Latest News

पहले मार खाओ, फिर भारी-भारी शब्द

राजीव कुमार झा

जुम्मे का दिन है. बारह बजे के बाद का समय. गांव है बिहार के ढाका प्रखंड का सपही. मुस्लिम बहुल इस गांव के सारे लोग नमाज़ पढ़ने गए हैं. ठीक उसी समय एक विवाद और झगड़े को लेकर स्थानीय प्रशासन अभियुक्त के घर पहुंचती है. वहां बस एक युवती अंगूरी बेगम है और उसकी बूढी मां.

पुलिस अंगूरी को जबरन उठा कर जीप में बैठाती है और थाने ले आती है. मां के विरोध और हल्ला करने पर गालियों से उसकी जुबान बंद कर दी जाती है. एक युवा स्थानीय पत्रकार वहां पहुंचता है. सब कुछ जानने के बाद वह थाने में जाता है. इधर नमाज़ खत्म होने के बाद लोग घर आते हैं, फिर यह ख़बर पाकर सब आग बबूला हो जाते है. सभी थाने पहुंचते हैं. लोगों का रुख देख थाने के सभी पुलिसकर्मी कमरे में बंद हो जाते हैं. लोग लगातार थाने के इन्चार्ज से अंगूरी को इस तरह से उठा कर ले आने का कारण जानना चाह रहे हैं. तब तक पताही थाना सी.आर.पी.एफ.को इसकी ख़बर दे दी जाती हैं. अर्ध-सैनिक  बल आते हीं लोगों का स्वागत लाठियों से करना शुरू कर देती है. कमरे में बंद पुलिस अब शेर की तरह बाहर निकलते हैं. धक्का खाता वह पत्रकार अभी वहीं है. पुलिस अपनी बंदूकों की बेतों से निर्दोष लोगों को लहू लुहान कर रही है.

 

मारने के क्रम में हीं उनकी हाथों से बंदूकें छूट जातीं हैं और उनके पंजे फट जाते हैं… खैर, पत्रकार अपनी रिपोर्ट भेजता है जिसका मूल आशय मैं बताना चाहूंगा… “पुलिस ने अकेली मुस्लिम लड़की को बिना किसी ठोस सबुत के ऐसे वक्त में जब ग्रामीण जुम्मे की नमाज़ अता कर रहे थे, थाने के लॉकअप में बंद करके मानवता को न केवल तार तार किया है… बल्कि निर्दोष  लोगों पर बंदूकों की बेंत और लाठियां बरसाकर अपनी गुंडागिरी का पुख्ता प्रमाण भी दिया है…”

पब्लिक को अपने पत्रकार पर पूरा भरोसा है… सभी इन्तजार में हैं कि कल पुलिस की काली करतूतों का भांडा फोड़ हो जाएगा. बहरहाल, कल रिपोर्ट छप कर आती है. यहां उसका भी मूल आशय समझाना जरुरी है. ‘अभियुक्त की गिरफ्तारी से गुस्साए लोगों ने पुलिस चौकी पर किया हमला… चार जवान घायल… घायल जवान को सदर अस्पताल भेज दिया गया है…”

अब समाचार पढ़ कर पत्रकार अवाक… जनता अवाक… सब पत्रकार से कुछ कुछ पूछने लगते हैं… वह बस यही कहता फिरता है… मैं नहीं हूं पत्रकार… मैंने नहीं भेजी कोई ख़बर… ऐसे लगता है जैसे उदय प्रकाश का “मोहनदास” बोल रहा हो… मैंने नहीं किया बी.ए… कोई गोल्ड मेडल नहीं मिला है मुझे. मुझे नहीं करनी नौकरी. कार्यालय को फोन करने पर उलटे पत्रकार को झाड़ मिलती है… कहा जाता है… बेवकूफ पेपर अंगूरी बेगम के बाप के कारण नहीं चलता है.

यह पूरी कहानी या रपट आपको किसी किताब की भूमिका जैसी लगेगी. पर इसकी ओट में मैं कहना कुछ और चाह रहा हूं. इन खबरों के पीछे छुपकर अगर आप यहां बिहार के स्थानीय पत्रकारिता को देखेंगे तो आपको पता चलेगा की यहां पत्रकारिता अब चाटुकारिता में बदल चुकी है. ऐसे बदलाव शायद आपको अन्य राज्यों में भी देखने को मिलें.

इन दिनों बिहार में पत्रकारिता की जो स्थिति है,  खास कर ग्रामीण इलाकों में वह किसी गंदे नाले से कम नहीं है. जिस तरह से आज की पत्रकारिता बदल रही है वह हास्यास्पद हीं नहीं बल्कि गंभीर चिंता का विषय है. लाखों लोग सुबह-सुबह जिस समाचार पत्र के लिए अब भी टकटकी लगाए रहते हैं, उन अधिकांश पत्रों के प्रबंधक सोशल नहीं, कमर्शियल होते जा रहे हैं. लिहाज़ा, पत्रकारिता अपने  मूल उद्देश्य से भटक रही है या फिर ऐसा कहें की वह ट्रैक लेस हो गई है.

