BeyondHeadlinesBeyondHeadlines
  • Home
  • India
    • Economy
    • Politics
    • Society
  • Exclusive
  • Edit/Op-Ed
    • Edit
    • Op-Ed
  • Health
  • Mango Man
  • Real Heroes
  • बियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी
Reading: तब आज़ादी के दीवाने अपने कपड़ों से पहचाने जाते थे… जामिया के चार लोगों ने दी थी अपने कपड़ों के लिए जान
Share
Font ResizerAa
BeyondHeadlinesBeyondHeadlines
Font ResizerAa
  • Home
  • India
  • Exclusive
  • Edit/Op-Ed
  • Health
  • Mango Man
  • Real Heroes
  • बियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी
Search
  • Home
  • India
    • Economy
    • Politics
    • Society
  • Exclusive
  • Edit/Op-Ed
    • Edit
    • Op-Ed
  • Health
  • Mango Man
  • Real Heroes
  • बियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी
Follow US
BeyondHeadlines > Exclusive > तब आज़ादी के दीवाने अपने कपड़ों से पहचाने जाते थे… जामिया के चार लोगों ने दी थी अपने कपड़ों के लिए जान
ExclusiveHistoryIndiaLeadYoung Indianबियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी

तब आज़ादी के दीवाने अपने कपड़ों से पहचाने जाते थे… जामिया के चार लोगों ने दी थी अपने कपड़ों के लिए जान

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published December 28, 2019 2 Views
Share
11 Min Read
SHARE

By Afroz Alam Sahil

वो ख़िलाफ़त आन्दोलन का दौर था. महात्मा गांधी उस वक़्त मुल्क का दौरा कर रहे थे. वह लोगों से ब्रितानी हुकूमत के साथ असहयोग करने की अपील कर रहे थे. सितम्बर 1920 में कलकत्ता कांग्रेस के स्पेशल इजलास में गांधी जी ने ये तहरीक पेश की कि देश की आज़ादी के लिए सरकारी शिक्षा का बायकाट किया जाए यानी ब्रिटिश सरकार से स्कूलों व कॉलेजों के लिए सरकारी ग्रांट न ली जाए. गांधी की नज़र में सरकार से ग्रांट के चक्कर में ये इदारे ‘गुलाम ज़ेहनियत’ के गहवारे बन गए हैं. गांधी चाहते थे कि देश के स्कूल व कॉलेज विद्यार्थियों को आज़ादी हासिल करने के राष्ट्रीय नज़रिए से पढ़ाएं. साथ ही समझदार लड़के आज़ादी का पैग़ाम सुनाने के लिए पूरे हिन्दुस्तान के देहातों में फैल जाएं.

गांधी जी का स्पष्ट विचार था ‘इसी सरकार ने रौलट एक्ट बनाया है. ख़िलाफ़त के संबंध में अपना वचन-भंग किया है. कुख्यात फ़ौजी अदालतों की स्थापना की है. हमारे बच्चों को ब्रिटिश झंडे के सामने सिर झुकाने को मजबूर किया है. उस सरकार के साथ सहयोग करना, इसकी विधान परिषदों में बैठना या अपने बच्चों को इनके स्कूलों में भेजना हराम है.’

जामिया मिल्लिया इस्लामिया गांधी के इसी असहयोग और ख़िलाफ़त आन्दोलन में जन्म लिया. जामिया उस दौर में एक पुल की तरह था. राष्ट्रीय आन्दोलन के सबसे बड़े नेता और प्रणेता गांधी व देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी मुसलमान. जामिया इन दोनों के बीच एक ख़ास रिश्ते का सेतु बन चुका था. गांधी के विचार, मुसलमानों के हित, उनकी दुश्वारियां, सियासत, ये सारे ही मसले जामिया के उस दौर की धुरी का चक्कर लगाते हैं.

