Tag: Loksabha Election 2019

  • ‘एएमयू, जेएनयू और जामिया वालों! क्या कन्हैया की तरह मेरी भी मदद करोगे?’ —सज्जाद हुसैन

    ‘एएमयू, जेएनयू और जामिया वालों! क्या कन्हैया की तरह मेरी भी मदद करोगे?’ —सज्जाद हुसैन

    Afroz Alam Sahil, BeyondHeadlines

    नई दिल्ली: बेगूसराय में चुनाव का शोर अब थम चुका है. इस शोर के थमते ही जामिया से पढ़े सज्जाद हुसैन, जो जम्मू-कश्मीर के लद्दाख लोकसभा सीट से निर्दलीय उम्मीदवार हैं, ने एएमयू, जेएनयू और जामिया से पढ़े अपने दोस्तों से सवाल किया है कि अब तो आपने कन्हैया की हर तरह से मदद कर दी, वहां आज शाम मतदान भी ख़त्म हो जाएगा. लेकिन क्या आपने जिस तरह से कन्हैया की मदद की, उसी तरह से मेरी भी मदद करेंगे? शायद मेरे साथियों को याद होगा कि मैंने भी दिल्ली की सड़कों पर इंसाफ़ की हर लड़ाई में संघर्ष किया है. 

    सज्जाद हुसैन ने बतौर एक्टिविस्ट दिल्ली में काफ़ी संघर्ष किया है. ख़ास तौर पर 2007 से 2011 तक दिल्ली के हर जन-आंदोलनों में नज़र आए हैं. बटला हाउस फ़र्ज़ी एनकांउटर के मामले में हुए हर धरना-प्रदर्शन में सबसे आगे रहे. इन्होंने दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया से ह्यूमन राईट्स में एमए किया है. इसके बाद यहीं के पर्शियन डिपार्टमेंट से इरानोलॉजी में डिप्लोमा की डिग्री हासिल कर अपने वतन कारगिल को लौट गए. फिर यहां उन्होंने ईरान के एक समाचार चैनल से जुड़कर यहां के स्थानीय मुद्दों को राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठाते रहे. और अब स्थानीय लोगों की डिमांड पर लद्दाख से बतौर निर्दलीय प्रत्याशी चुनावी मैदान में हैं.

    सज्जाद हुसैन कहते हैं, ‘हिन्दुस्तान के जितने भी सेक्यूलर फोर्सेज़ हैं, वो हमारी मदद के लिए आगे आएं. जिस तरह से भी मुमकिन हो, अगर मेरी मदद कर सकते हैं, तो उन्हें ज़रूर करना चाहिए. क्योंकि आपने बदलाव के लिए पहल की है, ऐसे में लद्दाख से बतौर निर्दलीय उम्मीदवार आता हूं तो यक़ीनी बात है कि सेक्यूलर फोर्सेज़ की जो लड़ाई है, उसे ताक़त मिलेगी.’

    वो कहते हैं, ‘मेरे पास फंड भी नहीं है. बस यहां के स्थानीय दोस्तों व रिश्तेदारों व आम लोगों की मदद से लड़ रहा हूं. अख़बार में विज्ञापन तो बहुत दूर की बात, पर्चा छपवाने के लिए भी सोचना पड़ रहा है. ऐसे में मैं चाहता हूं कि जिस तरह बेगूसराय उम्मीदवार कन्हैया के लिए पूरी सिविल सोसाइटी, पूरा लिबरल व सेक्यूलर तबक़ा सामने आया था, उन्हें ज़रूर मेरे साथ भी अपनी सॉलीडारिटी दिखानी चाहिए.’

    सज्जाद ये चुनाव यहां के स्थानीय मुद्दों पर लड़ रहे हैं. वो कहते हैं कि मैं यहां एक अदद यूनिवर्सिटी के लिए लड़ रहा हूं. मैं यहां मेडिकल कॉलेज के लिए लड़ रहा हूं. मैं यहां विमेन कॉलेज के लिए लड़ रहा हूं. जिन इलाक़ों में सड़क व बिजली नहीं पहुंच सकी है, उसके लिए लड़ रहा हूं. मैं यहां अस्पताल के लिए लड़ रहा हूं.  

    सज्जाद का कहना है कि हमारा ये इलाक़ा पूरे 6 महीने दुनिया से कटा रहता है. पीएम मोदी ने यहां के लिए ‘उड़ान स्कीम’ का ऐलान किया, लेकिन आज तक इस स्कीम के तहत कुछ भी नहीं हो सका है. अभी तक मोदी का जहाज़ ज़मीन पर नहीं उतरा है. मई 2018 में लेह-लद्दाख में जिस जोजिला टनल का उद्घाटन पीएम मोदी ने किया और जिस कंपनी को इसका काम दिया गया, वो कंपनी ही लिक्वीडिटी क्रंच की शिकार हो गई. सच कहें तो केन्द्र सरकार का विकास यहां तक नहीं पहुंच सका है. तमाम बातें व वादे जुमला ही साबित हुए हैं.   

    सज्जाद बताते हैं कि यहां बाक़ी प्रत्याशी मुझसे घबरा रहे हैं और ख़ास तौर पर बीजेपी के लोग डरे हुए हैं. लोगों में ये भ्रम फैला रहे हैं कि मुझे पॉलिटिक्स नहीं आती. तो मेरा उनको जवाब है —हां, मुझे हेट पॉलिटिक्स नहीं आती. मुझे कम्यूनल पॉलिटिक्स नहीं आती. मुझे जुमलेबाज़ी की पॉलिटिक्स नहीं आती. मैं सिर्फ़ ईमानदारी की सियासत करना चाहता हूं. मैं यहां के लोगों के हालात को बदलना चाहता हूं…

    वो यह भी बताते हैं कि चूंकि मैंने 2011 से लगातर अब तक बतौर पत्रकार ईरान के एक चैनल ‘सहर टीवी’ के लिए काम किया है, इसलिए यहां के मुद्दों व समस्याओं को न सिर्फ़ क़रीब से देखा व समझा है, बल्कि उन्हें राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठाता भी रहा हूं. यही नहीं, मैं यहां के तमाम जन-आंदोलनों में शामिल रहा हूं. और मैं इस चुनाव में खुद खड़ा नहीं हुआ हूं, बल्कि यहां के लोगों की डिमांड पर ये चुनाव लड़ रहा हूं. मुझे यहां तमाम लोगों का समर्थन हासिल है. साथ ही मुझे एनसी और पीडीपी जैसी सियासी पार्टियां अपना समर्थन दे चुकी हैं. इसलिए मैं मुतमईन हूं कि जीत यक़ीनन हमारी ही होगी.    