याद कीजिए सन 1836 में समाचार चंद्रिका की मात्र 250 प्रतियां छपती थीं, समाचार दर्पण की 298, बंगदूत की 70 से भी कम, पूर्ण चंद्रोदय की 100 ज्ञानेनेशुं की 200. 1839 में कोलकाता से यूरोपियनों के 26 पत्र निकलते थे. जिनमे 6 दैनिक थे औए 9 भारतीय पत्र थे. इन चंद पत्रों ने सन 57 की क्रान्ति के पूर्व व बाद में जो अविस्मरणीय  भूमिका  निभाई उसने पत्रकारिता को समाज, देश और आत्मा की स्वतंत्रता का कवच तथा पत्रकार, संपादक को देश का एक सजग प्रहरी बना दिया. जहां तक क्रांतिकारी आंदोलन का सवाल है भारत का क्रान्तिकारी आंदोलन बंदूक की नोक और बमों की विस्फोट के बल पर नहीं बल्कि समाचार पत्रों से शुरू हुआ.

निःसंदेह यह सिपाही विद्रोह से कहीं अधिक अखबार. पत्र विद्रोह था. गौरवशाली पत्रिका युगान्तर जिसका प्रकाशन श्री अरविन्द घोष के अनुज किया करते थे की आजादी के लिए गोरों के बिच दहशत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब समाचार पत्रों द्वारा अपराध भडकाने सम्बन्धी कानून के अंतर्गत इसे बंद कर दिया गया तो चीफ जस्टिस सर लारेंस पैकिम्सन ने इस पत्र के बारे में कहा था- इनकी हरेक पंक्ति से अंग्रेजों के प्रति विष टपकता है. हरेक शब्द से क्रान्ति के लिए उतेजना झलकती है. तब समाचार पत्रों की गरिमा और इसकी महता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है. भारत का कोई ऐसा प्रांत नही था जिसने रास्ट्रीयता का प्रचार करने वाले पत्रों और पत्रकारों को जन्म न दिया हो. जिस समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ संपादकों की कितनी प्रतिष्ठा थी. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब श्रीमती एनी बेसेंट ने 1915 में कांग्रेस का इतिहास “हाउ इंडिया गौट फ्रीडम” नाम से लिखा तो उसमे पत्रकारों/संपादकों/पत्रों-ज्ञानप्रकाश, मराठा, केसरी, नव विभाकर, इंडियन मिरर, नाथेन, हिन्दुस्तानी, ट्रिबुन, इंडियन यूनियन, इंडियन स्पेक्टेटर, इंदु प्रकाश, हिंदू और क्रिसेंट आदि और इनके संपादकों पत्रकारों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की. 1934 में बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी प्रदीप निकाली और पत्रकारिता को आम लोगों से जोड़ कर एक नया ट्रेंड बनाया. अर्थाभाव से जूझते हुए भी तीस वर्षों तक अपने जीवन पर्यंत इसका सफल संचालन भी किया. उनकी यह हिम्मत आज के अर्थ लोलुपी संपादकों, प्रकाशकों और पत्रकारों के समक्ष एक चुनौती है.

आज इलेक्ट्रौनिक मीडिया का टारगेट टी.आर.पी. बढ़ाना और प्रिंट मीडिया का टारगेट विज्ञापन जुटाना हो गया है. बिहार के पत्रकारिता की सर्वाधिक दुर्दशा है. पैसा और अप्रोच के बल पर शराब की दूकान चलाने वाले, नेतागिरी करने वाले और तस्करी करने वाले भी यहां समाचार पत्रों में पत्रकार बने हुए हैं. इन पत्रकारों के पास न तो पत्रकारिता का कोई इल्म है न ही कोई तरीका. बस जुगाड़बाजी और अधिक से अधिक विज्ञापन देकर ये डेढ़ अक्षरी लोग भी पत्रकार बन गए हैं.

ये इसी पत्रकारिता का कारण है कि बेगुनाह अंगूरी हवालात में होती है और उसकी रिहाई की मांग करने वाले पहले लाठी खाते हैं और फिर मुलजिम बन जाते हैं.

(लेखक बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर से पत्रकारिता में शोध छात्र है, जिनसे cinerajeev@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)

Loading...

Most Popular

To Top

Enable BeyondHeadlines to raise the voice of marginalized

 

Donate now to support more ground reports and real journalism.

Donate Now

Subscribe to email alerts from BeyondHeadlines to recieve regular updates

[jetpack_subscription_form]