जामिया इस देश की राष्ट्रीयता की भावना में भीतर तक समाहित है. स्वयं गांधी ने कई मौक़ों पर इस सत्य की गवाही दी. जामिया की स्थापना से लेकर जामिया को डूबने से बचाने तक गांधी ने जी जान लगा दिया. ये वही जामिया है, जहां गांधी के बेटे देवदास ने बच्चों को तालीम की रौशनी से लबालब किया. जहां गांधी के पोते रसिक ने तालीम पाई. रसिक ने मात्र 17 साल की उम्र में यहीं दम तोड़ दिया. ये वही जामिया है, जहां कस्तूरबा ने अपनी ज़िन्दगी के महत्वपूर्ण दिन गुज़ारे. गांधी ने जामिया को बहुत कुछ दिया. साथ ही जामिया से बहुत कुछ पाया भी. ये कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि गांधी का जामिया के प्रति विशेष स्नेह था. गांधी ने जितना जामिया को अपना समझा, जामिया ने भी गांधी को उतना ही प्यार व सम्मान दिया है. गांधी का ये जामिया आज फिर से मुल्क के तानाशाहों के ख़िलाफ़ न सिर्फ़ उठ खड़ा हुआ है, बल्कि पूरे मुल्क को जगा दिया है.

जब जामिया के लोगों पर चली गोली…

जब मुल्क के प्रधानमंत्री ने नागरिकता संशोधन के ख़िलाफ़ विरोध करने वालों पर ये टिप्पणी की कि वो अपने कपड़ों से पहचाने जा सकते हैं. तो ऐसे में ये जानना दिलचस्प होगा कि जब मुल्क में असहयोग और ख़िलाफ़त आन्दोलन चल रहा था तब आज़ादी के दीवाने अपने कपड़ों से पहचाने जाते थे. दिलचस्प बात ये है कि गांधी ने साल 1921 में विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार करने की अपील की.

गांधी की इस अपील पर असहयोगियों ने विदेशी वस्त्रों को जलाने के लिए अलीगढ़ में सत्याग्रह शुरू किया. इसकी अगुवाई जामिया के लोग ही कर रहे थे. बता दें कि तब जामिया मिल्लिया इस्लामिया अलीगढ़ में था. इसी असहयोग आन्दोलन के ठीक बीच में 05 जुलाई, 1921 को अलीगढ़ में दंगे हुए. अंग्रेज़ों से माफ़ी मांगने वाले तथाकथित ‘भारतीय’ पुलिस का साथ दे रहे थे. इन्होंने पुलिस का साथ देते हुए ख़्वाजा अब्दुल मजीद साहब का घर जला दिया. वहीं पुलिस वाले आन्दोलनकारियों को ‘ले स्वराज’ कहते हुए लाठियों से बुरी तरह पीट रहे थे. इस कांड में पांच लोग मारे गए, जिनमें एक पुलिस वाला भी शामिल था.

महात्मा गांधी को जब इस अलीगढ़ कांड की ख़बर मिली तो उनको इससे मार्मिक व्यथा हुई. उन्होंने इस संबंध में संदेश जारी किया. इसमें लिखा था कि मंज़िल के इतने निकट पहुंचने पर अब अलीगढ़ की जनता उत्तेजना दिखाकर या हिंसा का सहारा लेकर असहयोगियों अथवा अन्य किन्हीं लोगों द्वारा की गई हिंसा की ज़िम्मेदारी लेने से इनकार करके कोई कमज़ोरी नहीं दिखाएगी और इस तरह घड़ी की सुई पीछे की ओर घुमाने की कोशिश नहीं करेगी.

गांधी जी का ये संदेश उर्दू और हिन्दी, दोनों में प्रचारित किया गया था और स्थानीय नेताओं ने अलीगढ़ कांड की सच्चाई का पता लगाने की बड़ी मुस्तैदी से कोशिश की थी.

