शाहिद कबीर
सुबह सुबह मेरे फोन की घंटी बजी. “तुम्हें ग़ालिब का किरदार करना है…”
मैं सकपका गया. यह क्या माजरा है. मुझे बताया गया कि ग़ालिब की भूमिका करने वाले कलाकार की तबियत खराब हो गई है. दो दिन बाद शो है. मैं कुछ पलों के लिए अपने अंदर ‘हाँ-न’ करता रहा. दो तीन सैकंड में मैंने इस चुनौती को कुबूल कर लिया. मगर बाद में अहसास हुआ कि ग़ालिब जैसे तारीख़ी किरदार को दो दिन में आत्मसात करना आसान नहीं था. मैं इस फ़िक्र में मुब्तला था कि अचानक फिर से फोन की घंटी बजी और उसी रोज रिहर्सल के लिए बुलाया गया.
वहाँ बड़े बड़े दिग्गज मौजूद थे. रमेश तलवार, इकबाल नियाजी, ऍम एस सथ्यू, कुलदीप सिंह, रमन कुमार, अनजान श्रीवास्तव, शुलभा आर्य, नवेदिता, अखिलेश मिश्रा, आसिफ शैख़ सरीखे बहुत से बड़े नाम उस नाटक से जुड़े थे. सुबह से दोपहर तक रिहर्सल हुई. सभी लोगों ने अलग अलग मशवरे दिए और कहा गया की उठते बैठते, आते जाते सिर्फ़ अपनी लाइनें याद करो.
मैं ट्रेन में बैठ कर स्क्रिप्ट पढ़ने लगा. खुश किस्मती से उस रोज़ सन्डे था. ट्रेन में ज़्यादा भीड़ नहीं थी. मैं नाटक का वो सीन पढ़ रहा था, जिसमें मिर्ज़ा ग़ालिब को कुछ वजीफ़ा मिलता है तो जनाब सारे पैसे की शराब खरीद लाते हैं. बेगम जब मालूम करती हैं कि आप तो सारे पैसे की शराब खरीद लाये, खाना कहाँ से आएगा. ग़ालिब का जवाब था कि खाने का वादा तो अल्लाह मियाँ ने किया है बेगम, मगर इसका इंतज़ाम तो हमें ही करना होगा. मैं ये संवाद दोहरा रहा था कि अचानक ट्रेन अँधेरी रेलवे स्टेशन पर रुक गई.
मैं वहाँ से बाहर आया. बाहर बहुत तेज धूप थी. गर्मी और लोगों की भीड़ से दिल घबरा रहा था. ऑटो रिक्शा और बेस्ट की बसों ने जैसे सड़कों पर आतंक मचा रखा था. पीं-पाँ के शोर से पडी आवाज़ सुनाई न देती थी. लोगों को देख कर ऐसा लगता था मानो पूरी दुनिया यहीं जमा हो गयी है. मैं भीड़ से बचते बचाते हुए रास्ता बनाते हुए नाटक के संवाद याद करते हुए आगे निकलने की कोशिश कि अचानक पीछे से किसी ने मेरी शर्ट का पल्ला पकड़ कर खींचा.
मैंने मुड़कर देखा. मेरे सामने एक बच्चा खड़ा था. उसकी चिपचिपी आँखों से जारो-कतार आँसू बह रहे थे. मुंह से बार बार एक ही बात निकल रही थी –अंकल मुझे भूख लगी है, अंकल मुझे भूख लगी है. मैं जल्दी जल्दी भीड़ को चीरता हुआ वहाँ से जैसे तैसे निकलने की कोशिश कर रहा था. मगर उस बच्चे ने मेरी शर्ट का पल्ला नहीं छोड़ा, यहाँ तक कि मैं एक ऑटो रिक्शा से टकराते टकराते बचा. मैंने सड़क पार कर उससे कहा, “बेटा मेरे पास खुले पैसे नहीं हैं”. मगर वह नहीं माना. मेरे पास एक सौ का नोट था. मैंने उसे दिखाते हुए कहा, “देख एक ही नोट है और मुझे घर जाना है, और यहाँ कोई खुले नहीं देगा”. अचानक उसका रोना बंद हो गया. उसने आस्तीन से आंसू साफ़ कर के हँसते हुए अपनी पॉकेट में हाथ डाला और दस दस रुपए के नौ सिक्के मेरे हाथ पर रख दिए. सौ का नोट लेकर बोला, “अंकल ! गिन लीजिए पूरे नब्बे हैं. और तेज कदमों से दौड़ता हुआ भीड़ में घायब हो गया. मैं खड़ा देखता रहा. जब तक मैं कुछ कहता तब तक वह घायब हो चुका था.
एक ऑटो रिक्शा मेरे पास आकर रुका. मैं उसमें बैठ गया और मिर्ज़ा ग़ालिब का वह वाक़िया याद करने लगा जब उन्होंने अपनी बेगम से कहा था कि रोटी का वादा तो अल्लाह मियाँ ने किया है बेगम मगर ‘मय’ का इंतज़ाम तो हमें ही करना होगा.
मेरे होंठों पर बरबस मुस्कुराहट दौड़ गई. ऑटो रिक्शा तेज़ी से रोटियों के पीछे सड़क पर दौड़ रहा था.
(लेखक मुंबई में फिल्म निर्देशन और इप्टा से जुड़े हैं, इसके अलावा अपना खुद का एक ‘कबीरा’ थियेटर ग्रुप भी चला रहे हैं.)