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तरुण गोगोई को नरेन्द्र मोदी क्यों न कहा जाए?

नदीम अहमद

असम हिंसा की आग में झुलस रहा है. बोडो और मुस्लिम समुदाय एक दूसरे की जान के प्यासे हो गए हैं. आजादी के बाद से यह प्रदेश में तीसरा बड़ा मुस्लिम विरोधी दंगा है. ताजा हिंसा में 100 से ज्यादा लोग मारे गए हैं और अब तक के दंगों में मरने वालों की तादाद 2500 को पार कर गई है.

असम में हो रही ताजा हिंसा में बांग्ला बोलने वाले मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है. हालात इतने भयावह है कि 2 लाख से अधिक लोग अपना घर बार छोड़कर राहत शिविरों में जिंदगी बसर करने को मजबूर हैं.

बोडोलैंड के कोकराझार और चिरांग में भड़की हिंसा की आग में न सिर्फ हजारों घर जले हैं बल्कि लाखों जिंदगियां बर्बाद हो गई हैं. इंसानों को घास-फूस की तरह जला दिया गया. प्रदेश और केंद्र सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही है. रविवार को ही पांच और लोगों के शव मिले हैं.

साल 2002 में जब गुजरात में दंगे हुए और हजारों बेगुनाह मुसलमान दिन की रोशनी में ही कत्ल कर दिए गए तब नरेंद्र मोदी पर सवाल उठे थे. मोदी को मौत का सौदागर तक कहा गया. अख़बारों की सुर्खियां मोदी के प्रति गुस्से से लाल हो गईं. मोदी के खिलाफ़ खुलकर लिखा गया, क्योंकि गुजरात में भाजपा की सरकार थी. लेकिन अब जब असम में सत्ता पर कांग्रेसी तरुण गोगोई काबिज़ हैं और केंद्र की कमान डॉ. मनमोहन सिंह के हाथ में है, तब किसी की हिम्मत तरुण गोगोई को मौत का सौदागर कहने की नहीं हो रही है. गुजरात में भी बेगुनाह मुसलमान मारे गए थे और असम में भी बेगुनाह मुसलमान ही मारे जा रहे हैं, लेकिन सवाल यह है कि मोदी के खिलाफ़ आवाज़ उठी थी तो गोगोई के खिलाफ़ आवाज़ क्यों नहीं उठ रही है?

असम में दंगा उस वक़्त भड़क उठा जब कोकराझार जिले में हथियारों से लैस 4 बोडो नौजवानों ने 2 मुस्लिम  नौजवान को गोली मार दी. वक्त पर कातिल गिरफ्तार नहीं हुए. नतीजा मुसलमानों का गुस्सा भड़क गया. न वो गिरफ्तार हुए और न ही उन पर कोई कार्रवाई हुई क्योंकि वहां का डिप्टी कमिश्नर और कलक्टर भी बोडो था. ये दोनों सरकारी अफ़सर भी यही चाहते थे कि मुसलमानों का क़त्ल होने दिया जाए. दो अफ़सरों की लापारवाही के कारण आज पूरा बोडोलैंड इलाका जल रहा है और देश मूकदर्शक बन कर देख रहा है.

बोडो का आरोप है कि यहां के मुसलमान बंग्लादेश से आकर असम में रहने लगे हैं.  ये इलज़ाम सिर्फ असम के बोडो का ही नहीं है बल्कि मुल्क की अहम सियासी पार्टी बीजेपी का भी यही कहना है कि बड़ी तादाद में बंगलादेशी मुसलमान असम में आकर बस गए हैं जो ठीक नहीं है. हालांकि ये इलज़ाम सरासर बेबुनियाद है. असल में असम में बोडो कि तादाद सिर्फ 29 प्रतिशत है जबकि बंगला बोलने वालों कि तादाद 70 प्रतिशत है. सियाह सच यह भी है कि बांगला बोलने वाली 70 प्रतिशत आबादी आज दंगों में मारी जा रही है और राज्य सरकार ने आंखें मूंद ली हैं.

बेगुनाहों के मारे जाने की सबसे अहम वजह यह है कि बोडो लंबे अर्से से एक अलग राज्य की मांग करते रहे हैं. पहले वो हिंसात्मक अभियान चलाते थे. उनके पास हथियारों के जखीरे हैं. लेकिन मुसलमान निहत्थे हैं, क्योंकि उन्होंने कभी सरकार का विरोध नहीं किया. वो अलग राज्य की मांग के भी विरोध में हैं.

ये कैसी सरकार की दोहरी पालिसी है कि बोडो खुलेआम हथियार लहराते हुए असम की सड़कों पर घूमते हैं और बांग्ला बोलने वाले मुसलमानों को धमकी देते हैं, उनको गोलियों से भून देते हैं और असम की हुकूमत खामोश तमाशा देखती रहती है. अगर इसी जगह किसी मुसलमान के पास हथियार होता तो उसे आतंकवादी के नाम पर उसका एनकाउन्टर कर दिया जाता या जेल में ज़िन्दगी भर के लिए बंद कर दिया जाता.

कांग्रेस की दोहरी नीति भी साफ़ नज़र आ रही है, क्योंकि असम कि सरकार में बोडो नेशनल फ्रंट भी शामिल है, जिसके बिना गोगोई कि सरकार चलनी मुश्किल है. असम में एक और सियासी पार्टी है एआईयूडीएफ  जिसकी रहनुमाई मौलाना बदरुद्दीन अजमल करते हैं.  इनकी पार्टी के 18 विधायक रियासती सरकार में हैं, लेकिन मौजूदा हालात पर वो भी खामोश हैं.

हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं. लेकिन सवाल यही है कि मोदी को कातिल कहने वाले तरुण गोगोई पर रहम क्यों दिखा रहे हैं? क्या कांग्रेस राज में जाने वाली जानों की कोई अहमियत नहीं है या कांग्रेसी ठप्पा किसी भी नेता को जांच से ऊपर बिठा देता है?

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