सवाल पूंजी का है…

Beyond Headlines
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Raj Kumar Verma for BeyondHeadlines

स्कूली शिक्षा के दौरान बचपन में टीचर कहा करते थे कि ‘गरीब अब और गरीब होंगे और अमीर अब और अमीर होंगे.’ शायद टीचर उस समय के नव उदारवाद के संदर्भ  में कहा करते थे, वो नब्बे का दशक था और उस समय भारत में  इसकी जड़े जम रही थी,  लेकिन ये बात हमें उस समय समझ  में नहीं आती  थी. लेकिन वर्षो बाद आज उनकी कही गयी ये पंक्तियां आज के यूपीएससी और भाषा के सम्बन्ध में छिड़े बहसों से खूब समझ में आती  हैं.

ऐसा नहीं है कि उदारीकरण से देश में आर्थिक बदलाव नहीं हुए हैं. वास्तव में पूंजी का सामुदायिक प्रयोग में पुरे समाज का कल्याण निहित है, लेकिन वर्तमान पूंजीवाद इस भाव को पनपने नहीं दे रहा है. और यही उदारीकरण मात खा जा रही है.

आज यूपीएससी की परीक्षा में  गैर-अंग्रेजी भाषा-भाषी छात्रों के साथ भेदभाव  का जो मुद्दा उठा है, वो सवाल एक नौकरी में पास करने का नहीं, बल्कि यह सवाल  पूंजी (कैपिटल) का भी है.

आज अंग्रेजी भाषा पूंजी निर्माण से सीधी जुडी हुई है.अगर वर्तमान में आप  ‘इंग्लिश’ जानते हैं तो आपके लिए रोज़गार, मान-सम्मान के सभी द्वार आपके लिए खुली हुई है.ये बातें मुझे ऊच्च शिक्षा ग्रहण करने के दौरान महसूस हुआ. आप अपने निगाह को चारों तरफ फेरे तो शायद ही कोई व्यक्ति हो जो अंग्रेजी में पठन- पाठन  किया हो, और वर्तमान में जिसके पास पूंजी के नाम पर कुछ न हो.

इतिहास पर अगर गौर करें तो देखते है कि ये शोषण का पैटर्न वहां भी दिखाई पड़ती है.प्राचीन भारत में ‘संस्कृत’ भाषा के आधार पर उस समय के अभिजात्य वर्ग के लोगों ने बहुजनो  का शोषण किया, क्योंकि उस समय संस्कृत में ही शिक्षा, साहित्य एवं राजकाज का क्रियाकलाप सम्पादित होता था, लेकिन शुद्रों को  शिक्षा  ग्रहण करने  का अधिकार प्राप्त नहीं था.इसका प्रभाव उनके जीवन के आर्थिक पक्ष पर भी पड़ा.

बाद में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात इन वर्गों को ‘सामाजिक न्याय’ प्रदान कर उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ा गया. वास्तव में इस विभेद की जड़े ‘चतुर्वर्णव्यस्था’ से जुड़ी हुई थी, जिसे आजीवन डॉ.आंबेडकर विरोध करते रहे.

प्राचीन काल में जिन समुदायों का शिक्षा पर एकाधिकार था, सम्पति पर भी उन्होंने ही एकाधिकार किया.कालांतर में एक समुदाय अपनी पहचान, संस्कृति एवं सम्पति पर एकाधिकार बनाये रखने हेतु समाज में ‘जातिप्रथा’ एवं ‘पितृ सत्तातमकता’ जैसे प्रथाओं (सोशल इंस्टीट्यूशन) का सहारा लियाऔर जिसके शोषण के केंद्र में ‘स्त्री’ थी. क्योंकि महिलाओं  के ‘यौन पर बिना नियंत्रण’ किए सम्पति के हस्तांतरण को रोका नहीं जा सकता था.

1915 में अम्बेडकर ने अपने लेख “कास्टस इन इंडिया: ढेइर मैकेनिज्म, जेनेसिस, एंड डेवलपमेंट” में इसका विस्तृत वर्णन किया है.हालांकि आज भारतीय समाज में अनेक बदलाव हुए है और अनेक प्रगतिशील मूल्यों को समाहित किया है.जिसके तहत जातिप्रथा में प्रति लोग तार्किक ढंग से विचार करने के साथ-साथ महिलाओं एवं दलितों  के सशक्तिकरण हेतु अनेक क़दम उठाए गए है और ये वर्ग सशक्त भी हुए हैं.आज सत्ता में इनको भागीदारी प्राप्त हुई है.

हालांकि शासक और शासितों के बीच के भाषा में एक दरार  इस देश में शरुआती दौर से ही रही है. मुग़लकाल में फारसी भाषा राजकाज के लिए प्रयुक्त की जाती थी जबकि ब्रिटिशों ने वर्तमान के अंग्रेजी को लागू की.जबकि उस समय जनसामान्य की भाषा कुछ ओर ही होती थी.

