अफ़रोज़ आलम साहिल
भ्रष्टाचार के खिलाफ अंतिम लड़ाई आज जंतर-मंतर पर बड़े ज़ोर शोर से चल रही है. भ्रष्टाचार के खिलाफ़ इस लड़ाई में पूर्व की भांति आज भी मीडिया अपनी ज़बरदस्त भूमिका निभा रही है. ऐसा लग रहा है कि मानो मीडिया इस देश से अब भ्रष्टाचार को खत्म करके ही दम लेगी. लेकिन सोचने की बात यह है कि खुद मीडिया में जो व्याप्त भ्रष्टाचार है, उसे कौन खत्म करेगा? क्या टीम-अन्ना के पास मीडिया के खिलाफ एक भी शब्द बोलने की हिम्मत है? शायद नहीं.!
अगर मेरी मानिए… तो सबसे ज़्यादा भ्रष्ट आज हमारी यही मीडिया है और भ्रष्टाचार की मूल जड़ भी… मीडिया ही वो संस्थान है, जो अपने लोगों को भ्रष्टाचार करने की ट्रेनिंग देती है. दलाली करना ज़बरदस्ती सिखाया जाता है, बल्कि मजबूर किया जाता है. ऐसे में जब तक देश की जनता मीडिया के भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन नहीं करेगी तो इस देश से भ्रष्टाचार खत्म करने की बात बेमानी होगी.
मीडिया में जो उपरी लेबल पर मामले सेट होते हैं, उसकी तो बात ही छोड़ दीजिए. छोटे स्तर पर होने वाली दलाली की भी एक अदभुत दास्तान है. बेचारे छोटे स्तर के पत्रकार शायद ऐसा करने पर मजबूर हैं. क्योंकि अगर वे दलाली नहीं करेंगे… ब्लैक मेलिंग नहीं करेंगे तो शायद वो पत्रकारिता की बदौलत जिन्दा भी नहीं रह सकेंगे. क्योंकि मालिकों की तरफ से मिलना वाला पैसा इतना पर्याप्त नहीं है कि वो महंगाई के इस दैर में अपने दो वक्त का गुज़ारा कर सके. और फिर उन्हें समाज में, अपने गली-मुहल्ले में अपने पत्रकार होने का धौंस भी तो दिखाना है.
आपको जानकर हैरानी होगी कि आज दिल्ली व मुंबई जैसे शहरों में एक दिहाड़ी मजदूर भी छोटे स्तर के पत्रकारों से ज्यादा पैसा कमा लेता है. शहरों की बात तो छोड़ ही दीजिए, गांव में भी अब मजदूर महीने 9-10 हज़ार रूपये कमा ले रहे हैं, लेकिन मैं दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में कई ऐसे पत्रकारों से मिल चुका हूं, जो सिर्फ और सिर्फ महीने की 4 से 5 हज़ार ही पाते हैं. कई तो ऐसे हैं जो मुफ्त में काम कर रहे हैं, और कईयों को अपना पैसा खर्च करके काम करना पड़ता है. यह एक कटु सत्य है, जिस पर शायद किसी को यकीन न हो.
मेरे आंखों में उस वक़्त आंसू आ गए, जब मैंने अपने एक पत्रकार मित्र की एक साल की प्रगति रिपोर्ट देखी, जिसे उन्होंने खुद ई-मेल के माध्यम से मुझे भेजा था. वो लिखते हैं कि “आज एक साल का नया अनुभव.16 जुलाई 2011 से —— टीवी में Assistant Producer. सैलरी 6500 मासिक तय, लेकिन ESI कटता है तो कम मे संतोष करना पड़ता है. आफिस आने जाने मे 5 घंटे लगते हैं. 9.30 घंटे न्यूज रुम मे रहता हूं. आफिस आने जाने का किराया 64 रुपये प्रतिदिन. नौकरी करने से पहले 6200 रु. कमरे का किराया बाकी था. 5000 चुकता कर दिया…. ” (नोट: आगे की बातें मैं यहां नहीं लिख सकता, क्योंकि हम यह नहीं चाहते कि मेरी वजह मेरे दोस्त की नौकरी खतरे में पड़ जाए.)
