राजीव कुमार झा
आज 11 जुलाई है. प्रख्यात साहित्यकार ‘तमस’ के लेखक तथा प्रेमचंद की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले कथाकार, उपन्यासकार, पत्रकार, नाटककार और कलाकार भीष्म साहनी की पुण्यतिथि… तब 11 जुलाई 2003 को शुक्रवार था और स्थान दिल्ली…
बड़ी उत्सुकता के साथ उन पर कोई आलेख पढ़ने के लिए आज कई अख़बार खरीदा. पहले दैनिक जागरण पटना शुरू किया. फ्रंट पेज… संपादकीय पेज… फिर प्रादेशिक… फिर स्थानीय… बारी बारी से सारे पेज खंगाल डाला पर भीष्म साहनी कहीं नहीं !!!
फिर एक एक कर बढ़ती धडकनों और उत्सुकता के साथ हिन्दुस्तान, आज, प्रभात खबर, राष्ट्रीय सहारा, सन्मार्ग, कौमी तंजीम… सारे पत्र खंगाल डाले. भीष्म साहनी कहीं नहीं. अब द हिंदू, अमर उजाला, दैनिक भास्कर, पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका, जनसत्ता हमारे यहां तो नहीं आती, उसे आप देख लेना. उम्मीद है उनमें किसी न किसी ने, कुछ न कुछ ज़रुर लिखा होगा. बिहार से निकलने वाला ज्यादातर समाचार-पत्रों में कहीं कुछ नहीं दिखा. चलिये मान लेते हैं पत्रकारिता बहुत कमर्शियल और प्रायोजित हो गई हैं किन्तु इन पत्रों में नियमित संपादकीय लिखने वाले साहित्यकारों, विद्वानों और वरिष्ठ पत्रकारों को भला क्या हुआ.
आज अचानक याद आया कि एक बार मैंने साहित्य जगत के अमूल्य निधि उदय प्रकाश पर एक आलेख अपने सीनियर ब्यूरो चीफ को दिया था. आलेख नहीं छपा और यह ठीक उसी समय हुआ था, जब हिन्दुस्तान के मुख्य पृष्ठ पर एक ख़बर आई थी कि… “कवि जी का कुत्ता बीमार”
अब मैं यहां कवि जी का नाम लेना उचित नहीं समझता. बस इसे एक उदाहरण के तौर पर लेना चाहता हूँ. खैर अगले दिन बातचीत के क्रम में मेरे ब्यूरो ने पूछा कि ये उदय प्रकाश कौन है? तो हम उनका मुंह ताकते रह गए… अब उदय प्रकाश, भीष्म साहनी, मुक्तीबोध, यात्री, शमशेर बहादुर सिंह, धूमिल, बालकृष्ण भट्ट आदि के बारे में भी जिसे कुछ पता नहीं हैं, वह भी समाचार पत्रों के कार्यालय में ब्यूरो चीफ बनकर बैठा है. ऐसे में इन जुगडिया पत्रकारों से भीष्म साहनी के बारे में कुछ लिखने की आशा कैसे की जा सकती है. सारी आशा तो स्थापित पत्रकारों से ही है, जो सम्पादकीय लिखा करते हैं. लेकिन यह आशा भी जाती रही. और आज भीष्म साहनी पत्रों में सिंगल कॉलम भी नहीं ले पाए. कहाँ जा रही है हमारी सोच? कहाँ जा बैठा है यह साहित्य समाज?
आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रमुख स्तंभों में एक भीष्म सहनी का जन्म रावलपिंडी पाकिस्तान में 8 अगस्त 1915 में हुआ था. प्रेमचंद की परम्परा को आगे बढाने में अगर किसी साहित्यकार का नाम लिया जाएगा तो निःसंदेह साहनी पहले नाम होंगे. ये कहना उचित होगा कि भीष्म साहनी पर लिखा थोड़ा-बहुत ज़रुर गया है पर उन्हें समझा बहुत कम ही गया है. वामपंथी विचारधारा वाले भीष्म मानवीय संवेदनाओं से जुड़े और समाज से सरोकार रखने वाले शान्ति-प्रिय और बेदाग़ छवि वाले थे. साहनी ने नाटक, पत्रकारिता, कहानी, लोक गीत और उपन्यास लेखन में अपनी लेखनी चलाई.