20वीं सदी के दौरान पश्चिम के नवमार्क्सवादी विचारकों जिसमे फूको, देरिदा, मर्कूज़े, ग्राम्शी आदि प्रमुख है, उन्होंने मार्क्स के आर्थिक विश्लेषण से अलग समाज में शोषण के अन्य आधारो क़ो समझने का प्रयास किया. उन्होंने भाषा के आधार पर समाज के अंदर हो रहे  शोषण एवं भेदभाव को अपने लेखों के माध्यम से उजागर करने का प्रयास किया.

आज लोग सिर्फ यूपीएससी की परीक्षा में अंग्रेजी का मुद्दा को उठा रहे है, लेकिन ज़रा सोचिये जहां रोज़गार का भरमार है, उसपर कोई प्रश्न ही नहीं उठा रहा है.आज कार्पोरेट क्षेत्र में लाखों नौकरी है, लेकिन वहां बिना अंग्रेजी का आपको इंटरव्यू में ही छंटनी कर दी जाती है.

यूपीएससी एक बर्ष में ज्यादा से ज्यादा हज़ार, पंद्रह सौ लोगों को नौकरी प्रदान करेगी. आज  देश के  उच्च प्रतिष्ठानों- इंजीनियरिंग, मेडिकल सरीखे  आई.आई.टी, आई.आई.एम में प्रवेश हेतु परीक्षाएं अंग्रेजी में ली जाती हैं, तथा उनमें अध्ययन का माध्यम भी अंग्रेजी में ही होती है.

अगर इन संस्थानों में गैर-अंग्रेजी भाषा-भाषी छात्र प्रवेश भी पा लेता है तो उस वातावरण में उसकी अध्ययन बड़ी मुश्किल हो जाती है और उसे तमाम तरह के भेदभाव का भी शिकार होना पड़ता है.क्यों नहीं इन संस्थानों में भी हिंदी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में भी अधययन हेतु शिक्षको,  प्राध्यापकों की नियुक्ति की जाए ताकि देश के  दूर दराज से आने वाले छात्रों के अध्ययन में दिक्कतों का सामना न करना पड़े. क्योंकि जो छात्र हिंदी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से इन संस्थानों में आते है, उन्हें अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई करने में पहाड़ तोड़ने के बराबर हो जाता है.

आज सरकार ‘इंक्लूसिव’ विकास पर जोर देती है. क्या हम इस लक्ष्य को समाज के ग़रीब गुरबा, पिछड़े समूहों से आने वाले छात्रों को मुख्यधारा में शामिल किए बिना पूर्ण रूप से  प्राप्त  सकते है?

वर्तमान में हम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति हेतु पश्चिम (वेस्ट) की नक़ल करते हैं तो देश के वर्नाक्यूलर भाषाओं के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए क्यों नहीं?लेकिन भारतीय समाज की विडम्बना है कि यहां नक़ल अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए की जाती  है.चाहे वह अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ही क्यों न हो.बाद में  समाज का अन्य समूहों  के जागरूक होने पर जब मांग किया जाता है, तो न चाहते हुए भी उन्हें हस्तांतरित करना पड़ता है.

जब चीन अपने देश में ‘चायनीज़’ को बढ़ावा दे सकता है, रूस रूसी भाषा को, तो भारत के बुद्धिजीवी, संभ्रांत लोग  भारतीय भाषा के बारे में क्यों नहीं सोचते हैं? क्या अब भी स्वतंत्रता के 67 वर्षों की दुहाई देनी पड़ेगी?

हां!ये सच है कि वर्तमान वैश्विक परिपेक्ष्य में हम शुतुरमुर्ग की तरह अंग्रेजी को खारिज भी नहीं कर सकते हैं. लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि वर्नाक्यूलर भाषाओं में ‘ज्ञान की विविध विधा’ का विकास न किया जा सकता हो.

यहां मुद्दा साफ है कि अंग्रेजी से विलग दूसरे भाषाओं के विकल्प का ताकि एक आम व्यक्ति भी उच्च शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ देश के प्रतिष्ठावान सार्वजानिक पदों पर आसीन हो  सके.

दूसरी ओर, इस समस्या का समाधान का रास्ता  ‘परिस्तिथियों के निर्माण’ एवं  ‘संसाधनों के सर्वव्यापीकरण’ में भी छुपा दिखता है.आज लोगों की ‘कैपेबिलिटी’ के विकास एवं उसके निर्माण पर ध्यान नहीं दिया गया है, जैसा कि अमर्त्य सेन ने अपनी पुस्तक ‘डेवलपमेंट अस फ्रीडम’ में वर्णन करते है कि फ्रीडम, इक्वालिटीजैसे तत्व को भारतीय संविधान ने अपना कर इन तत्वों को अपने नागरिकों को हस्तांरित तो कर दिया है, लेकिन इन तत्वों को भारत की 70% से अधिक जनता इसका उपभोग अथवा लाभ उठाने के लायक ही नहीं है. क्योंकि वैसी परिस्तिथियों का निर्माण राज्य और सरकार के द्वारा नहीं की गयी है.

