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जाति मनुष्य के मरने के बाद भी नहीं जाती!

अब्दुल हफ़ीज़ गाँधी 

समाज में अक्सर लोग बराबरी और सभी के एक जैसे होने की बात कहते मिल जायेंगे पर यदि हम इन बातों को इतिहास की दृष्टि से देखें तो यह बातें और दावे खोखले और सच से परे मिलेंगे. यह हकीक़त सिर्फ भारत के सन्दर्भ में ही नहीं, बल्कि दुनिया के दूसरे देशों के बारे में भी उतनी ही कड़वी है. भारतीय समाज ने मनुष्य को जन्म के आधार पर बाँटना सदियों पहले शुरू कर दिया था. इस बंटवारे में किसी को समाज के शीर्ष पर रख दिया गया और किसी को निचले पायदान पर. इसी के आधार पर मनुष्य की सामाजिक हैसियत और स्थान का फैसला किया जाने लगा.

हर मनुष्य जिंदा रहने के लिए खाना खाता है, साँस लेता और अपने जीवन को आगे बढाने के लिए अपनी सुरक्षा के हर संभव इंतजाम करता है. कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति तो मनुष्य को जीने और रहने के बराबर अवसर प्रदान करती है, लेकिन पैदा होते ही समाज मनुष्य को जातियों में बाँट देता हैं और जाति को ही समाज में व्यक्ति के बड़े या छोटे होने का मापदंड बना देते हैं. यह विडम्बना नहीं तो क्या है? यह विडम्बना समझ के हर पैमाने से परे है. कई बार सोचता हूँ कि मनुष्य पैदा तो एक ही तरीके से… तो फिर उसको पैदा होते ही उसे अलग-अलग जात और बिरादरियों में क्यों बाँट दिया जाता है? पैदा होते ही धर्म और जाति की चादर नवजात को उड़ा दी जाती है. यह सब तब होता है जब उसे यह मालूम भी नहीं होता कि धर्म और जाति के क्या मायने है.

इस तरह नवजात के साथ-साथ जाति भी फलती-फूलती चली गयी और समाज द्वारा बनाई गयी यह व्यवस्था धीरे-धीरे अपनी जड़े मजबूत करती चली गयी. जातिगत व्यवस्था के कारण शोषण भी संस्थागत होते चला गया. इसी जातिगत व्यवस्था के तहत छोटी कही जाने वाली जातियों के लोगों को सदियों से शिक्षा से दूर रखा गया. जाति से ही समाज में सम्मान और स्थान निर्धारित किया जाने लगा. परिणाम यह हुआ कि नीची कही जाने वाली जातियों के लोग समाज में पिछड़ते चले गए.

इतिहास साक्षी है कि जाति प्रथा के कारण समाज अगड़ों और पिछड़ों में, अमीरों और गरीबों में तथा  तथाकथित पवित्र  और अपवित्र लोगों में बंट गया. समाज में सम्मान का हक़ भी जातियों से जोड़ दिया गया. अगर आप समाज में निचले पायदान पर रखी गयी जाति से समंध रखते हैं तो सम्मान आप भूल ही जायें. ऐसी स्तिथि समाज में पिछले हजारों सालों में निर्मित हुई जो आज तक चली आ रही है. भारत ने स्वतंत्रता तो हासिल कर ली और हमें संविधान में बराबरी का अधिकार भी दे दिया पर हकीक़त यह है कि समाज में अभी भी जाति प्रथा का प्रभाव है. हाँ! यह प्रभाव पिछले 65 सालों में कम ज़रूर हुआ है पर पूरी तरह मिटा नहीं है. इसमें आई कमी के पांच मुख्य कारण शिक्षा का प्रसार-प्रचार, औद्योगीकरण, शहरीकरण, तकनिकी विकास और संवैधानिक  अधिकार का मिलना हैं.

