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Reading: आख़िर कन्हैया कुमार को क्यों पसंद करता है मुसलमान?
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BeyondHeadlines > Election 2019 > आख़िर कन्हैया कुमार को क्यों पसंद करता है मुसलमान?
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आख़िर कन्हैया कुमार को क्यों पसंद करता है मुसलमान?

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published April 22, 2019 6 Views
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11 Min Read
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Afroz Alam Sahil, BeyondHeadlines 

नई दिल्ली: कन्हैया कुमार बेगूसराय से लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं. इस चुनाव में कन्हैया कुमार को बेगूसराय का मुसलमान वोट देगा या नहीं, ये बेगूसराय के लोग ही बेहतर जानते हैं. लेकिन देश भर के मुसलमान कन्हैया कुमार के समर्थन में खड़े ज़रूर नज़र आ रहे हैं. कई मिल्ली व सियासी रहनुमाओं के बाद अब मुसलमानों की एक बड़ी जमाअत ‘ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मशावरत’ ने भी कन्हैया कुमार को अपने समर्थन का ऐलान किया है. 

आख़िर इस देश के मुसलमानों को कन्हैया कुमार से इतनी मुहब्बत क्यों है? आख़िर इस देश का मुसलमान कन्हैया को क्यों पसंद करता है? इन सवालों का जवाब जानने व समझने के लिए BeyondHeadlines ने कई मुस्लिम नौजवानों व बुद्धिजीवियों से बात की है. 

ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मशावरत के राष्ट्रीय अध्यक्ष नवेद हामिद कहते हैं, ‘संघ परिवार की पूरी कोशिश है कि ऐसे तमाम लोगों को जो उसके ख़िलाफ़ एक मज़बूत आवाज़ बनकर उठ सकते हैं, दबाया जाए. उनको ख़त्म किया जाए. बावजूद इसके इस देश को बचाने की लड़ाई में कन्हैया का नाम एक ऐसे सिपाही के तौर पर उभरा है, जो संघ परिवार की आंखों में खटकता है. अब जो आरएसएस के ख़िलाफ़ एक केन्द्र बनकर उभरा है, उसको देश के वो तमाम लोग जो देश की फ़िक्र रखते हैं, भला चाहते हैं, कन्हैया के साथ खड़े नहीं होंगे तो कौन होगा?’

साथ ही उन्होंने ये भी कहा, ‘बेगूसराय के राजद उम्मीदवार तनवीर साहब से मेरा कोई मतभेद नहीं है. वो बड़े लीडर हैं, लेकिन राजनीति के अंदर परिस्थितियां भी देखी जाती हैं और परिस्थिति ये है कि ऐसी क़यादत हमें राष्ट्रीय स्तर पर उभारनी है, जो ये विद्वेष की राजनीति है, उसके ख़िलाफ़ एक मज़बूत आवाज़ हो. कन्हैया लंबी रेस का घोड़ा है. राजनीति के अंदर लंबी रेस के घोड़े को ज़रूर आगे बढ़ाना चाहिए.’

आप एक ज़िम्मेदार तंज़ीम के अध्यक्ष हैं. क्या आपने बेगूसराय के लोग क्या सोचते हैं, इसे समझने की कोशिश की है? इस पर नवेद हामिद कहते हैं, ‘मैं बेगूसराय की जनता के परिपक्वता के ऊपर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता. और हां, मैं ये बता दूं कि राजनीति के अंदर जो ज़िम्मेदार लोग होते हैं, वो अवाम की राय के ऊपर नहीं चलते. ज़िम्मेदार कौन है, जो अवाम को समझाने की कोशिश करे, ज़िम्मेदार वो नहीं है जो अवाम के कहने पर चले’

उर्दू के मशहूर उपन्सासकार रहमान अब्बास का कहना है, ‘कन्हैया को इस मुल्क की समझ बहुत है. फ़ासिस्ट ताक़तों को एक्सपोज़ करने का ईमानदाराना ज़ज्बा है. ये जज़्बा या इमोशन मैंने कांग्रेस के किसी लीडर में नहीं देखा है. ऐसा इमोशन कम्यूनिस्टों में भी बहुत कम नज़र आता है. आरएसएस के आईडियोलोजी के ख़िलाफ़ पंगा लेने को कोई तैयार नहीं है. बस कन्हैया ही उनसे लड़ सकता है.’

