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मोदी की जीत और मज़दूर वर्ग के लिए इसके मायने

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published May 29, 2014 3 Views
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20 Min Read
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आने वाली कठिन चुनौती का सामना करने के लिए ग़रीब और मेहनतकश अवाम को कमर कस लेनी होगी…

BeyondHeadlines News Desk

सोलहवीं लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा गठबन्धन की भारी जीत अप्रत्याशित नहीं है. जैसा कि ‘मज़दूर बिगुल’ के पन्नों पर हम पहले भी कहते आ रहे थे, पूंजीवादी व्यवस्था का संकट उसे लगातार एक फासीवादी समाधान की ओर धकेल रहा है. पूंजीवाद का दायरा आज केवल नवउदारवादी नीतियों पर अमल की ही इजाज़त देता है. इन नवउदारवादी नीतियों को कड़ाई से लागू करने के लिए एक ज़्यादा से ज़्यादा निरंकुश सर्वसत्तावादी शासन की ज़रूरत है, इसलिए भारतीय पूँजीपति वर्ग की पहली पसन्द भाजपा गठबन्धन ही था.

बहुत पहले ही देश के तमाम बड़े पूंजीपतियों ने ऐलान कर दिया था कि वे मोदी को ही प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं. अम्बानी, अडानी, टाटा, बिड़ला सहित सभी पूंजीपति घरानों ने हर तरह से मोदी के प्रचार अभियान का साथ दिया. पूंजीपतियों के स्वामित्व वाले सभी समाचार चैनलों और अख़बारों-पत्रिकाओं ने मोदी के पक्ष में जमकर हवा बनायी. अरबों रुपये ख़र्च करके देशी-विदेशी पी.आर. कम्पनियों द्वारा इंटरनेट पर सोशल मीडिया के ज़रिये भी धुआंधार प्रचार किया गया. बुर्जुआ संसदीय प्रणाली में अन्ततोगत्वा पूंजी ही निर्णायक सिद्ध होती है. यदि शासक वर्ग लगभग आम सहमति से मोदी के पक्ष में था, तो नतीजे ऐसे ही आने थे.

ज़ाहिर है, इन नतीजों से सबसे अधिक ख़ुश देश के तमाम पूंजीवादी घराने ही हैं. मोदी के जीतने की सम्भावनाओं पर ही दो दिन पहले से शेयर बाज़ार में सेंसेक्स ऊपर चढ़ने लगा था और 16 मई को तो उसने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये. तमाम बिज़नेस चैनलों पर पूंजीपतियों से अपनी ख़ुशी छिपाये नहीं छिप रही थी.

ख़ुशी से पगलाये बिज़नेस चैनलों ने नयी सरकार का एजेंडा भी बताना शुरू कर दिया. सबसे पहले जो फ़ाइलें निपटानी हैं उनमें ख़ास हैं – गैस के दाम बढ़ाना, रक्षा क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश, बीमा क्षेत्र में विदेशी भागीदारी 26 प्रतिशत से बढ़ाकर 49 प्रतिशत करना, टैक्स में सुधार यानी अमीरों से लिये जाने वाले प्रत्यक्ष कर घटाना और अप्रत्यक्ष कर बढ़ाना जिसकी वसूली ग़रीबों से होती है, विनिवेश को तेज़ करना यानी बचे-खुचे सरकारी उद्योगों को निजी हाथों में बेचना, आदि-आदि…

कहने की ज़रूरत नहीं कि इन सबकी क़ीमत देश की आम मेहनतकश आबादी की हड्डियां निचोड़कर ही वसूली जायेगी. चुनावों में लगभग 40,000 करोड़ रुपये का जो भारी खर्च हुआ है, जिसमें करीब 10,000 करोड़ रुपये का ख़र्च अकेले मोदी के प्रचार पर बताया जा रहा है, उसकी भरपाई भी तो आम जनता को ही करनी है.

