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मुसलमानों के दामन पर लगा वो दाग़…

Faiz Ahamd Faiz for BeyondHeadlines

बटला हाउस ‘एनकाउंटर’ मुसलमानों के दामन पर लगा वो दाग़ है, जिसको धोना बहुत ज़रूरी है. मगर शायद सरकार इस दाग़ को न धोकर पुलिस के दामन को साफ़ दिखाने की कोशिश करना चाहती है, जो हिन्दुस्तान के मुसलमानों के लिए बेहतर नहीं है.

आज चार साल बीत जाने के बाद भी मुसलमानों की निष्पक्ष ज्यूडिशियल जांच कराने की मांग नहीं मानी गई. क्या यह अपने आप में बटला हाउस ‘एनकाउंटर’ को फर्ज़ी मानने के लिए काफी नहीं है?

हमारा मानना है कि बटला हाउस ‘एनकाउंटर’की ज्यूडिशियल जांच हर हाल में कराई जानी चाहिए, क्योंकि उसमें बेगुनाह मुस्लिम बच्चों के क़त्ल के साथ-साथ एक दिल्ली पुलिस का इंस्पेक्टर भी ‘शहीद’ हुआ है. हैरत की बात है कि पुलिस और सरकार एमसी शर्मा की शहादत को भी बराबर नज़रअंदाज़ कर रही है. यक़ीनन एमसी शर्मा की शहादत पर किसी को शक नहीं है. लेकिन यह जांच का विषय ज़रूर है कि शर्मा को शहीद किसने किया?

दरअसल, राजनीतिक पार्टियां चुनाव के दरम्यान मुस्लिम वोटों को भुनाने के लिए मुद्दे तलाश करती हैं. उनका मुस्लिम समस्याओं पर ध्यान देना या उनको हल करना कोई मायने नहीं रखता. यही कारण है कि देश की आज़ादी से आज तक हर चुनाव में मुसलमानों के समस्याओं को ज़ोर-शोर से उठाया जाता है. हारने वाला घर बैठ जाता है और छ जीतने वाला सरकार चलाता है. रही बात मुस्लिम मुद्दों की तो उनको अदालतों में ले जाकर कानूनी पेंच में फंसा दिया जाता है और इसी तरह मुसलमानों को बार-बार ठगा जा रहा है. बटला हाउस भी राजनीति के उन्हीं मुद्दों में से एक बेहतरीन मुद्दा बन गया है.

पिछले कुछ दिनों से यह देखने को मिल रहा है कि मुस्लिम समुदाय में तालीम की तरफ़ रूझान बढ़ा है. इसी के साथ-साथ पुलिस और दूसरी एजेंसीज पढ़े-लिखे मुस्लिम नौजवानों को आतंकवाद के नाम पर निशाना बना रहे हैं. देखने में आया है कि कम पढ़े- लिखे या अशिक्षित मुस्लिम नौजवानों से पुलिस व दूसरी एजेंसीज को कोई आपत्ति नहीं है. यूपी हो या बिहार… आंध्रा प्रदेश हो या महाराष्ट्र… जहां-जहां भी आतंकवाद के नाम पर गिरफ्तारियां की गई हैं, वो सभी शिक्षित नौजवान हैं. हालांकि कई साल जेल में गुज़ारने के बाद वो बेगुनाह साबित होते हैं. सच पूछे तो ऐसा लगता है कि यह इज़राईल व अमेरिका के इशारे पर खेला जाने वाला वो खेल है जिससे भारतीय मुसलमानों की रीढ़ की हड्डी शिक्षित युवाओं को तोड़ा जा सके.

मुसलमानों की इस इस गंभीर समस्या को हल करने के लिए सरकार व दूसरी राजनीतिक पार्टियों से कहीं ज़्यादा देश के मुस्लिम नेता व मिल्ली रहनुमाओं की ज़िम्मेदारी बनती है. उनको चुनाव में पार्टियों के लिए पैकेज लेकर तक़रीरें करने के बजाए अपनी नौजवान नस्ल के भविष्य को ध्यान में रखने की आवश्यकता है.

(लेखक विश्व शांति परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.)    

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