    बता दें कि लद्दाख़ क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से देश बड़े लोकसभा क्षेत्रों में से एक है, वहीं आबादी के मामले में छोटे लोकसभा क्षेत्रों में शामिल है. यहां वोटरों की संख्या सिर्फ़ 1.66 लाख है. 2014 में यहां बीजेपी के थुपस्तान छेवांग ने जीत दर्ज की और यहां पहली बार कमल खिला. दूसरे स्थान पर निर्दलीय प्रत्याशी गुलाम रज़ा रहे, जो महज़ 36 वोटों से ये चुनाव हारे थे. छेवांग को 31 हज़ार 111 और गुलाम रज़ा को 31 हज़ार 75 वोट मिले थे. तीसरे नंबर पर निर्दलीय प्रत्याशी सैय्यद मोहम्मद क़ाज़िम रहे और उनको 28 हज़ार 234 वोट मिले. इसके साथ ही चौथे नंबर पर रहे कांग्रेस के सेरिंग सेम्फेल को 26 हज़ार 402 वोटों से संतोष करना पड़ा था. छेवांग ने पार्टी नेतृत्व से असहमति का हवाला देते हुए नवंबर 2018 में लोकसभा से इस्तीफ़ा दे दिया और अपनी पार्टी छोड़ दी.

    इस बार इस लोकसभा सीट से सिर्फ़ चार उम्मीदवार मैदान में हैं. बीजेपी ने यहां जामयांग शेरिंग नामग्याल को चुनाव मैदान में उतारा है, जबकि कांग्रेस पार्टी ने रिगजिन स्पालबार पर दांव लगाया है. इसके अलावा असगर अली कर्बलाई और सज्जाद हुसैन बतौर निर्दलीय अपनी क़िस्मत आज़मा रहे हैं. हालांकि असगर अली कर्बलाई का संबंध भी कांग्रेस से ही है और बाग़ी उम्मीदवार के तौर पर लड़ रहे हैं. यहां मतदान पांचवें चरण चरण में 6 मई को है.

  • Momspresso Study: Safety, Sanitation and Education Top concerns For Delhi Mothers

    Momspresso Study: Safety, Sanitation and Education Top concerns For Delhi Mothers

    BeyondHeadlines News Desk

    New Delhi: Gurgaon based Momspresso is a multilingual content platform that caters to the multifaceted mums of today. Being the largest community worldwide for mothers, Momspresso has taken the opportunity with General elections to address the voice of Indian Mothers. It has launched a Moms Manifesto, addressing what moms want from General Elections 2019.

    The study finds that 70% of Indian moms are not influenced by politicians on choosing who to vote as the area of concern to them( eg- personal safety, kids safety etc) are extremely personal and is not being addressed generically.  The study was conducted pan-India amongst a sample size of 1317 mothers with a variation of working women– 33.7% and Homemakers– 66.3%

    Momspresso is the world’s largest platform for moms, brewing with the energy of possibilities. It was launched in 2010 by Vishal Gupta, Prashant Sinha, and Asif Mohamed.  Momspresso attracts 20 million mums every month, consuming and creating content from a community of 10,000 bloggers. 95% of this content is user-generated and is available in several languages including English, Hindi, Bengali, Tamil, Marathi, Malayalam, Kannada and Telugu to reach a larger number of mothers across geographies. It works with over 75 top brands and has long-term engagements with Nestle, Dettol, Pampers, J&J, Horlicks, and Dove amongst others.  Additionally, the company has recently launched Momspresso TV, India’s first video channel dedicated to mothers, which already boasts over 1000 videos.  

    To tap into its rich repository of data pertaining to moms, the platform has launched Momsights which facilitates efficient research and insights, blogger and expert advocacy, digital film production and events and activation such as bloggers meet. It has also launched Momspresso Bharat, which is India’s first digital vernacular services agency. 

    “At Momspresso, we strongly felt that the real issues that impact the lives of moms have been underrepresented in all the manifestos and conversations around us. As the largest community of mothers, we decided to take the onus of creating a manifesto that presents the voice of mothers, a view that is crucial to the overall progress of the country. Through this survey, we are bringing forth these voices that often remain unheard, and present their point of views through our platform. We believe that these concerns and aspirations of mothers will now reach the right audience among the powers that be.”  Says Mr. Vishal Gupta, Co-founder & CEO of Momspresso

  • आख़िर कन्हैया कुमार को क्यों पसंद करता है मुसलमान?

    आख़िर कन्हैया कुमार को क्यों पसंद करता है मुसलमान?

    Afroz Alam Sahil, BeyondHeadlines 

    नई दिल्ली: कन्हैया कुमार बेगूसराय से लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं. इस चुनाव में कन्हैया कुमार को बेगूसराय का मुसलमान वोट देगा या नहीं, ये बेगूसराय के लोग ही बेहतर जानते हैं. लेकिन देश भर के मुसलमान कन्हैया कुमार के समर्थन में खड़े ज़रूर नज़र आ रहे हैं. कई मिल्ली व सियासी रहनुमाओं के बाद अब मुसलमानों की एक बड़ी जमाअत ‘ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मशावरत’ ने भी कन्हैया कुमार को अपने समर्थन का ऐलान किया है. 