एक ऐसे समय में जब साहित्य जगत किसी ना किसी वाद के पचड़े में पड़ा हुआ था, साहनी ने किसी वाद को अपने ऊपर हावी ना होने दिया. पिता श्री हरिवंश लाल, माता लक्ष्मी देवी, बड़े भाई (मशहूर फिल्म कलाकार) बलराज साहनी के प्यारे साहनी उर्दू, संस्कृत, हिंदी, पंजाबी भाषा के उद्द्घ्ट विद्वान थे. इनकी प्राथमिक शिक्षा घर पर ही हुई. स्कूल में उर्दू और संस्कृत की शिक्षा प्राप्त करने के बाद 1937 में गवर्नमेंट कालेज लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. तथा 1958 में पंजाब यूनिवर्सिटी से पी.एच.डी. की उपाधि हासिल की. अध्ययन में रूचि रखने वाले साहनी ने आजादी के पूर्व अवैतनिक शिक्षक के तौर पर काम भी किया. जहां तक उनकी कृतियों का प्रश्न है उन्होंने भाग्य रेखा, पहला पाठ, भटकती राख, पटरियां, शोभायात्रा, निशाचर, मेरी प्रिय कहानियाँ, अहम ब्रह्म भस्मामी, अमृतसर आ गया, चीफ की दावत (सभी कहानी), झरोखे, कड़ियाँ(1970), तमस(सर्वाधिक प्रसिद्ध कृति-1973), बसंती, मायादास का माडी, कुन्तो, नीलू नीलिमा निलोफर (सभी उपन्यास), हानुस(1977), कबीरा खड़ा बाजार में (1985), माधवी (1985), गुलेल का खेल, मुवावजे (1993) (सभी नाटक) के अतिरिक्त पहला पथ, भटकती राख, पाली, दयां, आज के अतीत जैसी कालजयी रचना कर अपनी सशक्त रचना का प्रमाण दिया.
एक ऐसे समय में जब सेक्स सम्बन्धी विकृतियों, अत्रिप्तियों, भोग और कामोन्माद पर एक के बाद एक (मृदुला गर्ग का चितकोबरा, श्रीकांत वर्मा का दूसरी बार, राजकमल की मरी हुई मछली(1966), महेंद्र भल्ला का एक पति के नोट्स, गोविन्द मिश्र की वह अपना चेहरा, यश पाल की क्यूँ फंसे उपन्यासों की आवाजाही हो रही थी, भीष्म साहनी ने मानवीय संवेदना और विभाजन की त्रासदी को बिलकुल गहराइयों से महसूस कर तमस जैसी कालजयी रचना की.
साहनी का उपन्यास कड़ियाँ(1970) बच्चे के मन की टूट और दहाड़ को सफलता पूर्वक उजागर करती है जो मन्नू भंडारी के “आपका बंटी” से मेल खाता है. हालांकि डॉ नगेंद्र के शब्दों में- “बच्चों के मन की टूट और दहाड़ के अंकन में भीष्म साहनी को वैसी सफलता नहीं मिली है जैसी मन्नू भंडारी को मिली (हिंदी साहित्य का इतिहास -पेज 764).” किन्तु मेरा मानना है कि दोनों ही उपन्यासकार अपने अपने मक़सद में कामयाब हुए हैं. बस दोनों उपन्यासकारों के विषयिक मापदंडों और कैनवास में थोड़ा अंतर है बावजूद इसके “कड़ियाँ” की सफलता पर सवालिया निशान नहीं लगाया जा सकता है.
डा. नगेन्द्र ने सातवें आठवें दशक में लिखे नाटकों के बारे में कहते हैं- साहनी का कबीरा खडा बाजार में, रमेश उपाध्याय का पेपरवेट, कुसुम कुमार का रावण… नाटकों की रंगमंचिए सफलताओं ने हिंदी दर्शकों की चेतना को काफी दूर तक बदलने का कार्य किया है. कथ्य की दृष्टि से हाल के इन नाटकों की गिनती से यह बात धुप की तरह साफ़ है कि इन नाटकों में राजनितिक सामाजिक और व्यक्तिगत अनुभव के कई स्तर एक साथ उभरें हैं (पृष्ठ 749).
साहनी के नाटकों में कितना दम था यह अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी नाटकों का निर्देशन एम.के.रैना और और अरविन्द गौड़ ने किया.