मेरे कुछ दूसरे साथियों की कहानी तो और भी भयावह है. और अफसोस कुछ पत्रकार मित्र दलाली के मैदान में पूरी तरह से रम गए हैं, और खुशहाल हैं. मध्य-प्रदेश के हमारे एक मित्र बताते हैं कि “ यहां हर महीने तीन से चार नए इलेक्ट्रानिक मीडिया के दफ्तर खुलते हैं जो प्रदेश के बाहर से संचालित होते हैं और कुछ ही महीनों बाद बंद हो जाते हैं. यहां 60 प्रतिशत चैनलों व पेपरों में दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी काम कर रहे हैं. कुछ जगहों पर तो मनरेगा से भी कम मजदूरी दी जाती है. यहां पत्रकारों का इतना बुरा हाल है कि अब युवाओं को पत्रकारिता से नफरत होने लगी है. पत्रकारिता की गुणवत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां पैसा देकर कोई भी समाचार छपवाया जा सकता है. यदि इस संबंध में कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए तो मध्य प्रदेश में पत्रकारिता का भविष्य ही खतरे में पड़ सकता है.”
दूसरे राज्यों की कहानी तो मध्य प्रदेश से भी भयावह है. मीडिया के हालात का अंदाज़ा आप इस बात से भी लगा सकते हैं कि थोड़े-बहुत प्रसिद्ध हो चुके न्यूज़ चैनल के साथ-साथ ए.एन.आई. जैसे न्यूज़ एजेंसियों में पत्रकारों की शुरूआती सैलरी 5 से 8 हज़ार के बीच है. यही नहीं, इन पत्रकारों से तीन साल का बांड भरवाया जाता है. हैरानी की बात तो यह है कि इन्हें नियुक्तिपत्र भी नहीं दिया जाता. और आमतौर पर न्यूनतम 10 घंटे और अधिकतम 14-15 घंटे तक काम करवाया जाता है. समय पर वेतन नही मिलता. पी.एफ आदि नही कटता. मेडिकल आदि की कोई सुविधा नही है. कैंटीन में ढंग का खाना नही मिलता. नतीजा, अधिकांश पत्रकारों को गंभीर बीमारियां जकड़ लेती हैं. और फिर बेचारे इन पत्रकारों को छुट्टियाँ भी नहीं मिलती हैं. बीमारी आदि के कारण लंबी छुट्टी लेने का मतलब नौकरी से छुट्टी है.
देश की प्रसिद्ध न्यूज़ एजेंसी यूएनआई की हालात तो और भी बुरी हैं. इस एजेंसी की दशा यह है कि यहां के पत्रकारों और कर्मचारियों को पिछले आठ महीने से वेतन मिलने में भी भारी दिक्कत हो रही है. यूएनआई से जुड़े सूत्रों का कहना है कि असल में यूएनआई के साथ न सिर्फ उसके सदस्य मीडिया समूह बल्कि सरकार भी सौतेला व्यवहार कर रही है. अब यहां सरकार का सौतेला व्यवहार तो समझ में आता है, लेकिन मीडिया समूह की सौतेला व्यवहार मेरे समझ से परे है. खैर, ऐसा नहीं है कि सरकार ने बिल्कुल ही मुंह फेर लिया है, बल्कि वो काफी हद तक मदद भी कर रही है, जिसका लाभ यूएनआई के बड़े पदों पर आसीन अधिकारी व पत्रकार उठा रहे हैं. क्योंकि मेरे द्वारा 2010 में दाखिल किए गए एक आरटीआई के मुताबिक प्रसार भारती को पिछले 6 वर्षों में 8364.19 करोड़ की धन-राशि केन्द्र सरकार ने उपलब्ध कराई थी. PTI को प्रसार भारती ने पिछले दस वर्षों में 66,83,06,757 रूपये और UNI को 51,71,06,505 रूपये दिए हैं. आपको जानकर हैरानी होगी कि प्रसार भारती सचिवालय के रोकड़ विभाग द्वारा पिछले 5 सालों में विज्ञापन पर 2,76,06,500 रूपये खर्च हुए हैं, जिसका सीधा लाभ यूएनआई व पीटीआई के बजाए दूसरे मीडिया समूह को हुआ है.