ऐसा नहीं है कि इस प्रथा के खिलाफ़ लोगों ने आवाज़ नहीं उठाई. यदि हम इतिहास पर नज़र डालें तो पाएंगे कि सभी धर्मों ने जाति प्रथा के खिलाफ़ बात कही है, क्योंकि यह प्रथा अपने आप में ही शोषण करने वाली थी. इसलिए इसके खिलाफ़ कुछ उदार और आधुनिक सोच रखने वाले समाज सुधारकों ने आवाज़ उठाई और इसके खात्मे की बात की.  नारायण गुरु, पेरियार, ज्योतिबाफुले और अंबेडकर ने तो इस प्रथा के खिलाफ सार्थक अभियान चलाये और लोगों में इस प्रथा को ख़त्म करने के लिए एक सोच पैदा की. अंबेडकर की किताब ‘Annihilation of Caste ‘ यानी ‘जाति का खात्मा’ एक मज़बूत चोट थी इस प्रथा के ऊपर.

हिन्दू धर्म के मानने वाले कुछ समाज सेवियों ने जाति प्रथा के खिलाफ़ एक लम्बी लडाई लड़ी. परन्तु भारत में दूसरे धर्मों के मानने वालों में जाति-प्रथा के खिलाफ कम संघर्ष और मुहीम देखने को मिलती हैं. हालाँकि इन दुसरे धर्मों के मानने वालों में इस प्रथा के खिलाफ कहीं-कहीं संघर्ष देखने को मिलता है, पर उतनी मज़बूती से नहीं जितनी मज़बूती से बाबासाहेब अंबेडकर ने इसके खिलाफ़ मुहीम चलाई थी. सही मायनों में देखा जाये तो इस्लाम, सिख, बुद्ध और ईसाई धर्म जाति-प्रथा के समर्थक नहीं हैं. इन धर्मों में बराबरी के सिधांत को मूल माना गया है. यह सभी धर्म जाति-प्रथा के खिलाफ़ बोलते हैं और उसूलन जाति का समर्थन नहीं करते. इस्लाम धर्म में तो आखिरी रसूल ने अपने अंतिम खुतबे में यहाँ तक कहा है कि किसी अरबी को किसी गैर-अरबी पर और किसी गैर-अरबी को किसी अरबी पर, किसी गोरे को किसी काले पर और किसी काले को किसी गोरे पर कोई महत्त्व हासिल नहीं होगा. यानी सब मनुष्य बराबर हैं. इसी तरह सिख, बुद्ध और ईसाई धर्म उसूलन बराबरी पर आधारित हैं. लेकिन हकीकत में जियादातर लोग जाति-प्रथा के समर्थक मिलेंगे. मेरी समझ से बात बाहर है कि जब यह सभी धर्म इस प्रथा के खिलाफ़ हैं तो इनके अधिकतर लोग इसके समर्थक कैसे बन जाते हैं? इसका एक ही मतलब निकलता है कि या तो यह अपने धर्म से पूरी तरह परिचित नहीं हैं या तो फिर यह जान-बूझ कर इस प्रथा को आगे बढाना चाहते हैं? जाति प्रथा को लेकर इन धर्मों के ज़्यादातर मानने वालों में कहने और करने में ज़मीन आसमान का अंतर दिखाई देता है. कहते तो सभी मिल जायेंगे कि हम जात-पात को नहीं मानते लेकिन हकीकत में वह जाति प्रथा के समर्थक निकलते हैं. इसमें इन धर्मों की गलती नहीं है. गलती है उन धर्म के मानने वालों की जो धर्म में कही गयी बातों से पूरी तरह या तो अनभिग्य हैं या धर्म के उन उसूलों को मानना ही नहीं चाहते जो जाति प्रथा पर एक मज़बूत प्रहार करते हैं.

