इज़राइल की बर्बरता के खिलाफ़ आवाज़ उठाना क्यों ज़रूरी है?

Beyond Headlines
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Anand Singh for BeyondHeadlines

गाज़ा में इज़राइल द्वारा किये जा रहे बर्बर नरसंहार पर मुख्यधारा की मीडिया ने एक षड़यंत्रकारी चुप्पी ओढ़ ली है. परन्तुं सोशल मीडिया के ज़रिये पूरी दुनिया में इज़राइल के क़हर की तस्वीरें पहुंच रही हैं, जो इज़राइल द्वारा किये जा रहे मानवता के खिसाफ जघन्य अपराध को सामने ला रही हैं.

पिछले कुछ दिनों से फ़ेसबुक पर इज़राइल की इस बर्बरता से संबन्धित पोस्टों पर कुछ लोग विचित्र किस्मों की टिप्पणियां करते नज़र आये. कुछ का कहना है कि अपने देश की समस्याओं की बजाय किसी दूसरे देश की समस्या‍ को इतना तूल देना उचित नहीं है. वहीं कुछ लोग यह भी कहते पाये गये कि इज़राइल यह सब कुछ आत्मरक्षा में कर रहा है.

जो लोग इस बर्बरता को किसी दूसरे देश की समस्या बता रहे हैं. उनसे पूछा जाना चाहिए कि न्याय-अन्याय, बर्बरता, जनसंहार जैसे मुद्दे भला कब से राष्ट्री-राज्यों के संकुचित दायरे के भीतर देखे जाने लगे!

ऐसे लोगों की तर्कपद्धति पर सवाल उठाते हुए पूछा जाना चाहिए कि हीरोशिमा-नागासाकी, सबरा और शातिला जैसे नरसंहारों की जघन्यता को भी राष्ट्रीय चश्में  से देखना क्या संकीर्णता और संवेदनहीनता की पराकाष्ठा नहीं है?

वैसे सवाल तो यह भी उठता है कि ऐसे लोग क्या अपने देश में हो रही बर्बरता के खिलाफ आवाज़ उठाते हैं? क्या इनकी सोई हुई संवेदना गुजरात नरसंहार जैसे मुद्दों पर भी जागती है? जवाब है नहीं…. क्योंकि अंधराष्ट्र वादी विचारों ने इनकी मानवीय संवेदनाओं को बहुत गहरी नींद में सुला दिया है.

जो लोग इस बेहूदे तर्क की आड़ लेकर इस नरसंहार को न्याय-संगत ठहरा रहे हैं कि इज़राइल यह सबकुछ आत्मरक्षा में कर रहा है, उनसे बस यही कहा जा सकता है कि दक्षिणपंथी विचारों की आंधी में बहने की बजाय संजीदगी से एक बार फिलीस्तीनी समस्या  के इतिहास पर भी नज़र दौड़ा ली जाये.

पिछले 60-70 सालों में फिलीस्तीनी जनता के ऊपर इज़राइल ने अमेरिका व अन्य पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों की शह पर जैसे क़हर ढाये हैं, वैसी मिसालें इतिहास में कम ही मिलती हैं. 1947 में संयुक्ते राष्ट्र की विभाजन योजना के तहत पश्चिम एशिया में दो देश बनाये गये – इज़राइल और फ़िलिस्तीन… इज़राइल में मुख्यतः वहां रह रही यहूदी आबादी और बाहर से आये यहूदी शरणार्थी बसने थे, जबकि फ़िलिस्तीन उस क्षेत्र की अरब जनता का देश था. लेकिन इज़राइल ने फौरन ही फ़िलिस्तीनियों को खदेड़कर उनकी ज़मीन पर क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया और पूरी दुनिया से लाकर अमीर यहूदियों को वहां बसाने लगा.

1948 के अरब-इज़राइल युद्ध में इज़राइल ने फिलीस्तीन की 26 फ़ीसदी क्षेत्र पर कब्ज़ा  कर लिया. 1967 के छह-दिन युद्ध के दौरान इज़राइल ने फिलीस्तीन के बाकी हिस्‍सों पर भी अपना कब्ज़ा जमा लिया.

आज का फ़िलिस्तीन एक-दूसरे से अलग ज़मीन की दो छोटी-छोटी पट्टियों पर बसा है. एक है पश्चिमी तट का इलाका और दूसरा है गाज़ा पट्टी, जहां मौजूदा नरसंहार किया जा रहा है, वहां सिर्फ 360 वर्ग किलोमीटर के दायरे में 15 लाख आबादी रहती है. यह दुनिया का सबसे सघन जनसंख्या वाला क्षेत्र है. ऐसे में फिलीस्तीनी जनता अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है.

यदि उनके कुछ लोग आतंकवादी गति‍विधियों की शरण ले रहे हैं तो वह उनकी बदहवासी और निराशा को दि‍खाता है. वैसे आत्मरक्षा का तर्क देने वालों को यह चीज़ क्यों नहीं दिखायी देती कि आतंकवाद की घटनाओं में तो इक्का-दुक्का इज़राइली नागरिकों की मौत होती है, परन्तु  आये दिन इज़राइल की तथाकथित आत्मरक्षार्थ कार्रवाई में सैकड़ों मासूम बच्चों, महिलायें और नागरिक स्वाहा हो जाते हैं.

मौजूदा प्रकरण को ही लें… जिसमें पिछले 4-5 दिनों में इज़राइली हमले में लगभग 120 मौतों और 500 से ज़्यादा घायलों की ख़बर आयी है. यह आत्मरक्षा नहीं, 3 बिलियन डालर की अमेरिकी मदद से चलाये जाने वाला साम्राज्यवादी-जियनवादी आतंकवाद है.

जो लोग इसे यहूदी बनाम मुस्लिम के साम्प्रदायिक चश्में से देखकर इस नरसंहार के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा रहे हैं वो दरअसल अपनी मरी हुई संवेदना का प्रदर्शन कर रहे हैं.

इसलिए जिन लोगों की संवेदनाएं अभी सोयी या मरी नहीं है, उन्हें इज़राइल द्वारा किये जा रहे इस सदी के बर्बरतम नरसंहार के खिलाफ़ आवाज़ उठाकर यह सिद्ध करना चाहिए कि दुनिया के किसी भी कोने में हो रही बर्बरता के खिलाफ आवाज़ उठाना इंसानियत की निशानी है.

(लेखक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में IT-BHU से जुड़े हुए हैं.)

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