जो लोग समझ रहे थे कि भाजपा के सत्ता में नहीं होने से उसका आधार कमज़ोर पड़ गया था, वे भारी ग़लतफ़हमी में थे. आरएसएस अपने तमाम संगठनों के ज़रिये लगातार अपना काम करता रहा है और अपने प्रचार के ज़रिये पिछले दस वर्षों के कांग्रेसी राज में जनता के असन्तोष का फ़ायदा उठाकर उसने समाज में अपनी पैठ और बढ़ायी है.

भूलना नहीं होगा कि नवउदारवादी नीतियों को लागू करने की शुरुआत देश में कांग्रेस ने ही की थी और पिछले दस वर्षों के दौरान भी उसने इन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाया था. लेकिन वैश्विक आर्थिक संकट के बीच पूंजीपति वर्ग को हर तरह के विरोध को कुचलकर जितनी कठोरता के साथ इन नीतियों पर अमल करवाने की ज़रूरत थी वैसा करने में वह पिछड़ गयी.

एक तरफ़ पूंजीपतियों का चहेता बने रहने और दूसरी तरफ़ चुनाव जीतने के लिए लोकलुभावन बातें और योजनाएं पेश करने के बीच झूलते रहने के कारण पूंजीपतियों का बड़ा हिस्सा उससे निराश हो गया था. घनघोर वित्तीय संकट के चलते उसकी लोकलुभावन घोषणाएं भी हवा में ही रह गयीं.

रही-सही कसर रिकार्डतोड़ घपलों-घोटालों ने पूरी कर दी. ‘आप’ पार्टी पर भी पूंजीपति वर्ग के एक हिस्से ने और साम्राज्यवादी पूंजी ने दांव लगाया था, और उसके नेता बार-बार आश्वासन दे रहे थे कि वे भ्रष्टाचार इसीलिए दूर करना चाहते हैं, ताकि पूंजीपतियों को “ईमानदारी” से अपना काम करने का पूरा मौका मिल सके. लेकिन शुरू से ही पूंजीपति वर्ग के बड़े हिस्से की पहली पसन्द मोदी ऐंड कम्पनी ही थी और लगातार कोशिशों के ज़रिये वह साम्राज्यवादी पूंजी को भी भरोसा दिलाने में कामयाब रहे कि उनके हितों का अच्छी तरह ख़्याल रखा जायेगा.

मोदी का सत्ता में आना पूरी दुनिया में चल रहे सिलसिले की ही एक कड़ी है. नवउदारवाद के इस दौर में पूंजीवादी व्यवस्था का संकट जैसे-जैसे गम्भीर होता जा रहा है, वैसे-वैसे दुनियाभर में फासीवादी उभार का एक नया दौर दिखायी दे रहा है.

ग्रीस, स्पेन, इटली, फ्रांस और उक्रेन जैसे यूरोप के कई देशों में फासिस्ट किस्म की धुर दक्षिणपंथी पार्टियों की ताक़त बढ़ रही है. अमेरिका में भी टी-पार्टी जैसी धुर दक्षिणपंथी शक्तियों का प्रभाव बढ़ रहा है. नव-नाज़ी ग्रुपों का उत्पात तो इंग्लैण्ड, जर्मनी, नार्वे जैसे देशों में भी तेज़ हो रहा है। तुर्की, इंडोनेशिया जैसे देशों में पहले से निरंकुश सत्ताएं क़ायम हैं जो पूंजीपतियों के हित में जनता का कठोरता से दमन कर रही हैं.

हाल के वर्षों में कई जगह ऐसी ताकतें सीधे या फिर दूसरी बुर्जुआ पार्टियों के साथ गठबन्धन में शामिल होकर सत्ता में आ चुकी हैं. जहां वे सत्ता में नहीं हैं, वहां भी बुर्जुआ जनवाद और फासीवाद के बीच की विभाजक रेखा धूमिल-सी पड़ती जा रही है और सड़कों पर फासीवादी उत्पात बढ़ता जा रहा है.

