शरजील इमाम : एक मुसलमान दिखा नहीं कि पिल पड़े उसे टांगने के लिए?

Beyond Headlines
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By Dilip Khan

शाहीन बाग़ को बदनाम करने के लिए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के वीडियो को संबित पात्रा ने शाहीन बाग़ का वीडियो बताकर फैला दिया. लिबरल्स फड़कने लगे. शरजील इमाम के साथ-साथ शाहीन बाग़ पर भी सवाल उठाने लगे.

शरजील इमाम को लेकर तमाम लिबरल्स की पोस्ट्स पढ़ीं. सब मिलकर दो बातें कह रहे हैं. पहली, उसने देशद्रोही बयान दिया है. दूसरी, उसने भारत-विरोधी और संविधान-विरोधी बात कही है. मुझे कोई समझाए कि ये दोनों आरोप किन तथ्यों के आधार पर लगाए जा रहे हैं?

एक मुसलमान दिखा नहीं कि पिल पड़े उसे टांगने के लिए? इस्लामोफ़ोबिया सतह के नीचे लिबरल्स के भीतर बैठा रहता है. वे मुस्लिमों की लिंचिंग की आलोचना करेंगे, लेकिन मुस्लिम लीडरशिप की बात सुनते ही वो दाहिनी तरफ़ खड़े हो जाएंगे. आइडेंटिटी एसर्शन सुनते ही उनकी भौंहे भड़कने लगेंगी.

मुझे मजबूरन एक ऐसा भाषण सुनना पड़ा, जिससे कई जगहों पर मेरी घोर असहमति है. लेकिन, इसके बावजूद मुस्लिम अगर इतिहास और राजनीति की अपनी नज़र से व्याख्या कर रहा है तो मैं उसके पीछे नहीं पड़ूंगा.

दलित, आदिवासी अगर अपनी नज़र से इतिहास की व्याख्या करेंगे तो मैं उनके पीछे नहीं पड़ूंगा. उनसे असहमति हो सकती है. वो ज़ाहिर करूंगा, लेकिन अगर कोई मुस्लिम कह रहा है कि ‘हमें आज़ादी नहीं मिली’ तो इस बात से जिन्हें मिर्ची लगती है, उन्हें ज़्यादा नहीं तो सच्चर आयोग की रिपोर्ट पढ़ने कह दूंगा.

क्या ये सच नहीं है कि देश ने मुस्लिमों का विश्वास तोड़ा है? लेफ़्ट से लेकर आदिवासी लीडरशिप तक ये नारा दशकों से गूंजता रहा है: ये आज़ादी झूठी है. क्या इस देश ने आदिवासियों का भरोसा नहीं तोड़ा है?

असम को ‘कट’ करने को जिस तरह से पेश किया गया वो उसी तरह झूठ है जैसे ये झूठ कि शरजील का भाषण शाहीन बाग़ में हुआ. चक्का जाम करने को देशद्रोह के रूप में ट्रांसलेट किया जा रहा है. वो वीडियो के बिल्कुल आख़िर में ‘हिंदुस्तान बंद’ करने की बात कर रहा है. बंद का आह्वान देशद्रोह कबसे हो गया?

कोई गांधी को नहीं समझता. कोई गांधी की आलोचना करता है. कोई गांधी से नफ़रत करता है. ये सब असहमति के मुद्दे हो सकते हैं. इन सब पर हम वक्ता की आलोचना कर सकते हैं. लेकिन, इसके आधार पर उसे हम देशद्रोही नहीं कर सकते. देश का कोई क़ानून ऐसा नहीं कहता.

यहां गांधी के हत्यारे गोडसे की प्रशंसा करने वाली प्रज्ञा ठाकुर संसद में है. जिस सावरकर को कपूर आयोग ने गांधी की हत्या के षडयंत्र का मास्टरमाइंड करार दिया था, उसे रोज़ाना भारत रत्न देने की मांग होती है. सावरकर की प्रशंसा न्यू नॉर्मल है. टीवी चैनलों पर रोज़ कोई न कोई आकर सावरकर का गुण गाता मिल जाएगा आपको.

शरजील इमाम ने गांधी को ‘20वीं सदी का सबसे बड़ा फ़ासिस्ट’ कह दिया. ये उसकी नासमझी हो सकती है. इस पर उसकी आलोचना हो सकती है. लेकिन, ये देशद्रोह नहीं हो सकता.

और अपनी लीडरशिप तैयार करने की अपील करना देशद्रोह कब से हो गया? लेफ़्ट की आलोचना देशद्रोह कब से हो गया? कांग्रेस को कम्यूनल कहना देशद्रोह कब से हो गया? ज्यूडिशियरी और लेजिसलेटिव से नाख़ुशी ज़ाहिर करना देशद्रोह कब से हो गया?

अगर इस भाषण की विवेचना करने को कहा जाता तो मैं अपनी आलोचना दर्ज करता. मैं कहता कि भाषण में कई सारी बेतुकी बातें कही गई हैं. लेकिन, मामला अभी शरजील इमाम को लिंच कर देने जैसे हालात में पहुंच गया है. ऐसे में मैं उसके साथ खड़ा रहूंगा.

इस मुल्क में अगर मुस्लिम अपने-आप को एसर्ट करें तो सब चौंकन्ना हो जाते हैं. कान खड़े हो जाते हैं. दलित, ओबीसी ने अपनी लीडरशिप तैयार की. मायावती ख़ुद को दलित लीडर बता सकती हैं, राम विलास पासवान बता सकते हैं, रामदास अठावले बोल सकते हैं. लालू यादव ख़ुद को पिछड़ों का नेता बता सकते हैं, मुलायम सिंह यादव भी ये क्लेम कर सकते हैं. लेकिन, मुस्लिम आइडेंटिटी के आधार पर एक नेता यहां पॉलिटिक्स नहीं कर सकता. इस्लामोफोबिया और किसे कहते हैं? आलोचना कीजिए, लेकिन आप उखड़ने क्यों लगते हैं?

शरजील किस नेता का बेटा है, किस पार्टी के लिए काम करता है, क्या करता है, इससे मुझे कोई लेना-देना नहीं है. वो कोई भी हो, कुछ भी करता हो, लेकिन देशद्रोह का इल्जाम लगाने और इसका समर्थन करने वालों की नीयत उसके भाषण की आपत्ति लायक किसी भी बात से ज़्यादा शर्मनाक है.

I don’t support Sharjeel Imam but I stand with him.

(दिलीप खान का ये पोस्ट उनके फ़ेसबुक टाईमलाइन से लिया गया है.)

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