    आख़िर इस देश के मुसलमानों को कन्हैया कुमार से इतनी मुहब्बत क्यों है? आख़िर इस देश का मुसलमान कन्हैया को क्यों पसंद करता है? इन सवालों का जवाब जानने व समझने के लिए BeyondHeadlines ने कई मुस्लिम नौजवानों व बुद्धिजीवियों से बात की है. 

    ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मशावरत के राष्ट्रीय अध्यक्ष नवेद हामिद कहते हैं, ‘संघ परिवार की पूरी कोशिश है कि ऐसे तमाम लोगों को जो उसके ख़िलाफ़ एक मज़बूत आवाज़ बनकर उठ सकते हैं, दबाया जाए. उनको ख़त्म किया जाए. बावजूद इसके इस देश को बचाने की लड़ाई में कन्हैया का नाम एक ऐसे सिपाही के तौर पर उभरा है, जो संघ परिवार की आंखों में खटकता है. अब जो आरएसएस के ख़िलाफ़ एक केन्द्र बनकर उभरा है, उसको देश के वो तमाम लोग जो देश की फ़िक्र रखते हैं, भला चाहते हैं, कन्हैया के साथ खड़े नहीं होंगे तो कौन होगा?’

    साथ ही उन्होंने ये भी कहा, ‘बेगूसराय के राजद उम्मीदवार तनवीर साहब से मेरा कोई मतभेद नहीं है. वो बड़े लीडर हैं, लेकिन राजनीति के अंदर परिस्थितियां भी देखी जाती हैं और परिस्थिति ये है कि ऐसी क़यादत हमें राष्ट्रीय स्तर पर उभारनी है, जो ये विद्वेष की राजनीति है, उसके ख़िलाफ़ एक मज़बूत आवाज़ हो. कन्हैया लंबी रेस का घोड़ा है. राजनीति के अंदर लंबी रेस के घोड़े को ज़रूर आगे बढ़ाना चाहिए.’

    आप एक ज़िम्मेदार तंज़ीम के अध्यक्ष हैं. क्या आपने बेगूसराय के लोग क्या सोचते हैं, इसे समझने की कोशिश की है? इस पर नवेद हामिद कहते हैं, ‘मैं बेगूसराय की जनता के परिपक्वता के ऊपर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता. और हां, मैं ये बता दूं कि राजनीति के अंदर जो ज़िम्मेदार लोग होते हैं, वो अवाम की राय के ऊपर नहीं चलते. ज़िम्मेदार कौन है, जो अवाम को समझाने की कोशिश करे, ज़िम्मेदार वो नहीं है जो अवाम के कहने पर चले’

    उर्दू के मशहूर उपन्सासकार रहमान अब्बास का कहना है, ‘कन्हैया को इस मुल्क की समझ बहुत है. फ़ासिस्ट ताक़तों को एक्सपोज़ करने का ईमानदाराना ज़ज्बा है. ये जज़्बा या इमोशन मैंने कांग्रेस के किसी लीडर में नहीं देखा है. ऐसा इमोशन कम्यूनिस्टों में भी बहुत कम नज़र आता है. आरएसएस के आईडियोलोजी के ख़िलाफ़ पंगा लेने को कोई तैयार नहीं है. बस कन्हैया ही उनसे लड़ सकता है.’

    बता दें कि रहमान अब्बास को साल 2018 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका है. इससे पहले साल 2015 में देश में बढ़ रही लिंचिंग की घटनाओं के ख़िलाफ़ महाराष्ट्र सरकार का उर्दू साहित्य पुरस्कार लौटा चुके हैं. 

    वो आगे कहते हैं, ‘इस तरह के नौजवानों का आना बहुत ज़रूरी है. पार्लियामेंट में अगर ऐसा नौजवान जाता है तो अपने आर्गूमेंट से मोदी जैसे शातिर आदमी का मुंह बंद कर सकता है.’

    हालांकि वो ये भी मानते हैं कि सियासत एक बहुत ही संजीदा मसला है. बेगूसराय का अलजेबरा क्या है. वहां किस आधार पर लोग वोट करते हैं, ये बहुत मायने रखता है, लेकिन ऐसे नौजवानों को संसद भेजना बहुत ज़रूरी है.

    एबीपी से जुड़े सीनियर पत्रकार अब्दुल वाहिद आज़ाद का मानना है कि ‘आम तौर पर मुसलमानों के पढ़े-लिखे एक तबक़े में ये आम राय है कि बहैसियत मुसलमान आप अपने हक़ की बात नहीं कर पाते हैं. या आरएसएस व मोदी के ख़िलाफ़ नहीं बोल सकते हैं. इस देश के मुसलमानों के लिए ये कहना ही मुश्किल काम है कि आरएसएस एक फ़ासिस्ट ताक़त है. लेकिन ये काम कन्हैया कर रहा है. इसलिए वो मुसलमानों को पसंद है.’

    वो आगे ये भी बताते हैं कि कन्हैया एक मूवमेंट से निकला हुआ आदमी है. ये पूछने पर की कौन सा मूवमेंट? वो कहते हैं, ‘जेएनयू का मूवमेंट. जेएनयू पर जब सवाल उठा तो उस वक़्त कन्हैया ने ही आरएसएस व मोदी के ख़िलाफ़ जमकर बोला. यक़ीनन कन्हैया ने अपने दिल्ली में होने व अपने चतुर होने का फ़ायदा उठाया.’