हमने पहले भी लिखा था कि मोदी सत्ता में आये या न आये, भारत में सत्ता का निरंकुश दमनकारी होते जाना लाज़िमी है. सड़कों पर फासीवादी उत्पात बढ़ता जायेगा. फासीवाद विरोधी संघर्ष का लक्ष्य केवल मोदी को सत्ता में आने से रोकना नहीं हो सकता. इतिहास का आज तक का यही सबक रहा है कि फासीवाद विरोधी निर्णायक संघर्ष सड़कों पर होगा और मज़दूर वर्ग को क्रान्तिकारी ढंग से संगठित किये बिना, संसद में और चुनावों के ज़रिए फासीवाद को शिकस्त नहीं दी जा सकती.

फासीवाद विरोधी संघर्ष को पूंजीवाद विरोधी संघर्ष से काटकर नहीं देखा जा सकता. पूंजीवाद के बिना फासीवाद की बात नहीं की जा सकती. फासीवाद विरोधी संघर्ष एक लम्बा संघर्ष है और उसी दृष्टि से इसकी तैयारी होनी चाहिए. अब जबकि मोदी सत्ता में आ चुका है, तो ज़ाहिर है कि हमारे सामने एक फौरी चुनौती आ खड़ी हुई है. हमें इसके लिए भी तैयार रहना होगा.

पूंजीवादी संकट का यदि समाजवादी समाधान प्रस्तुत नहीं हो पाता तो फासीवादी समाधान सामने आता ही है. मार्क्सवाद के इस विश्लेषण को इतिहास ने पहले कई बार साबित किया है. फासीवाद हर समस्या के तुरत-फुरत समाधान के लोकलुभावन नारों के साथ तमाम मध्यवर्गीय जमातों, छोटे कारोबारियों, सफ़ेदपोश कर्मचारियों, छोटे उद्यमियों और मालिक किसानों को लुभाता है. उत्पादन प्रक्रिया से बाहर कर दी गयी मज़दूर आबादी का एक बड़ा हिस्सा भी फासीवाद के झण्डे तले गोलबन्द हो जाता है जिसके पास वर्ग चेतना नहीं होती और जिनके जीवन की परिस्थितियों ने उनका लम्पटीकरण कर दिया होता है.

निम्न मध्यवर्ग के बेरोज़गार नौजवानों और पूंजी की मार झेल रहे मज़दूरों का एक हिस्सा भी अन्धाधुन्ध प्रचार के कारण मोदी जैसे नेताओं द्वारा दिखाये सपनों के असर में आ जाता है. जब कोई क्रान्तिकारी सर्वहारा नेतृत्व उसकी लोकरंजकता का पर्दाफाश करके सही विकल्प प्रस्तुत करने के लिए तैयार नहीं होता तो फासीवादियों का काम और आसान हो जाता है.

आरएसएस जैसे संगठनों द्वारा लम्बे समय से किये गये प्रचार से उनको मदद मिलती है. भूलना नहीं चाहिए कि संघियों के प्रचार तंत्र का असर मज़दूर बस्तियों तक में है. बड़े पैमाने पर संघ के वीडियो और ऑडियो टेप मज़दूरों के मोबाइल फोन में पहुंच बना चुके हैं. बहुत-सी जगहों पर ग़रीबों की कालोनियों और मज़दूर बस्तियों में भी संघ की शाखाएं लगने लगी हैं.

मोदी की जीत के बाद ज़रूरी नहीं कि तुरन्त दंगे और अल्पसंख्यकों पर हमले शुरू हो जायेंगे. संघ परिवार को दशकों की तैयारी के बाद इस बार जो मौक़ा मिला है उसका पूरा फ़ायदा उठाकर वह लम्बे समय तक सत्ता में बने रहने की योजना पर काम कर रहा है.