अलीगढ़ कांड को गांधी ने काफ़ी दिनों तक याद रखा. 14 अगस्त, 1921 के नवजीवन (गुजराती) में ‘मृत्यु का भय’ शीर्षक से लिखे एक लेख में गांधी ने लिखा —‘अभी तक देश में नौजवान ही मरे हैं. अलीगढ़ में जितने लोगों की जान गई है, वे सब 21 साल से कम अवस्था वाले थे. उन्हें तो कोई जानता भी नहीं था. पर अब भी यदि सरकार ख़ून-ख़ूराबा करने पर तुली हो तो मैं विश्वास किए बैठा हूं कि उस समय प्रथम श्रेणी के किसी व्यक्ति की बलि होगी…’

अलीगढ़ कांड में लगातार जामिया के लोगों को परेशान किया जाता रहा. कईयों की गिरफ़्तारी भी हुई. गांधी इस पर लगातार नज़र बनाए हुए थे.

जामिया के लिए भीख मांगने को तैयार थे गांधी

28-29 जनवरी, 1925 को दिल्ली के क़रोल बाग स्थित हकीम साहब के आवास शरीफ़ मंज़िल में फ़ाउंडेशन कमेटी का जलसा हुआ, जिसके आख़िर में तय किया गया कि जामिया को चलाते रहना है. दूसरे दिन यानी 29 जनवरी के जलसे में गांधी जी भी मौजूद थे. उन्होंने हकीम साहब का उत्साहवर्द्धन किया और कहा कि कठिनाइयों और आर्थिक परेशानियों के बावजूद जामिया को चलाना ही होगा, भले ही इसके लिए मुझे भीख ही क्यों न मांगनी पड़े. अब्दुल गफ़्फ़ार मदहौली साहब अपनी किताब जामिया की कहानी में गांधी जी की इस बात को इस प्रकार लिखते हैं —

‘आपको रुपया की दिक्कत है तो मैं भीख मांग लूंगा’. इस पर हकीम साहब ने कहा —‘गांधी जी की इस बात से मेरी हिम्मत बंधी और मैंने निश्चय कर लिया कि जामिया के काम को हरगिज़ बंद न होने दिया जाएगा.’

जामिया मिल्लिया इस्लामिया से ‘इस्लामिया’ शब्द हटाने का महात्मा गांधी ने किया था विरोध

‘एक मौक़े पर जब गांधी जी को ये मालूम हुआ कि उनके एक क़रीबी साथी ने ये प्रस्ताव रखा है कि जामिया मिल्लिया इस्लामिया अपना नाम बदल दे. इससे ग़ैर-मुस्लिम स्त्रोतों से फंड लाने में आसानी होगी, तो इस पर गांधी जी ने कहा, अगर “इस्लामिया” शब्द निकाल दिया गया तो उन्हें इस तालीमी इदारे में कोई दिलचस्पी नहीं होगी.’

इस बात का ज़िक्र प्रोफ़ेसर मो. मुजीब साहब ने अपने एक लेख ‘महात्मा गांधी और जामिया मिल्लिया इस्लामिया’ में किया है. उनका ये लेख 1969 में जामिया से निकलने वाली उर्दू मैगज़ीन ‘जामिया’ के नवम्बर अंक में छपा था.

यही नहीं, सैय्यद मसरूर अली अख़्तर हाशमी अपनी किताब में यह भी लिखते हैं, ‘गांधी ने न सिर्फ़ जामिया मिल्लिया के साथ “इस्लामिया” शब्द बने रहने पर ज़ोर दिया बल्कि वह ये भी चाहते थे कि इसके इस्लामिक चरित्र को भी बरक़रार रखा जाए.’

बता दें कि प्रोफ़ेसर मुहम्मद मुजीब (1902-1985) एक महान स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षाविद और अंग्रेज़ी व उर्दू साहित्य के विद्वान थे. मुजीब साहब ने ऑक्सफोर्ड में इतिहास का अध्ययन किया. फिर मुद्रण का अध्ययन करने के लिए जर्मनी चले गए. वहां ज़ाकिर हुसैन से इनकी मुलाक़ात हुई. 1926 में अपने दो दोस्त आबिद हुसैन व ज़ाकिर हुसैन के साथ भारत लौटकर जामिया की सेवा में लग गए. 1948 से लेकर 1973 जामिया मिल्लिया इस्लामिया के वाइस चांसलर रहे. 1965 में भारत सरकार द्वारा साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किए गए.

