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अशिक्षा, आतंकवाद, गरीबी और मुसलमानों की तरक्की का रास्ता

Ameeque Jamei for BeyondHeadlines

भारत के मुसलमान दुनिया की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी हैं. खुद भारत में यह सेकूलर ताने-बाने को मज़बूत बनाये रखने की एक अहम कड़ी है. इन्हें दुनिया में साम्राज्यवाद के खिलाफ़ एक बड़ी ताक़त माना जाता है. आज़ादी पाने के बाद घोर सांप्रदायिक माहौल में भी मुसलमानों ने सेकुलर भारत को चुना और अपने बाप-दादा की मिट्टी को अपना वतन बनाया.

हजारों मजदूर किसान व मज़हबी उलेमा ने शहादतें दी. देश की फिरकावाराना हम आहंगी इनके बिना अधूरी मानी जाती है. भारत में सभी कौमों के साथ मिलकर रहना पसंद करते हैं.

खून से लथपथ आजादी की सुबह के साथ हमारा मुल्क खुशहाली की तरफ बढ़ा और नए भारत के रहनुमाओं ने उजड़े देश की तरक्की के लिए मिक्स इकोनॉमी का रास्ता चुना. इस राह में कम से कम  खेतिहर किसान मजदूर  खुश थे. लेकिन राजीव गांधी के गुज़रने के बाद मनमोहन सिंह की आर्थिक पॉलिसी ने भारत को सुपर पावर बनने का सपना दिखाया. सपने देखने में कोई बुराई नहीं, लेकिन जिन सपनों में देश के अधिकतर ग़रीब मजदूर व अल्पसंख्यक के हितों का ध्यान न हो, कभी कभार यह सपना अपना नहीं लगता.

2011 के आते ही कांग्रेस के लीडर राज्य सभा सदस्य अर्जुन सेन गुप्ता की कमेटी, जिसे देश की असली ताक़त यानी ग़रीबी अमीरी की प्रतिशत का पता करना था, ने बताया कि देश के 73 करोड़ लोग आज भी 8-20 रूपए पर गुज़र बसर करते हैं. मैं सोचता हूं  कि यह 73 करोड़ लोग कौन हैं? हिन्दू हैं? मुसलमान हैं? सिख है? ईसाई हैं? दिल पर हाथ रखकर जान लीजिएगा. इनका मज़हब ग़रीबी है.

जिनका मज़हब अमीरी था, उनके हाथ में देश की पूंजी का सबसे बड़ा हिस्सा आया. अम्बानी जैसों ने घरों पर ही हजारों करोड़ खर्च कर दिए. तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि भारत के 40 करोड़ लोगों को पूरी खुराक नहीं मिल पाती. एक दिन में 2 मजदूर महाजन के ज़ुल्म से मर जाते हैं. हर 1 घंटे में बेटी-बहन का बलात्कार होता है.

अमीरों का मज़हब तो विलासिता है लेकिन इन बेबसों को किस मज़हब से जोड़ा जाये. मज्लूमी, ग़रीबी, मुफलसी के अलावा इनका मज़हब कुछ नहीं. जानने की कोशिश करनी चाहिए कि इस मुल्क में 73 करोड़ लोगों या ‘मुसलमानों’ की समस्याएं क्या हैं. रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, रोज़गार और बराबरी का दर्जा.  सभी को समान अवसर चाहिए. सस्ती शिक्षा, रोज़गार या इसके लिए  सरकार कम दरों पर कम से कम क़र्ज़ दे.

चलिए आज खास तौर पर मुसलमानों की बात करते हैं. यूं तो मुसलमानों की कयादत करने के लिए हर पार्टी में सेल है. उनके नेता हैं. भारत में तकरीबन सैकड़ों फलाह बहबूद की बात करने वाली अंजुमने हैं. हर तरफ आप देखे तो टोपियां दाढ़ी में सजे हज़रात कौम की लडाई के लिए हर वक़्त तैयार रहते दिखते हैं. बहुत संघर्ष के मैदान में लड़ते भी हैं. लेकिन ज़मीनी लीडरशिप और काम न होने से बुनियादी मसले दब जाते हैं या रमजान की सियासी इफ्तार की पार्टियों तक तमाम हो जाते हैं.