यह तय है कि भाजपा गठबंधन के शासन का सबसे अधिक कहर मज़दूर वर्ग पर बरपा होगा. उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को ख़ूनी ख़ंज़र हाथ में थामकर लागू किया जायेगा. मुनाफ़ाख़ोरों की तिजोरियां भरने के लिए मज़दूरों की हड्डियों तक को निचोड़ने की खुली छूट दी जायेगी. ट्रेड यूनियनों के लिए मज़दूरों-कर्मचारियों के आर्थिक मुद्दों की लड़ाई लड़ना भी मुश्किल हो जायेगा. सरकारी परिसम्पत्तियों को औने-पौने दामों पर पूंजीपतियों के हवाले किया जायेगा और जनता को मिलने वाली सरकारी सुविधाओं में और अधिक कटौती की जायेगी. देशी-विदेशी पूँजीपतियों को और बिल्डर लॉबी को कौड़ियों के मोल ज़मीनें दी जायेंगी, किसानों और आदिवासियों को जबरिया बेदखल किया जायेगा और प्रतिरोध की हर कोशिश को लोहे के हाथों से कुचल देने की कोशिश की जायेगी.

जनवादी अधिकार आन्दोलन को विशेष तौर पर हमले का निशाना बनाया जायेगा और जनवादी अधिकार कर्मियों को “देशद्रोह” जैसे अभियोग लगाकर जेलों  में ठूंसा जायेगा. सरकार एकदम नंगे ढंग से पूंजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी बनकर काम करेगी. मोदी जब कहता है कि वह ‘मज़दूर’ की तरह सेवा करेगा तो उसका मतलब यही है कि वह अपने आकाओं की सेवा करने में जीजान एक कर देगा, जैसा कि उसने गुजरात में किया है.

यह भी सही है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों को एक ‘आतंक राज’ के मातहत दोयम दर्जे का नागरिक बनकर जीना होगा. गुजरात में 2002 के नरसंहार के बाद दंगे नहीं हुए, क्योंकि अब इसकी ज़रूरत ही नहीं थी. वहां अल्पसंख्यकों को बुरी तरह दबाकर, आतंकित करके, कोने में धकेलकर उनकी स्थिति बिल्कुल दोयम दर्जे की बना दी गयी है.

यही ‘गुजरात मॉडल’ देशभर में लागू करने की कोशिश की जायेगी. दलितों का उत्पीड़न अपने चरम पर होगा. देशभर में अपनी सैकड़ों रैलियों में और दर्जनों टीवी इंटरव्यू में मोदी ने क्या कभी एक शब्द भी बर्बर बलात्कार की शिकार भगाणा की उन दलित बच्चियों के लिए बोला जो इंसाफ़ की मांग के लिए तीन सप्ताह से जन्तर-मन्तर पर बैठी हुई हैं?

संघ परिवार की विचारधारा में दलितों और स्त्रियों के विरुद्ध जैसा विष भरा हुआ है, उसमें इस बात की उम्मीद करना भी बेमानी है. आने वाले समय में मोदी की आर्थिक नीतियों का बुलडोज़र जब चलेगा तो अवाम में बढ़ने वाले असन्तोष को भटकाने के लिए साम्प्रदायिक और जातिगत आधार पर मेहनतकश जनता को बांटकर उसकी वर्गीय एकजुटता को ज़्यादा से ज़्यादा तोड़ने की कोशिशें की जायेंगी.

देश के भीतर के असली दुश्मनों से ध्यान भटकाने के लिए उग्र अन्धराष्ट्रवादी नारे दिये जायेंगे और सीमाओं पर तनाव पैदा किये जायेंगे. संघ परिवार और पूंजीपति वर्ग नहीं चाहें कि अभी दंगे भड़कें ताकि उद्योग-व्यापार में कोई बाधा न आये, तो भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इन्हीं के द्वारा पैदा किये माहौल में इनके अनगिनत संगठनों के चरमपंथी तत्वों के उत्पात के कारण दंगे शुरू हो जायें.