    राजनीतिक समझ रखने वाले पटना के तारिक़ इक़बाल कहते हैं, ‘जो मुसलमान युवा वामपंथियों से दूर रहता है, लेकिन उसे कन्हैया पसंद है. इसकी पहली वजह ये है कि कन्हैया मोदी को काउंटर करता है, और ये काम मुसलमानों को पसंद है. दूसरी वजह ये है कि मुसलमानों को हमेशा किसी एक चेहरे में अपना मसीहा दिखाई दे जाता है. इनका अपना मसीहा बनाने की पहली शर्त होती है कि वो मुसलमान न हो. असल में सच तो ये है कि मुसलमान युवा एहसास-ए-कमतरी के इतने शिकार हो चुके हैं कि वो अपने लोगों के बजाए दूसरे लोगों में अपना रहनुमा तलाश करते हैं. और फिर कन्हैया को जिस तरह से मीडिया ने पेश किया है, वैसे में कन्हैया एक ब्रांड की तरह दिखता है’

    एक लंबी बातचीत में इक़बाल ये भी कहते हैं, ‘सारा खेल मीडिया का है. अगर कन्हैया दलित होता, तो क्या आज उसकी जो पोजीशन है, वो होती. शायद कभी नहीं. चूंकि भूमिहार है, अपर कास्ट लॉबी से आता है तो उसकी ब्रांडिंग हो पाई.’

    जामिया मिल्लिया इस्लामिया के रिसर्च स्कॉलर नुरूल होदा का कहना है, ‘मुस्लिम समाज में 2002 के बाद मोदी को जिस तरह से विलेन बनाकर पेश किया गया, तब से मोदी मुसलमानों के लिए एक विलेन की तरह हैं. कन्हैया ने जब मोदी पर वार करना शुरू किया तो कुछ मुसलमान इसे पसंद करने लगे. लेकिन कन्हैया काम क्या करेगा, ये किसी को नहीं पता. इन मुसलमानों को बस इतना ही पता है कि बोलता अच्छा है. हालांकि सबसे बड़ी सच्चाई ये है कि ये सब मीडिया का प्रोपेगंडा है.’

    वो ये भी कहते हैं, ‘कन्हैया आरक्षण विरोधी है. और इतना ही नहीं, जब खुद बेगूसराय में कुशवाहा छात्रावास पर हमला हुआ, छात्रों के साथ मारपीट और अप्राकृतिक यौनाचार हुआ तब भी ये कन्हैया ख़ामोश रहा. दलितों नरसंहार करने वाला बरमेश्वर मुखिया के ख़िलाफ़ भी इसकी ज़बान नहीं खुलती. वहीं बेगूसराय के लोगों की माने तो बेगूसराय के किसी भी मामले में कन्हैया ने अपना मुंह नहीं खोला है.’

    जेएनयू से पढ़े इतिहासकार व राजनीतिक टिप्पणीकार साक़िब सलीम एक अलग नज़रिए के साथ अपनी बात को रखते हैं. वो कहते हैं, ‘हम भले ही इंसान बन गए हैं, लेकिन हमारे अंदर जानवरों वाली फ़ितरत है. जैसे कि एक बंदर एक तरफ़ चलता है तो पूरा झुंड उसके पीछे चल पड़ता है. पहले बंदर को पता होता है कि वो कहां जा रहा है, लेकिन उसके पीछे वाले तो कुछ जानते ही नहीं.’

    वो आगे कहते हैं, ‘अब हो ये रहा है कि मुसलमानों के सामने मोदी को एक बहुत बड़ा दुश्मन बनाया गया. और हमने भी दुश्मन मानकर नफ़रत बेचना शुरू कर दिया. एक तरफ़ तो मोदी के लोग कह रहे हैं कि हम मुसलमानों को सबक़ सिखाएंगे हमें वोट दो. दूसरी तरफ़ एक दूसरा नेता भी यही कह रहा है कि अगर तुम्हे मोदी से नफ़रत है तो मुझे वोट दो. लेकिन ये नेता भी हमारी कोई भलाई की बात नहीं कर रहा है. यानी मुसलमानों का वोट पाने के लिए अब किसी भी नेता को बस ये साबित करने की ज़रूरत है कि वो मोदी का दुश्मन है. और जैसे ही ये साबित हो जाएगा, तो सारे मुसलमान भेड़चाल के साथ उसकी तरफ़ दौड़ पड़ेंगे.’

    साक़िब के मुताबिक़, ‘यही सब कुछ कन्हैया के मामले में भी हो रहा है. मैं हमेशा से ये कहता आया हूं कि कन्हैया या उन जैसे तमाम लोगों को उठाना खुद बीजेपी का एक प्रोपेगंडा है. क्योंकि ये ज़मीन के नेता नहीं हैं और जब ज़मीन के नेता नहीं हैं तो यक़ीनन बहुत मुश्किल है कि ज़मीन के लोग इन्हें वोट करें. लेकिन मुसलमानों का क्या है, मोदी जिसे जेल में डालेगा, मुसलमान हर बार उसके पीछे खड़ा नज़र आएगा.’

    असल में इस देश में मुसलमानों की जो हालत है, उसे हर ‘ऐरे-गैरे’ में उम्मीद की रोशनी नज़र आती है. वो उस पर पूरा यक़ीन कर लेता है. और किसी क़ौम के लिए किसी नए-नवेले नेता के प्रति ऐतबार करना इस बात की अलामत है कि मुस्लिम क़ौम किस क़दर गर्त में जा चुकी है. क्योंकि यही कन्हैया खुले तौर पर अपने चुनावी सभाओं में कह रहा है कि मैं ये नहीं कह रहा हूं कि अगर मैं जीत जाउंगा तो आपकी साईकिल की दुकान को किसी गाड़ी का शो रूम बनवा दूंगा. लगाना तो आपको पंचर ही है. लेकिन आपके साथ ग़लत होगा तो उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाउंगा. मतलब इस क़ौम की हालत ये हो चुकी है कि वो खुद के अधिकारों के लिए आवाज़ तक नहीं उठा सकती. और हां, बक़ौल कन्हैया, ‘आप मुझे जानते ही कितना हैं? आपने मुझे सिर्फ़ उतना ही जाना है, जितना मीडिया ने आपको दिखाया है…’

