BeyondHeadlinesBeyondHeadlines
  • Home
  • India
    • Economy
    • Politics
    • Society
  • Exclusive
  • Edit/Op-Ed
    • Edit
    • Op-Ed
  • Health
  • Mango Man
  • Real Heroes
  • बियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी
Reading: जो केवल राजनीति को जानते हैं वे क्या ही राजनीति जानते हैं!
Share
Font ResizerAa
BeyondHeadlinesBeyondHeadlines
Font ResizerAa
  • Home
  • India
  • Exclusive
  • Edit/Op-Ed
  • Health
  • Mango Man
  • Real Heroes
  • बियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी
Search
  • Home
  • India
    • Economy
    • Politics
    • Society
  • Exclusive
  • Edit/Op-Ed
    • Edit
    • Op-Ed
  • Health
  • Mango Man
  • Real Heroes
  • बियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी
Follow US
BeyondHeadlines > Election 2019 > जो केवल राजनीति को जानते हैं वे क्या ही राजनीति जानते हैं!
Election 2019IndiaLeadYoung Indianबियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी

जो केवल राजनीति को जानते हैं वे क्या ही राजनीति जानते हैं!

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published April 2, 2019 4 Views
Share
9 Min Read
SHARE

Saquib Salim for BeyondHeadlines

राम करण निर्मल, मनोज कुमार, अमरेंद्र सिंह आर्य; 

इन नामों को पढ़कर आपको कुछ भी याद आता है? कुछ जाना पहचाना? कहीं कुछ सुना हुआ? 

चलिए, आपको दूसरी ओर लेकर चलते हैं: कन्हैया कुमार, शहला रशीद, उमर ख़ालिद. इनके नामों से आपको कुछ याद आया?

हम में से अधिकतर कन्हैया, शहला और उमर से भलीभांति परिचित हैं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के समर्थक और आलोचक दोनों ही इन तीनों को मोदी के मुखर प्रतिद्वंदी के रूप में देखते और समझते हैं. 

आलम तो ये है कि देश में मोदी सरकार की आलोचना करने वाले बेगूसराय से कन्हैया की लोकसभा चुनाव में उम्मीदवारी के लिए चंदा एकत्रित कर रहे हैं. सबका मानना है कि कन्हैया ही वो शख़्स है जो कि संसद में मोदी को चुनौती दे सकता है. हो सकता है कि ऐसा हो कि भारत के मंझे हुए विपक्षी नेताओं से ज़्यादा साहस कन्हैया में हो पर ऐसा मानने की वजह क्या है ये मेरी समझ के परे ही है. 

आप लोग शायद सोच रहे होंगे कि ये जो तीन नाम —राम करण निर्मल, मनोज कुमार, अमरेंद्र सिंह आर्य – शुरू में मैंने लिखे थे ये कौन हैं और आख़िर क्यों मैंने उनकी बात लिखकर आपको कन्हैया का क़िस्सा सुनाना शुरू कर दिया. 

असल में इस देश की विडंबना यही है कि हम उधार की याद्दाश्त रखते हैं. हम उतना ही याद रखते हैं जितना कि मीडिया याद रखवाना चाहता है. चलिए तो ज़रा तीन साल पीछे चलते हैं, फ़िल्मों वाले फ़्लैशबैक की तरह… 

17-18 जनवरी, 2016 का वो मनहूस दिन. हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित वेमुला ने आत्महत्या कर ली. उम्मीद है वो आप सबको अभी तक याद होगा. वैसे जो रंग ढंग हैं रोहित को भूलते भी ज़्यादा समय नहीं लगेगा. हां, तो बात थी रोहित की, देश भर के दलित संगठनों ने इसके लिए सीधा मोदी सरकार के एक मंत्री पर आरोप लगाया और जांच की मांग की. पर जैसा कि होता है किसी ने ख़ास ध्यान नहीं दिया. 