पूँजीपति वर्ग फासीवाद को ज़ंजीर से बंधे कुत्ते की तरह इस्तेमाल करना चाहता है, ताकि जब असन्तोष की आँच उस तक पहुंचने लगे तो ज़ंजीर को ढीला करके जनता को डराने और आतंकित करने में इसका इस्तेमाल किया जा सके. लेकिन कई बार कुत्ता उछल कूद करते-करते ज़ंजीर छुड़ाकर अपने मालिक की मर्ज़ी से ज़्यादा ही उत्पात मचा डालता है.

इसलिए मेहनतकशों, नौजवानों और सजग-निडर नागरिकों को चौकस रहना होगा. उन्हें ख़ुद साम्प्रदायिक उन्माद में बहने से बचना होगा और उन्माद पैदा करने की किसी भी कोशिश को नाकाम करने के लिए सक्रिय हस्तक्षेप करने का साहस जुटाना होगा.

फासीवादी उभार के लिए उन संशोधनवादियों, संसदमार्गी नकली कम्युनिस्टों और सामाजिक जनवादियों को इतिहास कभी नहीं माफ कर सकता, जिन्होंने पिछले कई दशकों के दौरान मात्र आर्थिक संघर्षों और संसदीय विभ्रमों में उलझाकर मज़दूर वर्ग की वर्ग-चेतना को कुण्ठित करने का काम किया. ये संशोधनवादी फासीवाद-विरोधी संघर्ष को मात्र चुनावी हार-जीत के रूप में ही प्रस्तुत करते रहे, या फिर सड़कों पर मात्र कुछ प्रतीकात्मक विरोध-प्रदर्शनों तक सीमित रहे. अतीत में भी इनके सामाजिक जनवादी, काउत्स्कीपंथी पूर्वजों ने यही महापाप किया था.

दरअसल, ये संशोधनवादी आज फासीवाद का जुझारू और कारगर विरोध कर ही नहीं सकते, क्योंकि ये “मानवीय चेहरे” वाले नवउदारवाद का और कीन्सियाई नुस्खों वाले “कल्याणकारी राज्य” का विकल्प ही सुझाते हैं. आज पूंजीवादी ढांचे में चूंकि इस विकल्प की सम्भावनाएं बहुत कम हो गयी हैं, इसलिए पूंजीवाद के लिए भी ये संशोधनवादी काफी हद तक अप्रासंगिक हो गये हैं.

बस इनकी एक ही भूमिका रह गयी है कि ये मज़दूर वर्ग को अर्थवाद और संसदवाद के दायरे में कैद रखकर उसकी वर्ग-चेतना को कुण्ठित करते रहें और वह काम ये करते रहेंगे. जब फासीवादी आतंक चरम पर होगा तो ये संशोधनवादी चुप्पी साधकर बैठ जायेंगे.

अतीत में भी बाबरी मस्जिद गिराये जाने के आगे-पीछे फैले साम्प्रदायिक उन्माद का सवाल हो या फिर गुजरात में हफ्तों चले बर्बर नरसंहार का, ये बस संसद में गत्ते की तलवारें भांजते रहे और टीवी और अख़बारों में बयानबाज़ियां करते रहे. ना इनके कलेजे में इतना दम है और ना ही इनकी ये औक़ात रह गयी है कि ये फासीवादी गिरोहों और लम्पटों के हुजूमों से आमने-सामने की लड़ाई लड़ने के लिए लोगों को सड़कों पर उतार सकें.

