By Afroz Alam Sahil
बिहार का गौरव रहे मौलाना मज़हरूल हक़ की निशानियां अब मिटने के कगार पर हैं. उनकी अपनी ही ज़मीन पर उन्हें अजनबी क़रार दिया जा रहा है. यह ज़मीन बिहार विद्यापीठ की है, जिसकी नींव खुद मौलाना मज़हरूल हक़ ने डाली थी. उनकी कोशिशों के बदौलत एक ज़माने में यह विद्यापीठ तालीम का मशहूर केन्द्र बनकर उभरा था, मगर प्रशासन की लापरवाही और उपेक्षा ने यहां की तस्वीर ही बदल डाली है.
ये वही विद्यापीठ है, जिसका विधिवत् उद्घाटन 6 फरवरी, 1921 को मौलाना मुहम्मद अली जौहर और कस्तूरबा के साथ पटना पहुंचे महात्मा गांधी ने किया था.
मौलाना मज़हरूल हक़ इस विद्यापीठ के पहले चांसलर थें, तो वहीं ब्रजकिशोर प्रसाद वाईस-चांसलर और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद प्रिन्सिपल बनाए गए. इस विद्यापीठ में जो पाठ्यक्रम अपनाया गया वो अंग्रेज़ों द्वारा विश्वविद्यालयों में अपनाई गई नीतियों से काफी अलग था. इस नई पद्धति में यह व्यवस्था की गई थी कि छात्रों की शैक्षिक योग्यता तो बढ़े ही, साथ ही उनमें बहुमुखी प्रतिभा का भी विकास हो, उनमें श्रम की आदत भी पड़े, उन्हें कोई काम छोटा या बड़ा न लगे. उनके अंदर सामाजिक कुरीतियों के विरूद्ध भावना जगे ताकि वे सुव्यवस्थित नए समाज की बुनियाद बन सकें.
लेकिन आज आलम यह है कि यहां मज़हरूल हक़ को जानने वाले उंगलियों पर गिनने भर ही बचे हैं. नई पीढ़ी को तो उनके बारे में पता ही नहीं. यहां मौलाना के नाम पर सिर्फ़ एक लाईब्रेरी है और इसी लाईब्रेरी में पढ़ने वाले छात्रों को यह नहीं पता कि मौलाना मज़हरूल हक़ कौन हैं?
नई पीढ़ी की कौन कहे? यहां तो पुरानी पीढ़ी में भी मौलाना मज़हरूल हक़ से अनभिज्ञ ही है. लाईब्रेरी में काम करने वाले पवन कुमार से पूछने पर वो मुस्कुरा देते हैं और कहते हैं कि –‘अरे… अंदर सर से पूछ लीजिए, वो ही उनके बारे में बताएंगे.’
असिस्टेंट लाईब्रेरियन स्वाती रानी मज़हरूल हक़ के नाम से स्थापित इस लाईब्रेरी को पूर्व राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद की निजी लाईब्रेरी बताती हैं. उनका कहना है कि –‘यह दरअसल राजेन्द्र प्रसाद की निजी लाईब्रेरी है. यहां उनकी 16 हज़ार किताबें मौजदू हैं.’
वो बताती हैं कि –‘हक़ साहब राजेन्द्र प्रसाद के सहयोगी थे. शायद यह ज़मीन उन्होंने दिया था, इसीलिए 2001 में इस लाईब्रेरी का नाम को उनके नाम पर रख दिया गया.’
दिलचस्प बात यह है कि मज़हरूल हक़ के नाम पर मौजूद इस लाईब्रेरी में कुल 29,807 किताबें हैं, लेकिन मज़हरूल हक़ पर यहां सिर्फ़ दो किताबें ही मौजूद हैं, वो भी मूल-प्रति नहीं बल्कि छाया-प्रति… यानी कुल मिलाकर यह लाईब्रेरी भी महज़ एक रस्मी कसरत मालूम पड़ती है. सच तो यह है कि न तो उनकी विरासत को सहेजने की कोशिश की गई और न ही इस दिशा में कोई भी योजना तैयार की गई है. यह कितना अजीब है कि बिहार की शिक्षा को एक नया मुक़ाम देने वाले मज़हरूल हक़ की विरासत आज अतीत के खंडहरों में दफ़न होकर रह गया है.