कहते है कि भारत ‘डेमोग्राफिक डिविडेंड’ में चीन की तुलना में इसकी स्थिति बेहतर है लेकिन जानकारों का मानना है कि इस आबादी का अगर बेहतर ढंग से ‘स्किल डेवलपमेंट’ नहीं किया गया तो इसका नकारात्मक प्रभाव भी पड़ सकता है.ऐसा नहीं है कि देश के मानव संसाधन के विकास हेतु सरकारें प्रयत्नरत नहीं रही है या प्रयास नहीं कर रही है  लेकिन उनका प्रयत्न अभी नाकाफी है.

ये बातें बड़ी मृगमरीचिका सी प्रतीत होती है.वास्तव में यह है भीकि एक रिक्शा चालक का बेटा आई.ए.एस की परीक्षा में सफल हो गया.और हम इस भ्रम में अपना सब कुछ दांव पर लगा देते हैं.लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि उसने ज़िन्दगी का हर दांव को लगाएं  होंगे और ऐसी सफलता लाखों में एक होती है.

यूपीएससी की परीक्षा में सफल अधिकांश अभ्यर्थी बाद में कहते फिरते है कि कूल माइंड से सफलता मिलती है, ‘कूल माइंड’ से उन्हें मिलती है जिनकी पांचो उंगली घी में होती है, जो  संभ्रांत वर्ग एवं  रोज़गार के अन्य  विकल्पों (इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट अथवा अंग्रेजी शिक्षा पद्धति में लिखा पढ़ा) के साथ इस दौड़ में  रेस लगाते है.जो व्यक्ति इस सफलता के लिए ज़मीन आसमान एक किया हो वो भला ‘कूल माइंड’ से कैसे रह सकता है?

ये बातें बड़ी विरोधाभास सी परतीत नहीं होती है. यहां किसी की सफलता एवं मेहनत को अपमानित करना मेरा उद्देश्य नहीं, बल्कि सिक्के के दूसरे पक्ष से लोगों को रु-ब-रु  कराना है.

सफलता का जो पैटर्न है वह कुछ और कहानी बयां करती है. अगर विश्वास न हो तो हर वर्ष के सफल अधिकांश अभ्यर्थीओ के सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का विश्लेषण कर लीजिए (वे कम से कम दिन-प्रतिदिन की रोटी, चावल की समस्या से जूझ न रहे होते है), दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा.

यहां मेरा उद्देस्य किसी को हतोत्साहित करने का नहीं है और न होने की ज़रुरत है.जो वास्तविक तथ्य है उसे समझने की ज़रूरत है. अब मूल प्रश्न उठता है कि उस भारतीय संविधान द्वारा प्रदत इक्वलिटी, फ्रीडम, लिबर्टी  का क्या होगा? क्या कोई जवाब है हमारे देश, समाज के पास?

हां! मेरे पास है.जंतर- मंतर, इंडिया गेट खुलें है विरोध प्रदर्शन के लिए ताकि इनका उपयोग कर लिबर्टी और इक्वालटी के ‘वर्चुअल’ दुनिया में अपने आप को महसूस करा सके.आज इन मूल्यों का आम जनता  इसी के संदर्भ में देखती है. इसके जो व्यापक मायने है उससे कोसो दूर है.

वास्तव में ये मूल्य बड़े पवित्र हैं और भारत के पास इसको धरने की क्षमता भी है. इसलिए भारत में चीन की तरह ‘रेड स्कावर’ की घटना नहीं होती. लेकिन हम इतना में ही सन्तोष नहीं रख सकते.हमें इससे कोसो दूर जाना  है.

आज देश की अधिकांश जनसंख्या देश में एक समान शिक्षा पद्धति ना होने तथा आर्थिक विषमता के कारण वर्नाक्यूलर एवं हिंदी भाषाओं में शिक्षा ग्रहण करती है.इसलिए स्वाभाविक है कि उन्हीं भाषाओं में वे अपने सपने को साकार करने की संभावना को भी देखेंगे.

यूपीएससी में सीसैट एवं भाषा को लेकर जो बवाल मची हुई है, उसे इस सन्दर्भ में स्पष्ट तौर से समझा जा सकता है. पाश की कविता है कि “सबसे खतरनाक होता है सपनो का मर जाना…” आज हमारा देश, समाज इस  चौराहे पर खड़ी है कि जहां एक तरफ लाखों सुनहला उज्वल भविष्य है तो दूसरी और अंधकार… अब हमारी जम्हुरियत को निर्णय लेना है कि वो कैसा भविष्य हमारे युवाओं को प्रदान करती है.

(लेखक स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू के सेन्टर फॉर साउथ एशियन स्टडीज में रिसर्च स्कॉलर हैं.) 

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