इन्हीं की तज़र् पर काग़ज़ी बात बहादुरी करने वाले छद्म वामपंथी बुद्धिजीवियों में से बहुतेरे या तो घरों में दुबक जायेंगे. बहुत से छद्म वामपंथी बुद्धिजीवियों को तो फासीवाद का ख़तरा इसलिए ज़्यादा सता रहा है क्योंकि कांग्रेस या सपा शासन में विभिन्न संस्थाओं- अकादमियों आदि में घुसकर सत्ता की मलाई चाटने का जो जुगाड़ ये लगा लिया करते थे, या फिर टीवी चैनलों आदि पर चेहरे दिखाकर जो कमाई हो जाया करती थी उसके रास्ते अब बन्द हो जायेंगे.

अब योजनाबद्ध ढंग से हर जगह संघ परिवार के विश्वस्त लोगों को बैठाया जायेगा और किसी भी तरह का “वाम” लेबल लगे हुए लोगों को छांट-छांटकर बाहर किया जायेगा. ऐसे में आश्चर्य नहीं कि कुछ तथाकथित वाम बुद्धिजीवी चोला बदल लें या माफ़ीनामा भी लिख डालें. इतिहास में ऐसी मिसालों की कमी नहीं है.

निश्चय ही फासीवादी माहौल में क्रान्तिकारी शक्तियों के प्रचार एवं संगठन के कामों का बुर्जुआ जनवादी स्पेस सिकुड़ जायेगा, लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह होगा कि नवउदारवादी नीतियों के बेरोकटोक और तेज़ अमल तथा हर प्रतिरोध को कुचलने की कोशिशों के चलते पूंजीवादी संरचना के सभी अन्तरविरोध उग्र से उग्रतर होते चले जायेंगे.

मज़दूर वर्ग और समूची मेहनतकश जनता रीढ़-विहीन ग़ुलामों की तरह सबकुछ झेलती नहीं रहेगी. अन्ततोगत्वा वह सड़कों पर उतरेगी. व्यापक मज़दूर उभारों की परिस्थितियां तैयार होंगी. यदि इन्हें नेतृत्व देने वाली क्रान्तिकारी शक्तियां तैयार रहेंगी और साहस के साथ ऐसे उभारों में शामिल होकर उनकी अगुवाई अपने हाथ में लेंगी तो क्रान्तिकारी संकट की उन सम्भावित परिस्थितियों में बेहतर से बेहतर इस्तेमाल करके संघर्ष को व्यापक बनाने और सही दिशा देने का काम किया जा सकेगा.

अपने देश में और और पूरी दुनिया में बुर्जुआ जनवाद का क्षरण और नव फासीवादी ताक़तों का उभार दूरगामी तौर पर नयी क्रान्तिकारी सम्भावनाओं के विस्फोट की दिशा में भी संकेत कर रहा है.

आने वाला समय मेहनतकश जनता और क्रान्तिकारी शक्तियों के लिए कठिन और चुनौतीपूर्ण है. हमें राज्यसत्ता के दमन का ही नहीं, सड़कों पर फासीवादी गुण्डा गिरोहों का भी सामना करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा. रास्ता सिर्फ एक है. हमें ज़मीनी स्तर पर ग़रीबों और मज़दूरों के बीच अपना आधार मज़बूत बनाना होगा. बिखरी हुई मज़दूर आबादी को जुझारू यूनियनों में संगठित करने के अतिरिक्त उनके विभिन्न प्रकार के जनसंगठन, मंच, जुझारू स्वयंसेवक दस्ते, चौकसी दस्ते आदि तैयार करने होंगे.

आज जो भी वाम जनवादी शक्तियां वास्तव में फासीवादी चुनौती से जूझने का जज़्बा और दमख़म रखती हैं, उन्हें छोटे-छोटे मतभेद भुलाकर एकजुट हो जाना चाहिए। हमें भूलना नहीं चाहिए कि इतिहास में मज़दूर वर्ग की फौलादी मुट्ठी ने हमेशा ही फासीवाद को चकनाचूर किया है, आने वाला समय भी इसका अपवाद नहीं होगा. हमें अपनी भरपूर ताक़त के साथ इसकी तैयारी में जुट जाना चाहिए. (साभार : मज़दूर बिगुल)

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