  • ‘कन्हैया के बेगूसराय’ का आंखों देखा हाल

    ‘कन्हैया के बेगूसराय’ का आंखों देखा हाल

    Afroz Alam Sahil, BeyondHeadlines

    सोशल मीडिया पर बने ‘कन्हैयामय’ माहौल के बाद देश भर से लोग बेगुसराय पहुंच रहे थे. जब मंगलवार सुबह समस्तीपुर से बेगुसराय की तरफ़ बढ़ा तो पता चला कि ‘वामपंथ’ अब सड़क छोड़कर लंबी-लंबी कारों व रॉयल इंफ़िल्ड पर सवार हो चुका है. और लगातार हॉर्न बजाते व हर तरह का ‘प्रदूषण’ फैलाता हुआ बेगुसराय पहुंच रहा है… मौसम ने भी लोगों के जोश में इज़ाफ़ा कर दिया था. सड़कों पर ये जोश इस क़दर था कि आसमान से ओले पड़ने के बाद भी शांत नहीं पड़ा.

    बेगुसराय की सड़कें जाम की वजह से दम तोड़ रही थी. जैसे-तैसे सभा-स्थल पर पहुंचने के बाद देखा कि ‘बी.एस.एस. कॉलेजियट आदर्श विद्यालय’ का ग्राउंड पूरी तरह लाले-लाल है. मंच पर प्रोफ़ेशनल सिंगर्स की एक पूरी टीम अपने साज-बाज के साथ मोदी व आरएसएस विरोधी गाने गा रही है. कन्हैया वाले ‘आज़ादी’ सॉन्ग पर पूरा मैदान झूम रहा है. लोगों का उत्साह देखने लायक़ था. बिल्कुल वैसा ही उत्साह जैसा 2014 के चुनाव में मोदी की सभाओं में देखा गया था, हां! यहां उसकी तुलना में लोग कम ज़रूर थे. 

    मंच पर नामी-गिरामी लोगों में मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता सेल्फ़ी लेते हुए नज़र आ रही थी. तभी उसी मंच से ऐलान हुआ कि सेल्फ़ी लेने वाले लोग मंच से नीचे उतर जाएं. वो मुस्कुराते हुए जाकर अपनी जगह पर बैठ गई. मंच पर शहला रशीद, नजीब की मां फ़ातिमा नफ़ीस के साथ पीछे की ओर बैठी हुई थी, तभी कार्यकर्ताओं ने उन्हें वहां से उठाकर आगे की कुर्सी पर बैठने का आग्रह किया. न जाने क्यों, ये दोनों काफ़ी परेशान दिख रही थीं. शायद रोड शो से लौटने के कारण थक गई होंगी. यक़ीनन चेहरे पर थकान साफ़ झलक रही थी…

    गाने का कार्यक्रम अब ख़त्म हो चुका था. उन्हें आनन-फ़ानन मंच से हटा दिया गया. अब इस मंच से नेताओं के गरजने की बारी थी. मौक़ा देखकर सबने मोदी और उनके प्रत्याशी गिरीराज सिंह को जी भर के कोसा, साथ ही अपील कि तेजस्वी अपना कैंडीडेट यहां से वापस ले लें, क्योंकि वो दूर दूर तक रेस में नहीं है. कन्हैया चुनाव जीत चुका है. जी हां, आप बिल्कुल सही पढ़ रहे हैं. इस मंच से कई वक्ताओं ने इस बात का ऐलान कर दिया कि ‘कन्हैया चुनाव जीत गया’.

    इन सबके बीच किसी बड़े नेता की तरह पूरे तीन घंटे की देरी से कन्हैया अपने युवा समर्थकों के साथ सभा-स्थल पहुंचे. लोग बेक़ाबू हो चुके थे. आते ही कन्हैया ने खुद ही माईक संभाल लिया और लोगों से विनती की कि मेहरबानी करके आप सब लोग बैठ जाईए, शायद कुछ ही लोग बैठे होंगे कि कन्हैया ने सबका शुक्रिया अदा किया. और लोगों को बताया कि 29 तारीख़ को वोट की बारिश होगी. नोटतंत्र दहाएगा और लोकतंत्र जीत जाएगा. 

    कन्हैया ने सबसे पहले महाराष्ट्र से आए एनसीपी के नेता जीतेन्द्र अहवाड का लोगों से परिचय करवाया. फिर जेएनयू से आए गुरमोहर. अभिनेत्री स्वारा भास्कर और बाक़ी साथियों का परिचय करवाया. 

    मंच पर मौजूद तमाम वक्ताओं ने कन्हैया को संसद भेजने की अपील की. नजीब की मां फ़ातिमा नफ़ीस ने अपने बेटे नजीब को याद करते हुए कहा कि ढ़ाई साल से अपने बेटे के लिए संघर्ष कर रही हूं. मेरे बेटे को गायब कर दिया गया है. कन्हैया ही वो शख़्स है जिसने मेरे बेटे के लिए आवाज़ उठाई है… फिर कन्हैया ने भी मोदी व गिरीराज सिंह को निशाने पर रखकर बीजेपी पर खूब प्रहार किया. इनके इस प्रहार से लोगों का उत्साह देखने लायक़ था.

    लेकिन उसी सभा स्थल में मौजूद कई लोगों से मैंने बातचीत की तो पता चला कि बेगुसराय की राजनीति इतनी आसान नहीं है, जितना मंच पर आसीन नेता व सेलीब्रिटी लोग समझ रहे हैं. 