बता दें कि रहमान अब्बास को साल 2018 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका है. इससे पहले साल 2015 में देश में बढ़ रही लिंचिंग की घटनाओं के ख़िलाफ़ महाराष्ट्र सरकार का उर्दू साहित्य पुरस्कार लौटा चुके हैं. 

वो आगे कहते हैं, ‘इस तरह के नौजवानों का आना बहुत ज़रूरी है. पार्लियामेंट में अगर ऐसा नौजवान जाता है तो अपने आर्गूमेंट से मोदी जैसे शातिर आदमी का मुंह बंद कर सकता है.’

हालांकि वो ये भी मानते हैं कि सियासत एक बहुत ही संजीदा मसला है. बेगूसराय का अलजेबरा क्या है. वहां किस आधार पर लोग वोट करते हैं, ये बहुत मायने रखता है, लेकिन ऐसे नौजवानों को संसद भेजना बहुत ज़रूरी है.

एबीपी से जुड़े सीनियर पत्रकार अब्दुल वाहिद आज़ाद का मानना है कि ‘आम तौर पर मुसलमानों के पढ़े-लिखे एक तबक़े में ये आम राय है कि बहैसियत मुसलमान आप अपने हक़ की बात नहीं कर पाते हैं. या आरएसएस व मोदी के ख़िलाफ़ नहीं बोल सकते हैं. इस देश के मुसलमानों के लिए ये कहना ही मुश्किल काम है कि आरएसएस एक फ़ासिस्ट ताक़त है. लेकिन ये काम कन्हैया कर रहा है. इसलिए वो मुसलमानों को पसंद है.’

वो आगे ये भी बताते हैं कि कन्हैया एक मूवमेंट से निकला हुआ आदमी है. ये पूछने पर की कौन सा मूवमेंट? वो कहते हैं, ‘जेएनयू का मूवमेंट. जेएनयू पर जब सवाल उठा तो उस वक़्त कन्हैया ने ही आरएसएस व मोदी के ख़िलाफ़ जमकर बोला. यक़ीनन कन्हैया ने अपने दिल्ली में होने व अपने चतुर होने का फ़ायदा उठाया.’

राजनीतिक समझ रखने वाले पटना के तारिक़ इक़बाल कहते हैं, ‘जो मुसलमान युवा वामपंथियों से दूर रहता है, लेकिन उसे कन्हैया पसंद है. इसकी पहली वजह ये है कि कन्हैया मोदी को काउंटर करता है, और ये काम मुसलमानों को पसंद है. दूसरी वजह ये है कि मुसलमानों को हमेशा किसी एक चेहरे में अपना मसीहा दिखाई दे जाता है. इनका अपना मसीहा बनाने की पहली शर्त होती है कि वो मुसलमान न हो. असल में सच तो ये है कि मुसलमान युवा एहसास-ए-कमतरी के इतने शिकार हो चुके हैं कि वो अपने लोगों के बजाए दूसरे लोगों में अपना रहनुमा तलाश करते हैं. और फिर कन्हैया को जिस तरह से मीडिया ने पेश किया है, वैसे में कन्हैया एक ब्रांड की तरह दिखता है’

एक लंबी बातचीत में इक़बाल ये भी कहते हैं, ‘सारा खेल मीडिया का है. अगर कन्हैया दलित होता, तो क्या आज उसकी जो पोजीशन है, वो होती. शायद कभी नहीं. चूंकि भूमिहार है, अपर कास्ट लॉबी से आता है तो उसकी ब्रांडिंग हो पाई.’

जामिया मिल्लिया इस्लामिया के रिसर्च स्कॉलर नुरूल होदा का कहना है, ‘मुस्लिम समाज में 2002 के बाद मोदी को जिस तरह से विलेन बनाकर पेश किया गया, तब से मोदी मुसलमानों के लिए एक विलेन की तरह हैं. कन्हैया ने जब मोदी पर वार करना शुरू किया तो कुछ मुसलमान इसे पसंद करने लगे. लेकिन कन्हैया काम क्या करेगा, ये किसी को नहीं पता. इन मुसलमानों को बस इतना ही पता है कि बोलता अच्छा है. हालांकि सबसे बड़ी सच्चाई ये है कि ये सब मीडिया का प्रोपेगंडा है.’