जात-पात ने समाज पर इस क़दर कब्जा जमाया हुआ है कि अक्सर लोग इससे निकल नहीं पाते. यह एक ऐसा जाल है जिसमे समाज के अधिकतर लोग क़ैद होना चाहते हैं और इससे बहार निकलने की कोशिश नहीं करना चाहते हैं. हर धर्म के मानने वालों में जाति प्रथा का असर है, किसी में ज़्यादा तो किसी में कम, पर इस बुराई से अछूता कोई नहीं है. आईये! इस फर्क को जानने की कोशिश करते हैं. अगर हम देखें तो पाएंगे कि हिन्दू धर्म में इस जाति-प्रथा का असर यह है कि वह नीची कही जाने वाली जातियों के साथ न तो खाने का और ना ही शादी-विवाह का कोई सम्बन्ध रखते हैं. आधुनिकरण और समाज में आई तब्दीली की वजह से अब यहाँ थोडा बहुत खान-पान ज़रूर शुरू हो गया है पर अंतरजातिय शादी-विवाह… तौबा रे तौबा – यह तो बिलकुल ही मुमकिन नहीं है. अगर कोई अंतरजातिय विवाह कर भी ले तो खाप पंचायतें फांसी का फ़रमान जारी कर देती हैं. इस तरह के तुग़लकी फरमान की भेंट हमारे समाज के कई युवा-युवतियां चढ़ भी गए हैं, जो अपने आप में शर्मनाक बात है. हमारे समाज में ऐसे उदार हिन्दू भी मिल जायेंगे जो जाति प्रथा को नहीं मानते पर दुर्भाग्य से ऐसे लोगों की संख्या नगण्य है. समतामूलक समाज की स्थापना के लिए उदार चेहरों की आज बहुत अधिक आवश्यकता महसूस की जा रही है.

इस्लाम तो जाति प्रथा के बिल्कुल खिलाफ़ है पर इसके मानने वालों का हाल बुरा है. आपने आप को इस्लाम के हर उसूल पर चलने वाला बताने वाले अधिकतर मुस्लमान (ख़ासकर के इंडियन सब-कॉन्टिनेंट के  मुस्लमान) जब जात और बिरादरी की बात आती है तो इस्लाम के बताये हुए सारे उसूल भूल जाते हैं और जाति प्रथा का कट्टर समर्थक बन जाते हैं. मैं सभी मुसलमानों की बात नहीं करता पर ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो जात और बिरादरी का समर्थन करते मिल जायेंगे. जाति प्रथा के मामले में हिन्दू और मुस्लिम समाज में एक ही फर्क है (ध्यान रहे कि में हिन्दू और इस्लाम धर्म की बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि हिन्दू और मुस्लिम समाज की बात कर रहा हूँ) कि हिन्दू न नीची जात कहे जाने वाले लोगों के साथ खाना पसंद करते हैं और न शादी-विवाह के सम्बन्ध, पर हाँ मुस्लिम समाज खाना तो खाता है अपने से नीची कही जाने वाली बिरादरियों के साथ पर आज भी वह शादी-विवाह के मामले में अपनी बिरादरी में ही देखता है कि लायक लड़का और लड़की मिल जाये. अगर आपने गलती से यह सवाल कर लिया कि आप शादी दूसरी बिरादरी वाले से क्यों नहीं करते तो आपको सुनने को मिल जायेगा कि  – “मियां तौबा करों. सुबह से कोई और नहीं मिला बनाने के लिए. समाज को देख कर और उसको साथ लेकर चलना ही पड़ता है. हम ऐसा करके बिरादरी से पंगा नहीं ले सकते. ज़्यादा पढ़ने-लिखने से तुम्हारा दिमाग तो नहीं खिसक गया मियाँ “. और अगर इनको इस्लाम में कहे गए उसूल याद दिलाईयेगा तो सुनने को मिलेगा कि हाँ यह तो आप सही कह रहे हैं पर —-???? न जाने कितने सवालिया निशानों की बौछार आप पर होगी जिसका आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते? इसके बाद एक लम्बी स्पीच बिरादरी के समर्थन में सुनने को मिल जाएगी. मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि जब यह सब लोग ऐसा सोचते हैं तो कहीं मैं हीं गलत तो नहीं हूँ. पर थोड़ा गौर करने पर इस नतीजे पर पहुँचता हूँ कि नहीं मैं तो गलत नहीं हूँ, क्योंकि इस्लाम तो जाति-प्रथा के खिलाफ़ पुरजोर तरीके से बोलता है पर इस्लाम को मानने वाले मुस्लिम समाज के लोग ही हैं जो इस पर अमल नहीं करना चाहते. और फिर सच तो  सच ही रहेगा  चाहे कोई भी उसे पसंद न करे और झूठ झूठ है चाहे लाखों लोग उस झूठी बात को पसंद करें और कहें.