साहनी विभाजन के बाद भारत कैसे रह गए यह भी अपने आप में अजब संयोग है. हुआ यह था कि साहनी दिल्ली में स्वतंत्रा समारोह देखने के लिए कि लाल किले पर पंडित नेहरू कैसे झंडा फहराएंगे, हिन्दुस्तान की आजादी का जश्न कैसा होगा और इस इरादे से कि वह दस दिन में लौट जायेंगे भारत आये थे. लेकिन दिल्ली आने पर पता चला कि भारत से पाकिस्तान के लिए जाने वाली गाडियां बंद हो गई हैं. बस साहनी यहीं रह गए.
बी.बी.सी को 2 दिसंबर 2002 को पुणे में दिए गई एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था “विभाजन की त्रासदी के लिए हम सब जिम्मेवार हैं. अंग्रेज जिम्मेवार है. एक दूसरे से अलग किया गया. यह मानी हुई बातें हैं. आम आदमी नहीं चाहता कि फसाद हो, हिंसा हो. आम आदमी चैन से जीना चाहता है. आराम से एक दूसरे के साथ रहना चाहता है …”
साहित्य की कृति पर आधारित तमस धारावाहिक काफी चर्चित रही थी. उनके बसंती उपन्यास पर भी धारावाहिक बना था. उन्होंने मोहन जोशी हाजिर हो, कस्बा और मिस्टर एंड मिसेज ऐय्यर फिल्म में अभिनय भी किया था. लोक गीतों से उन्हें विशेष लगाव था. भीष्म साहनी ने मशहूर नाटक भूत की गाडी का सफल निर्देशन भी किया था. उन्हें 1975 में तमस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1975 में हीं पंजाब सरकार द्वारा शिरोमणि लेखक सम्मान, 1970 में लोटस पुरस्कार, 1983 में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार और 1998 में पद्मभूषण पुरस्कार मिला. लोक गीतों और लोक जीवन के मर्मज्ञ साहनी जी की साहित्यिक धारा काफी उर्वर है.
नयी कहानियाँ पत्रिका का लगभग ढाई वर्षों तक (1965-67) तक उन्होंने सफल संचालन किया. इसी समय वे प्रगतिशील लेखक संघ एवं अफ्रो एशियाई लेखक संघों से संबद्ध हुए. प्रेमचंद, गोर्की और यशपाल की तरह साहनी भी साहित्य को जीवन के लिए अनिवार्य मानते हैं. साहनी के लेखनी की सबसे विशेषता यह रही कि उन्होंने अपने कृतियों में कभी भी अपना पांडित्य प्रदर्शन नहीं किया. उनकी प्रत्येक कृति सामान्य जनता को ध्यान में रख कर लिखी गई है. साहित्य अकादमी से पुरस्कृत इनकी कृति तमस की कुछ पंक्तियाँ यहाँ गौर करने लायक है- “सुनते हैं सूअर मारना बड़ा कठिन काम है. हमारे बस का नहीं होगा हुजूर. खाल-बाल उतारने का काम तो कर दें मारने का काम तो पिगरी वाले हीं करते है…”
साहनी ने कितनी सरलता से समाज का कितना बड़ा सच नत्थू से उगलवा दिया है. यह खासियत थी साहनी की लेखनी में कि पढ़ते वक्त आपको कोई शब्दकोष देखने की जरुरत नहीं पड़ेगी, जनता के बीच का साहित्यकार इसे ही कहते हैं. विभिन्न कालेजों और विश्वविद्यालयों के वैसे समस्त प्राध्यापकों को जो अधिक से अधिक हिंदी के कठिन से कठिन शब्दों का प्रयोग कर खुद को बहुत बड़ा विद्वान समझ कर हिंदी का बेडा गर्क कर रहें हैं. साहनी, उदय प्रकाश जैसे जनता के बीच के लेखकों के जीवन और उनकी लेखनी से सीख लेनी चाहिए.
एक ऐसे समय में जब साहित्य, उच्चतर शिक्षा और पत्रकारिता पर संकीर्णता हावी होती जा रही है भीष्म साहनी का जीवन और उनकी साहित्यिक कृतियाँ निश्चित रूप से नयी पीढ़ी का ना केवल मार्गदर्शन करेंगी, बल्कि ऊर्जा भी देंगी.
(लेखक बिहार विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर से पत्रकारिता में शोधछात्र हैं, उनसे cinerajeev@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)