इसके चार दिन बाद 22 जनवरी, 2016 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लखनऊ के बाबा साहब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में पहुंचे. वहां रोहित की आत्महत्या की जांच की मांग को लेकर – राम करण निर्मल, मनोज कुमार, अमरेंद्र सिंह आर्य – इन तीन दलित छात्रों ने ‘मोदी मुर्दाबाद’ हुए अन्य ऐसे ही नारे लगाए. ये पहला मौक़ा था जबकि मोदी के इतना क़रीब जाकर किसी ने उनके विरोध में नारेबाज़ी की थी और उसके बाद भी ये कभी दोहराया नहीं गया. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की घटना में छात्रों को दूर ही संभाल लिया गया था. 

तीनों छात्रों को पुलिस ने गिरफ़्तार किया और इनकी पिटाई भी की. याद रहे राम करण निर्मल वहां अपना गोल्ड मैडल लेने ही पहुंचा था. तो जो लोग ये मानते हों कि पढ़ाई से उसका सरोकार नहीं था वे सोच लें. इस घटना के एकदम बाद प्रधानमंत्री ने आँखों में आंसुओं के साथ रोहित की मृत्यु पर पहली बार शोक प्रकट किया.

इस घटना के साथ ही रोहित की आत्महत्या अब भारतीय राजनीति के केन्द्र पर आ चुकी थी. उत्तर प्रदेश से मायावती और अन्य दलित पार्टियों ने मुद्दे पर सरकार को घेरना शुरू कर दिया था. बजट सत्र पास था और ऐसे में ये मुद्दा राज्यसभा में सरकार को मुश्किल में डाल सकता था. देशभर में भाजपा को दलित विरोधी कह कर विपक्ष ने आमतौर पर और दलित संगठनों ने ख़ासतौर पर सरकार को घेरना शुरू कर दिया था. 24 फ़रवरी की तारीख़ तय पाई जब देशभर से दलित संगठनों को दिल्ली में संसद मार्ग पर मार्च निकालना था. ग़ौरतलब है कि इसी दिन मायावती भी संसद में इस मुद्दे पर बोली थी. 

ख़ैर अभी कहानी में और भी मोड़ हैं. 9 फ़रवरी को जेएनयू के कुछ छात्र अफ़ज़ल गुरु की फांसी को ग़लत ठहराते हुए एक कार्यक्रम करते थे. दो साल से हो रहा ये आयोजन 2016 में भी हुआ. कहा जाए तो पिछले दो सालों की तुलना में 2016 का कार्यक्रम थोड़ा बड़ा रहा. जेएनयू के ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने इस कार्यक्रम का विरोध भी किया और ख़ूब नारेबाज़ी हुई. मामला टीवी पर आ गया. लेकिन तब भी ये मुद्दा नहीं बन पाया और रोहित ही केंद्र-बिंदु बना रहा. 

फिर 11 फ़रवरी को अर्णब गोस्वामी के कार्यक्रम पर उमर ख़ालिद ख़ुद गए और रातों रात ये मुद्दा देश की राजनीति का केंद्र-बिंदु बन गया. 12 फ़रवरी को कन्हैया को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया वे तब जेएनयू के छात्रसंघ अध्यक्ष थे. हां! कार्यक्रम का न आयोजन उनका था और न वे उसमें शामिल थे.

इसके बाद पटियाला कोर्ट में पेशी के दौरान कन्हैया पर हमला होता है. 13 फ़रवरी को ही राहुल गांधी और केजरीवाल ख़ुद जेएनयू पहुंचते हैं. 18 फ़रवरी को हज़ारों लोगों का एक मार्च दिल्ली में कन्हैया की मांग के लिए निकलता है. 

देश के मोदी विरोधियों को एक नया मुद्दा मिल गया था. वे रोहित को भूल चुके थे. राम करण निर्मल, मनोज कुमार और अमरेंद्र सिंह आर्य तो कभी याद ही नहीं थे. ये मुद्दा भाजपा के भी फ़ायदे का था. जहां एक ओर रोहित पर कोई जवाब देना मुश्किल था इस बार वे पलट कर देशभक्ति, अफ़ज़ल गुरु की फांसी इन सब सवालों को सामने ला सकते थे. 