कमोवेश यही हाल सिख, इसाई और बुद्ध धर्म के मानने वालों का है. यह सभी धर्म जाति-प्रथा के खिलाफ ही खड़े हुए थे. इन सभी धर्मों में हर इन्सान को बराबर का दर्जा है पर वाह रे इन धर्मो के अनुयाईयों आपने तो गज़ब कर दिया. आप उस जाति-प्रथा के समर्थक बन बैठे जिसका विरोध आपके गुरुओं, भगवान् और धर्म संस्थापकों ने किया. इतने सालों बाद भी समाज में उंच-नीच ख़त्म नहीं हुई.  आज भी दक्षिण भारत चले जाईये तो ईसाईयों के कब्रिस्तान अलग अलग मिलेंगे. अपने आप को ऊँची जाति के कहे जाने वाले ईसाईयों के अलग और नीचे जात का कहे जाने वाले ईसाईयों के अलग कब्रिस्तान हैं. शादी-विवाह का भी यही हाल है. और मैं दक्षिण भारत का ही क्यों उधाहरण दूँ- यह स्थिति तो पूरे भारतवर्ष में है.

उत्तर भारत से एक जाति प्रथा का जीता जागता उधाहरण मैं आपके सामने रखना चाहता हूँ. मेरे एक दोस्त हैं. एक धर्म विशेष से ताल्लुक रखते हैं. धर्म का नाम नहीं बताऊंगा क्योंकि सभी धर्मों में यही समस्या है. उनको एक लड़की से प्यार हो गया और लड़की को उनसे भी. परन्तु दोनों इस समाज की कड़वी हकीकत से वाकिफ़ नहीं थे कि वो दोनों एक ही धर्म पर समाज में कही जाने वाली और समाज में हकीकत के रूप में उपस्थित अलग-अलग जातियों से सम्बन्ध रखते हैं. बेचारे लाख कोशिश करने के बाद भी शादी नहीं कर पाए, क्योंकि माँ-बाप को यह खतरा था कि बिरादरी में क्या मूंह दिखायेंगे?

अजीब बात है यह कि समाज में लोगों को जो चीज़ गलत है उसका डर ज़्यादा है, आपने धर्म का नहीं जिसने सभी को एक ही नज़र से देखने की हिदायत दी है. यहाँ पर धर्म से जियादा मज़बूत जाति हुई क्योंकि एक ही धर्म से सम्बन्ध रखने के बाद भी यह लोग शादी नहीं कर पाए, क्योंकि उनकी जातियां अलग अलग थी. आज भी समाज में शादी से पहले लड़के और लड़की की जात-पात का व्योरा निकाला जाता हैं. रविवार के अख़बार वर-वधुओं के जातिगत व्योरों से भरे रहते हैं. लड़के-लडकी की शैक्षिक योग्यताएं और दूसरी सलाहियतें एक तरफ और उसकी समाज में कही जाने और पाई जाने वाली जात और बिरादरी एक तरफ. यहाँ सवाल उठता है कि क्या जाति धर्म से भी समाज में मजबूत हो चुकी है ? क्या पढ़-लिख जाने से भी जाति पर कोई असर नहीं पड़ता? बाबा साहेब अंबेडकर विदेशों से आधुनिक और उदार शिक्षा प्राप्त करके आये पर भारत में आने पर उन्हें भी इसके कोप का भोगी बनना पड़ा. यह कैसी व्यस्था है जहाँ आपकी उच्च-शिक्षा भी इसके सामने नगण्य हो जाती है? यह कैसी व्यवस्था है कि जीवन भर इन्सान इसके कुचक्र को नहीं भेद पाता? जाति इतनी मजबूत है कि मरने के बाद भी यह पीछा नहीं छोड़ती. मृत्यु के बाद भी आप इन्ही जाति रुपी शब्दों से पहचाने जाते हैं.