पत्रकारों की समस्याओं व उनके दलाली व भ्रष्टाचार की अनगिनत दास्तान हैं, जिन्हें अगर मैं सुनाने लगा तो शायद आप रो पड़ें. पर इन दास्तान को सुनाने का कोई फायदा नहीं है. क्योंकि मीडिया में जो बड़े दलाल बैठे हैं, उन्हें छोटे पत्रकारों की इन समस्याओं से कोई लेना देना नहीं है. कार्पोरेट्स जगत के मालिकों ने इन्हें बड़ी क़ीमत पर खरीद कर हमेशा के लिए इनका मुंह चुप करा दिया है.
कितनी अजीब बात है कि पड़ोसी व गरीब देश के पत्रकार हमसे ज्यादा खुशहाल हैं. अब आप पाकिस्तान को ही लीजिए… पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने अख़बारों में काम करने वाले कर्मचारियों और पत्रकारों के लिए बने सातवें वेतन बोर्ड को लागू करने के लिए समाचार पत्रों के मालिकों को आदेश दिया है. लेकिन हम भारतीय पत्रकार आज भी मजीठिया वेतन बोर्ड के 35 प्रतिशत वेतन वृद्धि की सिफारिश लागू देखने के लिए तरस रहे हैं.
स्पष्ट रहे कि साल 1955 में भारत में अख़बारों और पत्रिकाओं में काम करने वाले पत्रकारों और अन्य कर्मचारियों के श्रमिक हितों की रक्षा के लिए भारत सरकार ने वर्किंग जर्नलिस्ट विधेयक पारित किया था. इस विधेयक में प्रावधान दिया गया था कि पत्रकारों का वेतन निर्धारित करने के लिए समय समय पर वेतन बोर्ड का गठन किया जाना चाहिए. विधेयक पारित होने के बाद नियमित रूप से वेतन बोर्ड का गठन होता रहा जिसके तहत वेतन में संशोधन के अलावा पत्रकारों की दूसरी मांगों का ख्याल रखा गया. लेकिन 1994 के बाद एक लंबे अंतराल के बाद 2007 में जी आर मजीथिया की अध्यक्षता में वेतन बोर्ड का गठन किया गया. बोर्ड ने 2010 में श्रम मंत्रालय को अपने सुझाव भेजे जिसमें पत्रकारों के वेतन में लगभग तीन गुना बढ़ोतरी की मांग के अलावा रिटायरमेंट की उम्र को 65 साल निर्धारित करने की भी बात कही. लेकिन अफसोस कि कुछ अख़बारों के मालिकों ने इन सुझावों का कड़ा विरोध किया और सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी दायर कर कहा कि इन सुझावों को सरकार अधिसूचित न करे.
पत्रकारिता के ध्वजवाहक ऐसे ही मालिकों के व्यवसायिक हितों का शिकार होकर रह गए हैं. नई पौध को भी इसी व्यवसायिकता और कार्पोरेट लेनदेन का पाला मार गया है. टीम अन्ना ऐसे मामलों में खामोश ही रहेगी क्योंकि इसी बिक चुकी, सरोकार विहीन और कार्पोरेट मीडिया से उसका भी काम निकलना है. सवाल यही है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? फिलहाल इस सवाल का कोई जवाब नहीं दिख रहा है.