मुंह काला होना तय है.

आपको इस सवाल का जवाब ढूंढना होगा कि आखिर क्या वज़ह है कि आतंकवाद के नाम पर हर गिरफ्तारी को मोदी और गुजरात से जोड़ा जाता है. अगर गुजरात सरकार में विपक्ष के नेता शंकर सिंह वाघेला उस पर शक ज़ाहिर करते हैं कि गुजरात एटीएस और वहां मौजूद आईबी मोदी एंड कंपनी के इशारे पर नाचने लगी हैं, तो यह बेबुनियाद भी नहीं है.

आखिर सारे गिरफ्तार मुस्लिम नौजवानों को गुजरात की एजेंसियां ​​ही क्यों रिमांड पर लेती हैं? तब शंकर सिंह वाघेला का संदेह मुसलमानों को सोच समझ कर निर्णय लेने का निमंत्रण देता है. इस अवसर पर उनकी गिरफ्तारी की समीक्षा करते हुए एक राजनीतिक विश्लेषक के मन में यह सवाल उठना सहज है कि आखिर क्या वज़ह है कि लगभग 17 वर्ष तक राजग से जुड़े जदयू जब बिहार में सत्ता में आता है, तो लगभग 7 वर्षों तक पूरा राज्य शांति का उदाहरण बन जाता है, मगर मोदी से रिश्ता टूटते ही बेतिया, अररिया, गोपालगंज, गया, जमुई सहित दर्जनों स्थानों पर सांप्रदायिक फसाद की आग भड़क उठती है. आखिर इसकी क्या वजह है कि सात साल से शांतिपूर्ण बिहार में जदयू का रिश्ता जब भाजपा से टूट जाता है तो धमाकों के सिलसिले शुरू हो जाते हैं.

शायद आपको याद होगा कि दोनों दलों के बीच संबंध डिस्कनेक्ट होने के तीसरे दिन ही बोधगया जैसे धार्मिक स्थल पर लगातार 12 विस्फोट होते हैं. ऐसा क्यों हुआ कि भाजपा से रिश्ता खत्म होते ही आतंकवादियों को इतनी शक्ति मिल गई और वह पूरे राज्य को झकझोरने में सफल हो गए. इसके बाद मोदी की रैली के अवसर पर विस्फोट हुए, जबकि पूरे शहर ही नहीं, बल्कि पटना के आसपास लगभग 40 किमी तक हाई अलर्ट था और पुलिस के तमाम सुरक्षा इंतजाम किए गए थे. फिर भी आतंकवादी बम फोड़ने में कैसे कामयाब हो गए.

मुझे याद आता है कि इस धमाके के तीसरे दिन अहमदाबाद में शंकर सिंह वाघेला ने राज्य के हलोल-कलोल में साम्प्रदायिक ताक़तों द्वारा बिहार में धमाके की साजिश रचने का शक जाहिर किया था.

आखिर हमारी एजेंसियों ने इन बातों पर नज़रे क्यों नहीं दौड़ाई और मीडिया को इस पर सवाल उठाने का साहस क्यों नहीं हुआ. हालात बता रहे हैं कि धर्मनिरपेक्ष शक्तियों को तितर-बितर करने के लिए सांप्रदायिक ताक़तें मानवता, शालीनता और सभ्यता की सभी हदें पार कर देने का फैसला ले चुकी हैं. आज अगर चुनाव मैदान में अब्दुल्लाह, अब्दुर रहमान या अक़ील व शकील नाम के विभिन्न उम्मीदवार विभिन्न बैनरों के तहत मुसलमानों को आवाज़ दे रहे हैं तो हमें एक फिर आज से पांच साल पहले रची गई इस साजिश पर नज़र डालनी होगी, जिसे हमने अपने चेतना का सबूत देते हुए महसूस कर लिया था और उन ज़मीर-फरोशो को दरकिनार करते हुए सांप्रदायिक ताक़तों की कमर तोड़ दी थी.

हमें उम्मीद है कि इस बार भी वही भावना, वही चेतना और उसी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन  दिल्ली व पूरे देश के मतदाता करेंगे और सांप्रदायिक ताक़तों द्वारा बिछाई गई बिसात को नस्त व नाबूद करने में सफल होंगे.

(लेखक विश्व शांति परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, और यह उनके अपने विचार हैं.) 

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