गांधी का सवाल: क्या जामिया सुरक्षित है?

भारत की आज़ादी के बाद देश में जो हालात थे, उनसे तो आप सब बख़ूबी वाक़िफ़ होंगे. इस मुश्किल दौर में गांधी जी 9 सितम्बर, 1947 की सुबह दिल्ली स्टेशन पहुंच कर पहला प्रश्न यही किया था —‘ज़ाकिर हुसैन सकुशल हैं? क्या जामिया मिल्लिया सुरक्षित है?’ इतना ही नहीं, दूसरे ही दिन सुबह-सुबह अपना भरोसा पक्का करने के लिए जामिया आए.

एक ख़बर के मुताबिक़, महात्मा गांधी जब ओखला में जामिया के शरणार्थी कैम्प में आएं तो यहां उन्हें ज़ाकिर हुसैन ने रिसीव किया. मुस्लिम शरणार्थियों ने महात्मा गांधी को बताया कि उनके गांवों में कैसे उनके साथ परेशानी शुरू हो गई थी. महात्मा गांधी ने डर को भगाने और साहसी होने के लिए बुर्का में मुस्लिम महिलाओं के एक समूह को समझाया. उन्हें एक नवजात बच्चा दिखाया गया, जिसके माता-पिता गुंडों द्वारा मार दिए गए थे. बता दें कि इस दिन जामिया के एक दरवाज़े में महात्मा गांधी की एक उंगली दबने के कारण थोड़ा सा कट गया था.

गांधी की उम्मीद: पुराने दिन फिर वापस आएंगे…

6 अप्रैल, 1947 को गांधी जी नई दिल्ली में आयोजित प्रार्थना सभा में भाषण दे रहे थे. इस भाषण में उन्होंने कहा —‘…पुराने दिन फिर वापस आएंगे, जब हिन्दू-मुसलमानों के दिलों में एकता थी. ख़्वाजा साहब अब भी राष्ट्रीय मुसलमानों के प्रेसीडेंट हैं. दूसरे भी जो राष्ट्रीय भावना वाले मुसलमान लड़के उन दिनों में अलीगढ़ से निकले थे, वे आज जामिया के अच्छे-अच्छे विद्यार्थी और काम करने वाले बने हुए हैं. ये सब सहारा के रेगिस्तान में द्वीप समान हैं…’

TAGGED:Editor's PickExclusiveJamiaJamia Aur GandhiJamia Millia Islamia
Share This Article
Facebook Copy Link Print
What do you think?
Love0
Sad0
Happy0
Sleepy0
Angry0
Dead0
Wink0
“Gen Z Muslims, Rise Up! Save Waqf from Exploitation & Mismanagement”
India Waqf Facts Young Indian
Waqf at Risk: Why the Better-Off Must Step Up to Stop the Loot of an Invaluable and Sacred Legacy
India Waqf Facts
“PM Modi Pursuing Economic Genocide of Indian Muslims with Waqf (Amendment) Act”
India Waqf Facts
Waqf Under Siege: “Our Leaders Failed Us—Now It’s Time for the Youth to Rise”
India Waqf Facts

You Might Also Like

ExclusiveHaj FactsIndiaYoung Indian

The Truth About Haj and Government Funding: A Manufactured Controversy

June 7, 2025
I WitnessWorldYoung Indian

The Earth Shook in Istanbul — But What If It Had Been Delhi?

May 8, 2025
EducationIndiaYoung Indian

30 Muslim Candidates Selected in UPSC, List is here…

May 8, 2025
Waqf FactsYoung Indian

World Heritage Day Spotlight: Waqf Relics in Delhi Caught in Crossfire

May 10, 2025
Copyright © 2025
  • Campaign
  • Entertainment
  • Events
  • Literature
  • Mango Man
  • Privacy Policy
Welcome Back!

Sign in to your account

Lost your password?