    70 साल के एक बुजुर्ग से ये पूछने पर कि चचा आपको कन्हैया कैसा लगता है और चुनाव में क्या होगा? चचा का जवाब था —लड़का तो बहुते बोलतू है. लेकिन अभी 20 दिन बाक़ी है, देखते रहिए इस 20 दिन में अभी क्या-क्या होता है…

    सफ़ेद कुर्ता पर लाल गमछा रखे एक और बुजुर्ग बताते हैं कि मियां लोग तो कन्हैया के साथ हैं, लेकिन इसके ही जाति के लोग इसको वोट दे तब ना… वहीं कई युवाओं ने बताया कि इस बार कन्हैया ही जीतेगा. हालांकि इन युवाओं की ये भी शिकायत थी कि भईया थोड़ा मोदी जी के बारे में ज़्यादा बोल देते हैं. आख़िर काम तो उनके साथ ही करना है इनको. तो थोड़ा कम ही बोलना चाहिए. 

    बेगुसराय के कुछ इलाक़ों में हमने इस माहौल को और गहराई से जानने की कोशिश की. ज़ीरो माईल के क़रीब ही मोटर पार्ट्स की दुकान चलाने वाले एक जनाब से बेगुसराय में चुनाव की स्थिति पूछने पर कहते हैं —‘अरे आप मीडिया वाले हैं. कन्हैया का जुलूस नहीं देखे. महाराज बाईक, कार-जीप तो छोड़िए. साथ में ट्रक और बस भी चल रहा था.’ इतना कह कर वो हंस पड़ते हैं.

    आपका नाम क्या है? इस पर वो कहते हैं कि सारा खेल तो नाम का ही है. आपका नाम पूछना जायज़ नहीं है. 

    किसको वोट देंगे? वो तो हम बूथ पर जाकर ही सोचेंगे. हां, लेकिन इतना तय है कि जो बीजेपी को हराएगा हमरा वोट उसी को जाएगा.

    आगे बढ़ने पर एक ढाबे में कई लोग चाय पर चर्चा कर रहे थे. बिल्कुल चुनावी विश्लेषक की तरह यहां एंगल पर बातचीत चल रही थी. जातिय समीकरण का ख़ास लिहाज रखा जा रहा था. साथ ही इस बात पर भी लोगों ने ध्यान आकर्षित करवाया कि मीडिया वाला कन्हैया के पीछे पगला गया है. आख़िर क्या वजह है कि यहां नामाकंन गिरीराज सिंह और तनवीर हसन ने भी की. लेकिन किसी मीडिया ने नहीं दिखाया. यहां तक कि स्थानीय अख़बारों में भी नहीं छपा, जबकि वहीं आज का अख़बार देख लीजिए कन्हैया को कितना कवरेज मिला है. यहां मौजूद कुछ लोगों की शिकायत रवीश कुमार से भी थी —‘रवीश भी खेल कर गया. कन्हैया का तो भीड़ वाला भाषण दिखाया और तनवीर का पहिले का भाषण. ई तो बहुत ग़लत बात है.’

    महागठबंधन प्रत्याशी तनवीर हसन की जन-सभा

    मालपुर पंचायत के क़रीब 70 साल के एक बुजुर्ग का कहना है कि कन्हैया अभी लड़का है. पूरा ज़िन्दगी पड़ा है. इस बार भूमिहार लोग सीनीयर को जिताएगा. इसको अगले साल देखा जाएगा. 

    बता दें कि ज़्यादातर बुजुर्गों में इस बात की भी चर्चा है कि अगर गिरीराज सिंह चुनाव हारे तो एक भूमिहार नेता ख़त्म हो जाएगा. इसलिए इस बार उनका जीतना ज़रूरी है. वहीं भाजपा समर्थक बेगुसराय के वोटरों में इस बात का प्रचार करते हुए नज़र आ रहे हैं कि कन्हैया तो देशद्रोही है. सिर्फ़ मुसलमानों की बात कर रहा है. सारा मुसलमान उसके साथ है.    

    बेगुसराय के लोगों की यह भी शिकायत है कि मीडिया ने इस लड़ाई को गिरीराज बनाम कन्हैया बना दिया है. लेकिन सच्चाई ये है कि यहां सभी पार्टियों के उम्मीदवार अपने अपने एजेंडे के साथ चुनाव मैदान में उतरे हैं, लेकिन सबसे बड़ा सच ये है कि कामयाबी उसे ही मिलनी है जो पार्टी के जातीय समीकरण में फिट बैठेगा. वैसे भी बेगुसराय लोकसभा सीट से 21 उम्मीदवारों ने अपना नामांकन दाख़िल किया है.

    बता दें कि यहां भूमिहार वोट काफ़ी मायने रखता है. यहां अब तक सबसे ज्यादा भूमिहार उम्मीदवार ही जीतते आए हैं. पिछली बार ये बीजेपी के साथ खड़े थे, लेकिन इस बार किसका साथ देंगे, ये अब तक स्पष्ट नहीं है. यहां कुल 19 लाख वोटरों में क़रीब 19 फ़ीसद भूमिहार हैं.

    भूमिहारों के बाद मुसलमान वोटर भी मायने रखते हैं. यहां क़रीब 15 फ़ीसदी मुसलमान वोटर हैं. उसके बाद 12 फ़ीसदी यादव और 7 फ़ीसदी कुर्मी समुदाय के वोटर हैं. 

    यहां के जानकारों की मानें तो अब तक राजद के पास एमवाई समीकरण था, लेकिन इस बार महागठबंधन बनने की वजह से एक नया समीकरण बन गया है. अगर इस समीकरण ने साथ दिया तो मुक़ाबला स्पष्ट तौर पर गिरीराज सिंह व तनवीर हसन में होगा. लेकिन अगर कन्हैया मुसलमानों का वोट लेने में कामयाब रहे तो यक़ीनन उनका पलड़ा भारी पड़ सकता है. क्योंकि बेगुसराय का वो युवा वोटर अब तक उनके साथ खड़ा है, जो उसे ‘देशद्रोही’ नहीं मानता है. 

