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BeyondHeadlines > Lead > कब आएंगे इन बेचारों के अच्छे दिन….
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कब आएंगे इन बेचारों के अच्छे दिन….

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published June 27, 2014
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7 Min Read
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Siraj Mahifor BeyondHeadlines

23 साल का राजू अपने झुग्गी में आराम से लेटा हनी सिंह का ‘हॉट लगदी मेनु…’ गाना सुन रहा है… उधर उसकी मां मन ही मन बड़बड़ा रही है कि सारे पड़ोसी दिन भर काम करते हैं,  लेकिन एक हमारे यह लाड साहब हैं जो सिर्फ दिन भर मोबाईल पर गाना सुनने में ही दिन काट देते हैं.

मैं उसकी मां से मिला तो काफी मायूस होकर बता रही थी कि कितनीमुश्किल से लोगों के घरों में काम करके इसको पढ़ाया-लिखाया… पर आज बेकार है… कूड़ा बीनने भी नहीं जाता… समझ नहीं आता कि घर कैसे चलेगा… उपर से यह महंगाई… इस सरकार ने तो हमें ठग लिया…

©BeyondHeadlinesजब राजू से मैंने सवाल किया कि आप क्यों घर पर ही रहते हो, कोई काम क्यों नहीं करते?  यह सुनकर उसका मुंह जैसे मुरझा सा गया…सर नीचे झुकाते हुए बोला कि क्या करें भाई! हम तो काम करना चाहते हैं… डिप्लोमा इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर सोचा था कि दिल्ली में कुछ काम मिल जायेगा, लेकिन मैं जहां काम ढूढ़ने जाता हूं, वहां पहले से ही लोगों की भीड़ लगी पड़ी है. मेरा बस चले तो देश के सारे इंजीनियरिंग कॉलेज बंद करवा दूं….

पिछले साल मेरा कैम्पस प्लेसमेंट भी हुआ था. पर बाद में पता चला कि यह प्लेसमेंट के नाम पर एक धोखा था. कम्पनी ने बहाने से हमें बाहर का रास्ता दिखा दिया. और कॉलेज का जो फायदा होना था वो उसे हो चुका था. दिल में एक उम्मीद जगी थी कि देश में नई सरकार आ रही है… हम जैसे लोगों को रोज़गार ज़रूर मिलेगा… पर अब ऐसा लगता नहीं…

©BeyondHeadlinesयह कहानी अकेले राजू की ही नहीं है, बल्कि दिल्ली के गाजीपुर डेयरी फार्म के पास झुग्गियों में रह रहे लगभग पचासों नौजवानों की है, जो बेरोज़गारी की मार झेल रहे हैं. इनमें से कई पढ़े-लिखे हैं तो कई अनपढ़ भी…

गाज़ीपूर डेयरी के इन झूग्गियों में लगभग 300 परिवार रहता है. इनमें से अधिकतर पश्चिम बंगाल से कुछ समय पहले आए हुए हैं. इन लोगों को बंगाल में उचित रोज़गार न मिल पाने के कारण रोटी, कपड़ा व मकान तलाश करने के लिए दिल्ली का रुख करना पड़ा. लेकिन यहां तो स्थिति और भी बदतर निकली.

21 साल के चिन्टू का कहना है कि पहले वो यहां मजदूरी कर लेता था, लेकिन अब वो भी काम बहुत मुश्किल से मिलता है. और दिल्ली के इस चिलचिलाती धूप ने जो जान ले रखी है. एक दिन काम करते हुए गिर पड़ा था, तब से काम पर नहीं जा रहा हूं.

©BeyondHeadlinesवो कुछ याद करते हुए बताता है कि चुनाव के दिनों में टीवी में विज्ञापन आता था कि अच्छे दिन आने वाले हैं, लेकिन हमारे जैसे कई नौजवान इन झोपडि़यों में रहते हैं. उनको कहीं अच्छे दिन नहीं दिखाई दे रहे हैं…

मैंने इन नौवजवानों से जानने की कोशिश की कि यहां के लोगों का काम क्या है? तो नईम ने हमें बताया कि हम झुग्गी वालों का मुख्य काम इन झुग्गियों के पीछे लगे एक बड़े कचरे के ढ़ेर के ऊपर से कचरे को टटोलना और उनमें से प्लास्टिक, लोहा, दफ्ती, आदि सामान चुन कर कबाड़ी के यहां बेचना है.