24 फ़रवरी को जब मायावती ने संसद में मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी को घेरने की कोशिश की तो ईरानी ने पलटवार करते हुए राष्ट्रवाद और देशभक्ति के सवाल खड़े कर दिए जो कि जेएनयू प्रकरण के कारण अब राजनीति का केंद्र-बिंदु थे. 

ग़ौरतलब रहे 24 फ़रवरी के रोहित के लिए मार्च में 18 फ़रवरी वाले जेएनयू मार्च जैसी भीड़ भी न हो सकी क्योंकि मोदी के विपक्ष को जेएनयू बचाना था. 

3 मार्च को जब कन्हैया जेल से ज़मानत पर जेएनयू पहुंचते हैं तो उनको हीरो वाला स्वागत मिलता है. ये अलग बात है कि वो बिना कुछ किए ही जेल गए थे. उन्होंने एक भाषण दिया जो देश भर में टीवी पर लाइव प्रसारित हुआ. रातों रात कन्हैया मोदी के विपक्ष के रूप में उभरे और उनके साथ ही थोड़ा पीछे हो कर शहला और उमर भी देश के मोदी विरोधी कैंप की आशा बन गए. 

पर उन तीन नामों का क्या? उन्होंने तो सच में मोदी का विरोध किया था. उनके जेल जाने पर कोई नेता नहीं पहुंचा, न कोई मार्च निकला और जब वो बाहर आए तो कोई भाषण भी नहीं हुआ. टीवी पर उनका इंटरव्यू नहीं आया और न उनकी किसी ने किताब छपी (कन्हैया और शहला की किताबें भी प्रकाशित हो चुकी हैं.) किसी ने इन तीन छात्रों को साहित्य सम्मेलन में भी नहीं बुलाया. ख़ैर ये तो कोई कहेगा ही नहीं कि इन तीन छात्रों को संसद जाना चाहिए क्योंकि इनमें साहस था. 

अब ये आप सोचिए कि आख़िर ऐसा क्या है कि मोदी समर्थक और विरोधी दोनों ही इन तीन छात्रों को याद नहीं करना चाहते और कन्हैया, शहला या उमर को याद रखते हैं. जवाब मुश्किल नहीं है यदि आप ख़ुद से सच बोलेंगे तो…   

(लेखक एक इतिहासकार और राजनीतिक टिप्पणीकार हैं.)

TAGGED:Editor's PickJNUKanhaiya Kumarreality of kanhaiyaUmar Khalid
Share This Article
Facebook Copy Link Print
What do you think?
Love0
Sad0
Happy0
Sleepy0
Angry0
Dead0
Wink0
“Gen Z Muslims, Rise Up! Save Waqf from Exploitation & Mismanagement”
India Waqf Facts Young Indian
Waqf at Risk: Why the Better-Off Must Step Up to Stop the Loot of an Invaluable and Sacred Legacy
India Waqf Facts
“PM Modi Pursuing Economic Genocide of Indian Muslims with Waqf (Amendment) Act”
India Waqf Facts
Waqf Under Siege: “Our Leaders Failed Us—Now It’s Time for the Youth to Rise”
India Waqf Facts

You Might Also Like

ExclusiveHaj FactsIndiaYoung Indian

The Truth About Haj and Government Funding: A Manufactured Controversy

June 7, 2025
I WitnessWorldYoung Indian

The Earth Shook in Istanbul — But What If It Had Been Delhi?

May 8, 2025
EducationIndiaYoung Indian

30 Muslim Candidates Selected in UPSC, List is here…

May 8, 2025
Waqf FactsYoung Indian

World Heritage Day Spotlight: Waqf Relics in Delhi Caught in Crossfire

May 10, 2025
Copyright © 2025
  • Campaign
  • Entertainment
  • Events
  • Literature
  • Mango Man
  • Privacy Policy
Welcome Back!

Sign in to your account

Lost your password?