यह इसलिए भी है कि मुसलमानों  का शिक्षित तबका सियासत को लानत भेजकर बड़ी गंदी चीज़ है दूर हो गया. जिससे मुसलमानों का बड़ा नुक्सान हुआ और खासकर वामपंथी विचार के मुसलमान राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रिय मुद्दों में व्यस्त हो गए. राजनीति में दौलत का खेल शुरू हुआ उसने और बेडा गरक किया. हमारे शिक्षित राजनीतिक लीडरों को वक़्त ही नहीं मिला कि ज़मीन पर जाते. उन्हें लगा की अगर उन्होंने मुसलमानों की बेहतरी की बात की तो कही ‘आईडेंटिटी राजनीति’ करने के आरोप न लगे, इसी का नतीजा हुआ  की राजनीति में बिल्डर माफिया, सरगना और अपराधियों के लिए रास्ते खुल गए. वो मुसलमानों को क्या देते या क्या दिया हम सबको मालूम है. लेकिन इमानदारी से हम प्रोग्रेसिव मुसलमानों की बदहाली की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए कि जिस तरह का हस्तक्षेप हमें करना था हम नहीं कर पाए. लेकिन अभी भी कोई देर नहीं हुई है.

मुसलमानों की समस्याए 

यूं तो मुसलमानों की समस्याएं तो आम नागरिकों की तरह एक जैसी हैं, लेकिन जिस तरीके से तालीम और तरक्की के मंसूबे को लेकर मुहीम चलानी चाहिए थी, वो नहीं हुई. जस्टिस सच्चर ने जिन समस्यायों को रेखांकित किया वो तो और भी हैरत अंगेज़ है.  उन्होंने बताया कि आर्थिक और सामाजिक रूप  से  पिछड़े मुसलमानों की हालत दलितों से बदतर है.  हुआ यह कि किसी कोने में राजनीतिक पार्टियों ने अल्पसंख्यक के नाम पर दफ्तर  तो खोल दिए लेकिन मुसलमान नौजवानों को बुनियादी सरकार की योजनाओं के बारे में जानकारी साझा करने जैसे बुनियादी काम में नहीं लगाया गया.

नतीजा यह हुआ कि मज़लूम मुसलमानों के नाम का फंड फाइलों में ही खत्म हो गया और राजनीतिक पार्टियों के अल्पसंख्यक सैल के कार्यकर्ता चाय की चुस्कियां लेते रहे.  यदि आरटीआई के ज़रिये फंड की अवेलिबिलिटी पता की गई होती और ज़रूरत मंदों को उसके बारे में जानकारी दी गई होती तो शायद हालात कुछ और हो सकते थे.

राजनीतिक पार्टियों को राज्य / ज़ोन / जिला / ब्लोक / गाँव की स्तर पर कार्यकर्ताओं की मुस्तैद टीम बनानी चाहिए थी ताकि वो तमाम सरकारी योजनाओं का फायदा जरूरतमंदों तक पहुंचा सकते.

जो फॉर्म नहीं भर सकते थे उनके लिए कमेटी में फार्म भरने के एक्सपर्ट होते. ब्लॉक और जिला स्तर पर हजारों फॉर्म करवाए जाते.  इसके बाद भी अगर उन्हें इसका फायदा न पहुंचता तो ज़मीन पर अवाम को संघर्ष में उतार दिया जाता. क्योंकि लाल-फीताशाही कौम किसी की भी नहीं है. जाहे वो दलित हो या मुस्लमान.  जब तक उन्हें घूस न मिले किसी स्कीम के बारे में ये बताते भी नहीं.

विधायक और लोकसभा सांसद के कुछ एक चमचों को इसका फायदा पहुंच जाता है. लेकिन ग़रीब बेरोजगार मुफलिसों को तो खुद पहाड़ खोदना है. इसलिए किसी आसमानी मदद का इंतज़ार न करते हुए कुछ क़दम हम सब उठाना होगा.

हुकूमत की गाँव से लेकर शहर  तक की स्कीमें, मसलन आंगनवाडी में गर्भवती महिलाओं और उसके बच्चे के लिए दी जाने वाली फ्री खुराक जिससे बच्चा सेहतमंद पैदा हो. नरेगा के तहत साल में 150 दिन का काम, बुजुर्गो और बेवाओं के लिए पेंशन, गांव के लिए सोलर बिजली, एसएचजी के तहत मुर्गा और मछली पलने की स्कीम, 1 से 12 तक के बच्चों की किताब के लिए 700 रूपए तक के वजीफे और लड़कियों की खुदमुख्तारी के लिए सिलाई मशीन वगैरह का दिया जाना, स्कूल कालेज और हॉस्टल खोलने के लिए केंद्र सरकार की मौलाना आज़ाद फाउंडेशन की स्कीम से मदद.

ऐसी बहुत सी योजनाएं के बारे में जानकारी केंद्र सरकार के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने प्रकाशित की है,  जिसमे मुख्तलिफ फॉर्म भी दस्तयाब है.  अगर पहली किस्त में सिर्फ सरकार के  ‘मल्टी सेक्टरल डेवलपमेंट प्रोग्राम’  के तहत देश के 90 जिले को ही तरजीह देकर युद्ध स्तर पर शुरू किया गया तो मुसलमानों को उनके बुनियादी हुकूक के बारे में पता चलेगा और उनमें तालीम और सियासी बेदारी आयेगी.

