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बसंती याद है! तांगे को भूल गए…

अफ़रोज़ आलम साहिल

क्या आपने कभी तांगा देखा है… क्या कहा नहीं देखा? अरे वही तांगा जिस पर पुरानी हिंदी फिल्मों में हीरो शान से चलता था. अब भी नहीं पहचाने, तो ज़रा शोले के सीन याद कीजिए… बसंती के याद आते ही आपको तांगा भी याद आ जाएगा. सवाल यही है कि बसंती तांगे वाली तो याद है लेकिन तांगा कैसे जहन से उतर गया? कभी शान की सवारी होने वाला तांगा आज न सिर्फ अपनी पहचान बल्कि अस्तित्व ही खोने की कगार पर है.

बिहार और उत्तर प्रदेश के कई छोटे-छोटे कस्बों में तांगा आज भी चलता है. टूरिस्ट स्थलों पर भी अक्सर तांगा दिख जाता है लेकिन जिंदगी की सड़क से यह गायब हो गया है.

मैं इन दिनों गांधी के सत्याग्रह की भूमी ‘चम्पारण’ में हूं. कहा जाता है कि जब पहली बार गांधी कलकत्ता से चम्पारण आ रहे थे, तो आजादी के दीवानें गांधी को रिसीव करने मुजफ्फरपुर चले गए और गांधी को वहां से तांगे पर बैठा कर लाया गया. फर्क यह था कि जिस तांगे में गांधी बैठे थे उसे घोड़े की जगह आजादी के दीवाने खींच रहे थे.

लेकिन यह सब अतीत की बातें हैं. समय के साथ सब कुछ बदलता जा रहा है. बिहार का यह चम्पारण ज़िला भी काफी बदल चुका है. तांगे के बदले लोग टेंपो व मोटरगाड़ी का प्रयोग कर रहे हैं. इस कारण तांगेवालों की हालत खस्ता हो गई है. हालांकि सड़कों पर घोड़े की टाप अभी भी सुनाई देती है, लेकिन तांगे वालों का जो रूतबा पहला था, अब वो नहीं रहा.

तांगा चालक मो. लतीफ कहते हैं कि पहले लोगों को जल्दी नहीं होती थी, हमें उचित किराया भी मिल जाता था. पर क्या करें जब से शहर में टेम्पों चला है तब से घोड़े का खर्च निकालना भी मुश्किल हो गया है. भोला राम मायूस होकर बताते हैं कि अब तो किसी दिन बोहनी भी नहीं होती. रमेश कुमार कहते हैं कि गरीबी के कारण पढ़ाई लिखाई छोड़कर तांगा चलाने को विवश हैं, पर अब लोग पैसे देने की बात तो दूर उचित सम्मान भी नहीं देते.

वर्षों तक तांगा चलाकर जीवन यापन करने वाले अब बेकार हो गये हैं. उनके पास अब कोई दूसरा काम भी नहीं है. आलम यह कि अब उन्हें दो जून की रोटी जुटाने में भी कठिनाई हो रही है. जबकि कभी इसी से उनके परिवारों की जिंदगी संवरती थी. तब लोग तांगे की सवारी शान से करते थे. पर अब तेज़ रफ्तार जिंदगी में तांगा पीछे छूट गया है.

नौतन के नरेन्द्र राम ने अपने दरवाजे पर घोड़ा पाल रखा है. पहले तांगे की शान हुआ करता था, अब शाम में घुड़-दौड़ किया करता है. घोड़े के लिए भोजन जुटा पाना भी नरेन्द्र के लिए अब मुश्किल हो गया है. किशुनबाग के अब्दुल रहमान (70) जो वर्षो तक तांगा चलाया करते थे पर अब बैठकी के शिकार हो गए हैं. बैरिया के मो. सलाउद्दीन अब भी तांगा चलाकर अपना और घोड़े की परवरिश में लोगों का इंतजार करते हैं. छावनी के झून्ना लाल के लिए आज भी टांगा ही जीवन यापन का सहारा है.

चम्पारण के एक स्थानीय बुजुर्ग गुलाम रसूल बताते हैं कि तांगा गाड़ी हमारी एक ऐतिहासिक धरोहर है, औऱ ऐसा न हो कि विकास के इस अंधी जंग में हमारी यह धरोहर इतिहास के पन्नों में शामिल हो जाए. स्थानीय पत्रकार पवन कुमार पाठक बताते हैं कि पिछले दिनों पटना जंक्शन के परिसर में पिछले 83 वर्षों से खड़े खूबसूरत तांगा पड़ाव को महज दो घंटे में जमींदोज कर दिया गया. और आज वहां मोटरगाड़ियां लगती हैं. जबकि अंग्रेज यात्री इसी रास्ते का प्रयोग करते थे और तांगे या बग्घी पर सवार होकर अपने गंतव्य पर जाते थे. किन्तु तब वहां बग्घियों के लिए कोई पड़ाव नहीं था. महाराज दरभंगा सर रामेश्वर सिंह ने जमीन खरीद कर पटना जंक्शन के परिसर में इस पड़ाव का निर्माण करवाया. इसके छत में लगनेवाली खूबसूरत लाल टाईल, इलाहाबाद की जगमल कंपनी से मंगवाई गयी थी. यह कंपनी टाइलें बनाने के लिए मशहूर थी. यह बहुत ही खूबसूरत पड़ाव बना था. सन् 1928 के नवम्बर महीने में लार्ड इरविन के हाथों इस पड़ाव का उद्घाटन करवाया गया था.

बिहार के तमाम तांगे वालों की पीड़ा यह है कि नीतिश सरकार ने बहुत सारी योजनाओं की उदघोषणाएं की हैं पर इनके उत्थान के लिए कोई योजना नहीं बनाई गई है. इनके अनुसार इन लोगों को उम्मीद है कि आज नहीं तो कल सूबे के मुखिया की नजर इन पर पड़ेगी और इनके घावों पर भी मरहम लगेगा.

वक्त की रफ्तार में तांगा भले ही पीछे रह गया है लेकिन आज भी यह ग्रामीण क्षेत्रों में यातायात का महत्वपूर्ण साधन है और यदि तांगे को बचाने के लिए सरकार की ओर से कोई विशेष स्कीम आई तो इसका अस्तित्व बचाया जा सकता है.

20 जून से ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में ग्लोबल अर्थ समिट है. इस समिट के दौरान विश्व के पर्यावरण को बचाने पर गहन विचार विमर्श होगा. विकास की दौड़ में अंधी दुनिया के नेताओं से यह उम्मीद नहीं की जा सकती की वो तांगे जैसे प्रदुषण रहित यातायात साधनों को बचाने पर जोर देंगे. जहां सबकुछ रफ्तार हो गया है वहां धीमी चीजों को शायद ही महत्व दिया जाए. लेकिन यदि हम अपने स्तर पर शुरुआत करके ग्रामीण क्षेत्रों में तांगे के परिवहन को बचा लेते हैं तो निश्चित ही कार्बन उत्सर्जन में थोड़ी ही सही लेकिन कमी ज़रूर आएगी.

बिहार के चंपारण में ही नहीं पूरे देश में तांगे वाले दुर्दशा का शिकार है. टूटी-फूटी सड़कों, कच्चे रास्तों पर लोगों को परिवहन सुविधा उपलब्ध करवाने वाले इस वंचित वर्ग के लिए यदि समय रहते कोई योजना बन गई तो ज़रूर ही वक्त की रफ्तार में पीछे छूटी इस पीड़ी का विकास हो सकता है.

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