वो ये भी कहते हैं, ‘कन्हैया आरक्षण विरोधी है. और इतना ही नहीं, जब खुद बेगूसराय में कुशवाहा छात्रावास पर हमला हुआ, छात्रों के साथ मारपीट और अप्राकृतिक यौनाचार हुआ तब भी ये कन्हैया ख़ामोश रहा. दलितों नरसंहार करने वाला बरमेश्वर मुखिया के ख़िलाफ़ भी इसकी ज़बान नहीं खुलती. वहीं बेगूसराय के लोगों की माने तो बेगूसराय के किसी भी मामले में कन्हैया ने अपना मुंह नहीं खोला है.’

जेएनयू से पढ़े इतिहासकार व राजनीतिक टिप्पणीकार साक़िब सलीम एक अलग नज़रिए के साथ अपनी बात को रखते हैं. वो कहते हैं, ‘हम भले ही इंसान बन गए हैं, लेकिन हमारे अंदर जानवरों वाली फ़ितरत है. जैसे कि एक बंदर एक तरफ़ चलता है तो पूरा झुंड उसके पीछे चल पड़ता है. पहले बंदर को पता होता है कि वो कहां जा रहा है, लेकिन उसके पीछे वाले तो कुछ जानते ही नहीं.’

वो आगे कहते हैं, ‘अब हो ये रहा है कि मुसलमानों के सामने मोदी को एक बहुत बड़ा दुश्मन बनाया गया. और हमने भी दुश्मन मानकर नफ़रत बेचना शुरू कर दिया. एक तरफ़ तो मोदी के लोग कह रहे हैं कि हम मुसलमानों को सबक़ सिखाएंगे हमें वोट दो. दूसरी तरफ़ एक दूसरा नेता भी यही कह रहा है कि अगर तुम्हे मोदी से नफ़रत है तो मुझे वोट दो. लेकिन ये नेता भी हमारी कोई भलाई की बात नहीं कर रहा है. यानी मुसलमानों का वोट पाने के लिए अब किसी भी नेता को बस ये साबित करने की ज़रूरत है कि वो मोदी का दुश्मन है. और जैसे ही ये साबित हो जाएगा, तो सारे मुसलमान भेड़चाल के साथ उसकी तरफ़ दौड़ पड़ेंगे.’

साक़िब के मुताबिक़, ‘यही सब कुछ कन्हैया के मामले में भी हो रहा है. मैं हमेशा से ये कहता आया हूं कि कन्हैया या उन जैसे तमाम लोगों को उठाना खुद बीजेपी का एक प्रोपेगंडा है. क्योंकि ये ज़मीन के नेता नहीं हैं और जब ज़मीन के नेता नहीं हैं तो यक़ीनन बहुत मुश्किल है कि ज़मीन के लोग इन्हें वोट करें. लेकिन मुसलमानों का क्या है, मोदी जिसे जेल में डालेगा, मुसलमान हर बार उसके पीछे खड़ा नज़र आएगा.’

असल में इस देश में मुसलमानों की जो हालत है, उसे हर ‘ऐरे-गैरे’ में उम्मीद की रोशनी नज़र आती है. वो उस पर पूरा यक़ीन कर लेता है. और किसी क़ौम के लिए किसी नए-नवेले नेता के प्रति ऐतबार करना इस बात की अलामत है कि मुस्लिम क़ौम किस क़दर गर्त में जा चुकी है. क्योंकि यही कन्हैया खुले तौर पर अपने चुनावी सभाओं में कह रहा है कि मैं ये नहीं कह रहा हूं कि अगर मैं जीत जाउंगा तो आपकी साईकिल की दुकान को किसी गाड़ी का शो रूम बनवा दूंगा. लगाना तो आपको पंचर ही है. लेकिन आपके साथ ग़लत होगा तो उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाउंगा. मतलब इस क़ौम की हालत ये हो चुकी है कि वो खुद के अधिकारों के लिए आवाज़ तक नहीं उठा सकती. और हां, बक़ौल कन्हैया, ‘आप मुझे जानते ही कितना हैं? आपने मुझे सिर्फ़ उतना ही जाना है, जितना मीडिया ने आपको दिखाया है…’

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