कौमी बेदारी आने के बाद वो किसी बिल्डर माफिया के लिए अपने वोट को जाया नहीं करेंगे और उनमे सेकूलर लोकतान्त्रिक सरकारों के प्रति विश्वास और मज़बूत होगा.

राज्य प्रायोजित आतंकवाद 

बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद देश में पहली बार बीजेपी  सत्ता में आई. सत्ता में आते ही इज़राइल और अमरीका की नीतियों को भारत में लागू किया गया. दुनिया में अमरीका के चेले बिन लादेन के नाम पर आतंकवाद के खिलाफ़ लडाई को इंडिया में भी इम्पोर्ट किया गया.

नरसिम्हा और अटल सरकार ने इजराइली ख़ुफ़िया एजेंसियों को यहां घुसने की इजाज़त दी और बाबरी मस्जिद शहादत के बाद  सेकूलर ताकतें जैसे ही कमज़ोर पड़ गईं.  बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी को अन्दर  से बीजेपी का समर्थन हासिल था और यह लडाई  बीजेपी को फायदा पहुंचाने के लिए सांप्रदायिक तरीके से लड़ी गई.  एक बार फिर बीजेपी सत्ता में आई और ऐसा माहौल देश में बनाया गया कि हर मुसलमान आतकंवादी लगे.

सैकड़ों नौजवान पकडे जाने लगे. कोई  श्री आडवाणी को तो कोई  श्री अटल बिहारी वाजपेयी की जान लेने के लिए घूम रहा था. इसके बाद गुजरात नरसंहार हुआ और राज्य प्रायोजित सांप्रदायिक हिंसा में सैकड़ों बेगुनाह मारे गए. मोदी सरकार ने अपनी ही पुलिस से गुजरात दंगों के बाद अनगिनत मुसलमान नौजवानों के फर्जी एनकाउंटर करवाए.  पढ़ने के लिए शहर आए नौजवान तालीम छोड़ अपने घरों को वापस जाने लगे.

कई साल बाद अनगिनत  मामलों में  अदालतों ने यह पाया है एटीएस और स्पेशल सैल के नाम से बनी पुलिस टीमों ने र्मिक भेदभाव और सांप्रदायिक नज़रिए से मुसलमान नौजवानों को फंसाया और क़त्ल किया या कत्ल करने की कोशिश की.

मदरसों की ब्रांडिंग आतंक की फैक्ट्रियों के रूप में की गई. पत्रकार पुलिस के स्टेनोग्राफरों की तरह काम करने लगे. नतीजा यह हुआ कि हर दाढ़ी वाले शख्स को अपने अंदर एक आतंकी नज़र आने लगा.

आज मुसलमान इस मुद्दे पर खुलकर बात तक करना नहीं चाहते. वो  सिर्फ सेकुलर हुकूमत के सामने इन्साफ की गुहार लगा रहे है .  बटला हाउस एनकाउंटर मामले में देश के  मुसलमानों ने सिर्फ न्यायिक जांच की मांग की थी लेकिन दिल्ली और केंद्र की कांग्रेस हुकूमत ने आजतक इसे नहीं माना. मुसलमान नौजवानों में ‘सेन्स आफ फियर’ को ख़त्म किए और ‘सेन्स आफ बिलांगिंग’पैदा किए बिना उन्हें देश की तरक्की की कोशिशों में शामिल नहीं किया जा सकता.

झूठे मामलों में  फंसाए गए नौजवानों के लिए कानूनी मदद और पीड़ित परिवार का साथ देना  क्या समाज और  सरकार की जिम्मेदारी नहीं है? अधिकतर राज्यों में इन नौजवानों को न्यायालय में अपना केस तक तक लड़ने नहीं दिया जाता.  लखनऊ का मामला इसका ताजा उदाहरण है.

इस समस्या को खत्म करने के लिए वामपंथी इंसाफपसंद  वकीलों को भी अपना योगदान देना होगा.  साथ ही जो मुल्क के सेकुलर ताने-बाने को तोड़कर माहौल खराब करने की कोशिश करने वाली आंतरिक और बाहरी ताकतों के खिलाफ़ एकजुट होकर लड़े बिना देश को तरक्की के रास्ते पर नहीं ले जाया जा सकता. वक्त की ज़रूरत उन ताकतों की पहचान करने की भी है जो हिंदू और मुसलमानों के बीच नफरत पैदा करती हैं और अपने राजनीतिक और आर्थिक फायदे के लिए उनकी भावनाओं का इस्तेमाल करती हैं. इन ताकतों के खात्मे के बिना एक बेहतर भारत का सपना नहीं देखा जा सकता. और इस सच को भी नहीं नकारा जा सकता कि मुसलमानों की तरक्की के बिना देश की तरक्की मुमकिन नहीं है.

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