आगे बढ़ा तो देखा कि इस चिलचिलाती धूप में झुग्गी के बाहर चंद ही लोग थे… कुछ बच्चे पानी के साथ खेल रहे थे. तो ज़्यादातर रोते हुए ही सड़कों पर नज़र आए, जिनके बदन पर सिर्फ एक नेकर के अलावा और कुछ नहीं था… जिनमें शायद अधिकतर बच्चे भूख के कारण रो रहे थे.

मैंने बच्चों की पढ़ाई के बारे में यूसुफ से पूछा तो उसका कहना था कि साहब हम लोगों को अपना पेट पालने में लाले पड़े हैं, तो बच्चों को पढ़ाएं कहां से? जब बच्चों का जी चाहता है तो पास के सरकारी स्कूल में चले जाते हैं. वर्ना दिनभर खेल में इधर-उधर समय बिता देते हैं. साथ ने उसने यह भी सवाल दाग दिया कि पढ़ने से हो क्या रहा है. पढ़-लिखकर तो और बेकारी है. वो तो लाठ साब बन जाते हैं. कूड़ा बीनने के काम के लायक भी नहीं रह पाते.

जैसे ही हम गलियों में घुसे तो कई नालों को देखा… ऐसा महसूस हुआ कि यहां कभी सफाई नहीं की गई है. अन्सार से पूछने पर पता चला कि कुछ दिनों पहले सड़क बनाई गई थी, जो अब टूट चुकी है. लेकिन सफाई के लिए यहां कोई नहीं आता. औरतें खुद से ही अपने घर के सामने की सफाई कर लेती हैं…

©BeyondHeadlinesइसरान ठेले पर बैठा हुआ अपने मुंह से भ्रूम-भ्रूम की आवाज़ निकाल कर ठेले की पैडल घुमा रहा है… उससे पूछने पर कि वो क्या बनना चाहता है? उसने बताया कि ‘‘अमी जहाच जलाते चाय” (मैं जहाज चलाना चाहता हूं) यानी उसका मतलब था कि मैं पायलट बनना चाहता हूं.

मैंने उससे पूछा कि क्या तुम पढ़ाई करते हो? यह सुनते ही उसका गला सूख सा गया, फिर उसने रूक कर बताया कि ‘‘ शोरकारी श्कूले जेते चाय किन्तु पोड़ाशूना होयना‘‘ उसका मतलब था कि सरकारी स्कूल में जाता हूं, लेकिन पढ़ाई नहीं होती…

दिल्ली में स्थित गाजीपुर के झुग्गियों में हमें अधिकतर बच्चे ऐसे मिलें, जो स्कूल तो नहीं जाते, लेकिन पूरा दिन ऐसे ही खेल-खेल में बिता देते हैं. इसकी सबसे अहम वजह है –यहां स्कूल का ना होना और फिर यहां के लोगों की गरीबी व बेचारगी….

नई सरकार में महंगाई बढ़ती जा रही है और गाज़ीपुर के जैसे कई नौजवानों के पास सिर्फ बेरोजगारी ही है. यहां के नौजवानों को अब भी वो डायलॉग याद है –‘देश में बेरोज़गारी व महंगाई बढ़ाने वाली सरकार को जनता माफ नहीं करेगी…’ लेकिन अब इन युवाओं के दिलों में इस उम्मीद के चिंगारी बाकी है कि अच्छे दिन ज़रूर आएंगे… लेकिन वो कब आएंगे किसी को पता नहीं….

TAGGED:acche dingazipur youth storyकब आएंगे इन बेचारों के अच्छे दिन....
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