बिहार विद्यापीठ से जुड़े अजय आनन्द बताते हैं कि –‘बिहार विद्यापीठ ट्रस्ट के तहत वर्तमान में ‘देशरत्न राजेन्द्र प्रसाद शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय’ व ‘गांधी कम्प्यूटर शिक्षा एवं प्रसारण तकनीकी संस्थान’ चलाया जा रहा है. इसके अलावा इस ट्रस्ट के तहत राजेन्द्र स्मृति संग्रहालय, ब्रजकिशोर स्मारक प्रतिष्ठान और मौलाना मज़हरूल हक़ स्मारक पुस्तकालय चलाया जा रहा है.’
गौरतलब रहे कि राजेन्द्र प्रसाद की 130वीं जयंती समारोह के अवसर पर दिसम्बर, 2015 में राज्यपाल रामनाथ कोविंद भी एक कार्यक्रम में इस ट्रस्ट का हाल जानने पहुंचे थे. इस दौरे में उन्होंने बिहार विद्यापीठ को राज्य का ऐतिहासिक स्थान बताते हुए इसे तीर्थस्थल बनाने की सलाह दी थी.
उनका स्पष्ट तौर पर कहना था कि –‘प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद बारह सालों तक राष्ट्रपति भवन में रहने के बाद यहां दो कमरे की कुटिया में आकर रहे. यहां राष्ट्रपिता गांधी जी भी आ चुके हैं. इसलिए विद्यापीठ को तीर्थ-स्थल बनाना चाहिए, ताकि यहां आकर लोग ज्यादा से ज्यादा महापुरुषों के बारे में जानकारी ले सकें.’
पटना विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग से बिहार विद्यापीठ पर शोध कर रहे संजीव कुमार का कहना है कि –‘जहां तरफ़ गुजरात और काशी विद्यापीठ एक विश्वविद्यालय के रूप में काम कर रहे हैं, वहीं बिहार विद्यापीठ अपने प्रांरभिक स्वरूप को भी खो चुका है.’
मौलाना मज़हरूल हक़ निशानियों की यह हालत कई सवाल खड़े करती है. उस दौर में जब अल्पसंख्यक तबक़े से ताल्लुक़ रखने वाले नौजवानों के लिए तालीम एक बड़ी चुनौति है, इन निशानियों का मिटना और भी गहरी चिंता पैदा करता है.
हक़ साहब बिहार के शान थे. सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि वो उनकी विरासत को आम जन तक ले जाए और आने वाली पीढ़ी को उनके योगदान से वाक़िफ़ कराए. मगर अफ़सोस की बात यह है कि सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही है.
कौन थे मौलाना मज़हरूल हक़?
गांधी के शब्दों में –‘मज़हरूल हक़ एक निष्ठावान देशभक्त, अच्छे मुसलमान और दार्शनिक थे. बड़े ऐश व आराम की ज़िन्दगी बिताते थे, पर जब असहयोग का अवसर आया तो पुराने किंचली की तरह सब आडम्बरों का त्याग कर दिया. राजकुमारों जैसी ठाट-बाट वाली ज़िन्दगी को छोड़ अब एक सूफ़ी दरवेश की ज़िन्दगी गुज़ारने लगे… वह अपनी कथनी और करनी में निडर और निष्कपट थे, बेबाक थे. पटना के नज़दीक सदाक़त आश्रम उनकी निष्ठा, सेवा और करमठता का ही नतीजा है. अपनी इच्छा के अनुसार ज़्यादा दिन वह वहां नहीं रहे, उनके आश्रम की कल्पना ने विद्यापीठ के लिए एक स्थान उपलब्ध करा दिया. उनकी यह कोशिश दोनों समुदाय को एकता के सुत्र में बांधने वाली सिमेंट सिद्ध होगा. ऐसे कर्मठ व्यक्ति का अभाव हमेशा खटकेगा और ख़ास तौर पर आज जबकि देश अपने एक ऐतिहासिक मोड़ पर है, उनकी कमी का शिद्दत से अहसास होगा.’
महात्मा गांधी मज़हरूल हक़ के लिए ये शब्द उनके देहावसान पर संवेदना के रूप में 9 जनवरी, 1930 को यंग इन्डिया में लिखा था.
वहीं प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद अपनी आत्म-कथा में लिखते हैं कि –‘मज़हरूल हक़ के चले जाने से हिन्दू-मुस्लिम एकता और समझौते का एक बड़ा स्तंभ टूट गया. इस विषय में हम निराधार हो गए…’