    अब तक के जो हालात हैं, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि बेगुसराय की सियासत बहुत टेढ़ी है. ऐसे में बेगुसराय में क्या कन्हैया अपनी जीत का परचम लहरा पाएंगे या फिर तनवीर हसन या गिरिराज सिंह के सर बंधेगी पगड़ी? ये 23 मई को आने वाला रिजल्ट ही बेहतर बता पाएगा, लेकिन यहां के लोगों से बात करके इतना तो तय हो गया है कि सोशल मीडिया की क्रांति से यहां के वोटर पर कोई ख़ास फ़र्क़ पड़ने वाला नहीं है. यहां के वोटर राजनीतिक रूप से परिपक्व हैं. और जिन लोगों को लगता है कन्हैया कुमार बोलने वाले नेता होंगे, उनके लिए 67 साल के संतोष साहेब का ये सन्देश— बेगुसराय के हर घर में एक कन्हैया है, बस उन्हें मीडिया, समाज या सिस्टम ने मौक़ा नहीं दिया है…

  • क्या मुसलमानों की गर्दन पर चाकू चलाकर कन्हैया को सुरक्षित किया जा रहा है?

    क्या मुसलमानों की गर्दन पर चाकू चलाकर कन्हैया को सुरक्षित किया जा रहा है?

    By Tarique Anwar Champarni

    मौसम के रूख के साथ राजनीति का रूख भी बदलना शुरू हुआ है. जैसे-जैसे सर्दी से बसंत की तरफ़ बढ़ रहे हैं, तापमान भी बढ़ता जा रहा है. मौसम के साथ-साथ चुनाव की तारीख़ों की घोषणा के बाद राजनीति का तापमान भी बढ़ना शुरू हुआ है. टिकट एवं सीट बंटवारे को लेकर बैठक पर बैठक हो रहे हैं. गठबंधन को लेकर भी उधेड़-बुन शुरू है. सभी जाति-विशेष के नेता एवं मतदाता अपनी प्रतिनिधित्व को लेकर बेचैन हैं. छोटी-छोटी पार्टियां दांवा ठोककर मज़बूती के साथ अपना प्रतिनिधित्व मांग रही हैं. लेकिन बिहार में लगभग 20 प्रतिशत की आबादी वाले मुसलमानों के प्रतिनिधित्व को समाप्त करने की लगातार कोशिश हो रही है.

    सबसे मज़ेदार बात बेगूसराय लोकसभा सीट को लेकर है. बेगूसराय लेनिनग्राद के नाम से मशहूर है. बेगूसराय क्षेत्र कम्यूनिस्ट पार्टी का गढ़ समझा जाता है. लेकिन यह एक भ्रम से अधिक कुछ भी नहीं है. अभी भी उसी भ्रम को आधार मानकर कम्यूनिस्ट पार्टी बेगूसराय पर अपनी दावेदारी पेश करती है. आज भी महागठबंधन में कम्यूनिस्ट पार्टी हिस्सेदार बनना चाहती है और बेगूसराय की सीट पर दावा ठोक रही है. जबकि बेगूसराय सीट मुसलमान समुदाय के हिस्से की सीट समझी जाती रही है. 

    पूर्व में जदयू से डॉ. मोनाज़िर हसन सांसद निर्वाचित हुए हैं. जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव में राजद की टिकट पर पूर्व विधान परिषद डॉ. तनवीर हसन मोदी लहर में भी मज़बूत लड़ाई लड़े थे. अभी महागठबंधन होने की स्थिति में कम्यूनिस्ट पार्टी की टिकट पर जेएनयू के पूर्व छात्रनेता कन्हैया कुमार की नज़र बेगुसराय सीट पर है. 

    अभी तक यह भ्रम फैलाया जाता रहा है कि बेगूसराय कम्यूनिस्ट पार्टी का गढ़ रहा है और इसलिए ही बेगूसराय को लेनिनग्राद के नाम से जानते है. मैं जब कम्यूनिस्ट पार्टी की बात कर रहा हूं तब सामूहिक रूप से सभी कम्यूनिस्ट पार्टी की बात कर रहा हूं. लेकिन स्वतन्त्रता से लेकर आज तक केवल 1967 के लोकसभा चुनाव में ही बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र से कम्यूनिस्ट पार्टी के योगेन्द्र शर्मा चुनाव जीतने मे सफल रहे थे. जबकि 1962 के लोकसभा चुनाव में मुस्लिम समुदाय से आने वाले अख़्तर हाशमी, 1971 के लोकसभा चुनाव मे योगेन्द्र शर्मा और 2009 के लोकसभा चुनाव मे शत्रुघ्न प्रसाद सिंह कम्यूनिस्ट पार्टी की टिकट से दूसरे स्थान पर रहे थे. 

    1977 के चुनाव में कम्यूनिस्ट पार्टी के इन्द्रदीप सिंह 72096 मत, 1998 में रमेन्द्र कुमार 144540, 1999 के चुनाव में सीपीआई (एमएएल) के शिवसागर सिंह 9317 और 2014 के लोकसभा चुनाव में कम्यूनिस्ट पार्टी के राजेन्द्र प्रसाद सिंह जदयु गठबंधन से 192639 मत प्राप्त करके तीसरे स्थान पर रहे थे. जबकि 1980, 1984, 1989, 1991, 1996, 2004 के लोकसभा चुनावों में कम्यूनिस्ट पार्टी बेगूसराय से अपना उम्मीदवार तक नहीं उतार सकी थी. फिर सवाल है कि बेगूसराय कम्यूनिस्ट पार्टी का गढ़ कैसे हो गया?

    बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत चेरिया बरियारपुर, साहिबपुर कमाल, बेगूसराय, मठियानी, तेघरा, बखरी और बछवाड़ा विधानसभा का क्षेत्र आता है. चेरिया बरियारपुर से केवल एक बार 1980 के विधानसभा चुनाव में कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के सुखदेव महतो विधायक चुने गए थे. साहिबपुर कमाल विधानसभा क्षेत्र से अभी तक एक बार भी कम्यूनिस्ट पार्टी चुनाव जीतने में सफल नहीं रही है. बेगूसराय विधानसभा क्षेत्र से आज़ादी के बाद से अब तक केवल तीन बार ही कम्यूनिस्ट पार्टी चुनाव जीतने में सफल रही है और आख़िरी बार कम्यूनिस्ट पार्टी के राजेन्द्र सिंह 1995 का विधानसभा चुनाव जीते थे. 

    मठियानी विधानसभा क्षेत्र से कम्यूनिस्ट पार्टी तीन बार चुनाव जीतने में सफल रही है लेकिन सन 2000 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद आज तक कम्यूनिस्ट पार्टी यहां से चुनाव नहीं जीत सकी है. तेघरा विधानसभा क्षेत्र में कम्यूनिस्ट पार्टी लगातार 2010 से ही विधानसभा का चुनाव हार रही है. कम्यूनिस्ट पार्टी का पूर्ण रूप से दबदबा केवल दो विधानसभा क्षेत्रों क्रमशः बखरी और बछवाड़ा पर रहा है. लेकिन बखरी सुरक्षित विधानसभा क्षेत्र से कम्यूनिस्ट पार्टी आख़िरी बार 2005 मे चुनाव जीतने में सफल रही थी. जबकि बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र से कम्यूनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार चार बार विधायक चुने गए हैं और आख़िरी बार 2010 का विधानसभा चुनाव जीतने में सफल रहे थे. 

    सबसे हास्यास्पद बात तो यह है कि वर्तमान विधानसभा में बिहार में कम्यूनिस्ट पार्टी के मात्र तीन विधायक हैं और तीनों में से एक भी बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र से जीतकर नहीं आते हैं. यानी 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले सात विधानसभा क्षेत्रों में से एक भी क्षेत्र से कम्यूनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार चुनाव जीतने में सफल नहीं रहे थे. प्रश्न फिर वही है कि जिस लोकसभा क्षेत्र में एक भी विधायक नहीं है वह कम्यूनिस्ट पार्टी का गढ़ कैसे हो गया?

    2014 के लोकसभा चुनाव में बेगूसराय से राष्ट्रीय जनता दल के उम्मीदवार डॉ. तनवीर हसन को कुल 369892 मत प्राप्त हुए थे. जबकि जदयु समर्थित कम्यूनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार राजेन्द्र प्रसाद सिंह को 192639 मत प्राप्त हुआ था. वही 2009 के लोकसभा चुनाव में कम्यूनिस्ट पार्टी के शत्रुघ्न प्रसाद सिंह को 164843 मत प्राप्त हुआ था. यदि कम्यूनिस्ट पार्टी द्वारा 2009 और 2014 में प्राप्त किए गए कुल मतों को एक साथ जोड़ भी देते है फिर भी डॉ. तनवीर हसन साहब द्वारा 2014 के मोदी लहर मे प्राप्त किए गए मतों से भी कम है.

    उपरोक्त आंकड़ें यह बताने के लिए काफ़ी है कि बेगूसराय कभी भी कम्यूनिस्ट पार्टी का मज़बूत क़िला नहीं रहा है. बल्कि पूर्वी चम्पारण (मोतीहारी), नालंदा, नवादा, मधुबनी, जहानाबाद इत्यादि ऐसे लोकसभा क्षेत्र हैं, जहां से दो या दो बार से अधिक कम्यूनिस्ट पार्टी के सांसद निर्वाचित हुए हैं. जबकि बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र से मात्र एक बार ही कम्यूनिस्ट पार्टी को सफलता प्राप्त हो सकी है. 

    लेकिन प्रश्न यह है कि आख़िर कम्यूनिस्ट पार्टी क्यों बेगूसराय की सीट ही लेना चाहती है? जब कम्यूनिस्ट पार्टी सामाजिक न्याय और समानुपातिक प्रतिनिधित्व को लेकर इतना चिंतित रहती है तब फिर क्यों बेगूसराय में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व को कुचलने का अथक प्रयास कर रही है? 

    एक तर्क है कि कन्हैया कुमार राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं, इसलिए बेगूसराय की सीट कम्यूनिस्ट के खाते से कन्हैया को मिलनी चाहिए. यह बात सही है कि कन्हैया कुमार राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं और कम्यूनिस्ट विचारधारा के ऊर्जावान पथिक है. वह जब राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं तब भारत के किसी भी क्षेत्र से चुनाव लड़ सकते थे. मोतिहारी, नवादा, नालंदा, मधुबनी, जहानाबाद तो कम्यूनिस्ट का गढ़ रहा है और पहले से भी पार्टी के सांसद निर्वाचित होते रहे हैं फिर बेगूसराय पर ही नज़र क्यों है? 

    अरविंद केजरीवाल दिल्ली से चलकर प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध बनारस चुनाव लड़ने आए थे. दलित नेता चंद्रशेखर आज़ाद पश्चिमी उत्तरप्रदेश से चलकर मोदी के विरुद्ध बनारस लड़ने का एलान कर चुके हैं. हार्दिक पटेल ने भी कुछ ऐसा ही मंशा ज़ाहिर किया है. फिर राष्ट्रीय स्तर के नेता कन्हैया कुमार मुसलमान समुदाय के हिस्से में जाने वाली सीट से ही चुनावी मैदान में उतरने के लिए क्यों उतावले है? क्या सिर्फ़ इसलिए कि मुसलमानों का समर्थन प्राप्त करके खुद की जीत सुनिश्चित कर सके? यानी कि मुसलमानों की गर्दन पर चाकू चलाकर कन्हैया को सुरक्षित किया जा रहा है. 

    (लेखक टाटा सामाजिक विज्ञान संस्था (TISS), मुम्बई से पढ़े हैं. वर्तमान में बिहार के किसानों के साथ काम कर रहे हैं.)