वाह री जाति… और वाह री बिरादरी… तू तो धर्म से भी बढ कर निकली. कैसी है तू कि धर्म के उसूलों का तुझ पर कोई असर नहीं पड़ता. लोगों में कैसा लगाव है तेरा कि लोग धर्म से ज़्यादा तुझ में आस्था रखते हैं. ज्यादातर धर्म तेरे विरोधी है और फिर भी तू फल-फूल रही है? तेरी हिम्मत को भी दाद देनी पड़ेगी. तेरी जुर्रत पर खुद को निछावर करने को मन करता है. पर नहीं ! मैं ऐसा नहीं करूंगा. मैं तेरे विरोध में मुहीम चलाऊंगा और लोगों को भी तेरे खात्मे के लिए तैयार करूंगा. लोगों को तेरे खिलाफ़ इसलिए तैयार करूंगा क्योंकि मैं जनता हूँ कि तू इतनी ताक़तवर है कि मैं इस ज़िन्दगी में तुझको पठ्खनी नहीं दे सकता पर हर सभ्यता में तेरे खिलाफ माहौल बनाने के लिए लोगों को छोड़ जाऊँगा. तुझे कमजोर करने की कोशिशें हर दौर में होंगी.

कभी-कभी सोचता हूँ कि मैं 21 शताब्दी में रह रहा हूँ या पाषाण युग में?  ऐसा इसलिए सोचने पर मजबूर हो जाता हूँ क्योंकि लोग अभी तक इस बुरी व्यवस्था से बहार नहीं निकल पाए हैं और  विडम्बना यह कि निकलना भी नहीं चाहते हैं. लोग कहते हैं हमारा समाज बहुत आधुनिक और विचारों से विकसित हो गया है, लेकिन मैं आज के इस समाज को प्रगतिशील तभी मानूंगा जब जात-पात और बिरादरीवाद से ऊपर उठ कर लोग आपस में बातचीत करेंगें, सम्बन्ध रखेंगें, समाज में अंतरजातीय-विवाह को बुरा नहीं मानेगें और इसको स्वीकृति प्रदान करेंगें.

एक बात और, अपने आपको उदार और वामपंथी विचारधारा का कहने वाले भी जातिप्रथा में जकड़े हुए हैं. यह लोग बातें तो बहुत अच्छी करते मिल जायेंगे परन्तु अगर थोड़ा इनकी गहराई में जायेंगे तो दूध के धुले यह लोग भी नहीं मिलेंगे. इन सारी चीज़ों को देखकर निराशा तो होती है और सोचता हूँ कि कौन सा दिन होगा जब इस जाति-प्रथा के  प्रकोप का अंत होगा? वह कौन सा दिन होगा जब समाज अपने उदारवादी तथा आधुनिक कल-कारखानों से नहीं बल्कि उदारवादी, आधुनिक और प्रतिशील विचारों से जाना जायेगा? पर निराशा वादी  होने से काम नहीं चलेगा. मुझे समाज से उम्मीद तो बांधनी ही  होगी. हालात तो एक दिन बदलेंगे ही. हाँ समय ज़रूर लगेगा. कह नहीं सकता कितना? पर जितना भी लगे में उस समाज की बनावट और स्थापना के लिए सपना ज़रूर देखना चाहता हूँ और उस समय के आने  का इन्तजार भी करूंगा.

मैं ऊपर कही बातों के सिलसिले में एक बात साफ़ कर दूं कि मैं जाति और बिरादरी के खात्मे की बात करता हूँ पर जो लोग समाज में जातिगत शोषण के कारण  सदियों से शिक्षा और विकास में पीछे रहे हैं उन्हें सरकार सहारा देने का काम करे मैं इसका समर्थक हूँ. एक समाज द्वारा जानबूझ कर अस्वस्थ किये गए इंसान को सामाजिक न्याय के आधार पर सहारे की ज़रुरत तो होगी ही. इसलिए  इसमें मुझे कोई बुराई नहीं दिखती. समाज और देश तभी बेहतर बनेगा जब हम कमजोर और पिछड़ों को विकास और समाज में सम्मान दे पाएंगे. समाज में पिछड़े हुए लोगों को बेहतर अवसर देने का मैं हमेशा समर्थक रहा हूँ और आगे भी रहूँगा जब तक समाज में शिक्षा और रोजगार के सामान अवसर सभी को प्राप्त नहीं होते.

(लेखक अलीगढ मुस्लिम विश्वविधालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष हैं, और यह लेखक के निजी विचार हैं.)

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