Isha Fatima for BeyondHeadlines
पूंजीवादी ताकतों ने आर्थिक विकास की जो चकाचौंध हमारे देश में पैदा की हैं, वह सबसे ज्यादा भारी समाजवाद और साम्यवाद पर पड़ी हैं. सबसे बड़ा सवाल यह है कि बदली हुई परिस्थितियों में समाजवाद की अवधारणा कैसे जीवित रहेगी. सच पूछे तो हमारे देश में समाजवाद का भविष्य ख़तरे में है. देश में समाजवाद लाने के लिए एक शख्स पिछले 16 सालों से संघर्षरत है.
कहते हैं कि दिल में जज़्बा और आंखों में उम्मीद इंसान को अपनी मंज़िल तक पहुंचने के रास्ते दिखा ही देती है. इसी जज़्बे और उम्मीद के साथ बिहार के लखीसराय ज़िले में जन्मे 50 वर्षीय डा. रमाइंद्र कुमार एक ऐसी जंग लड़ रहे हैं, जिसके बारे में आज कोई सोचता भी नहीं है. रमाइंद्र कुमार ने ‘समाजवाद’ के लिए न सिर्फ अपना घर-परिवार व रोज़गार छोड़ा बल्कि अपनी खुशियों को भी त्याग दिया है.
रमाइंद्र कुमार पिछले 16 वर्षों से दिल्ली के जंतर-मंतर व देश के अन्य हिस्सों में 24 या 48 घंटों की भूख हड़ताल, यात्रा और सत्याग्रह कर रहे हैं. यह एक ऐसा संघर्ष है, जिसके खत्म होने की सीमा उन्हें खुद भी नहीं मालूम… वह कहते हैं कि यह उम्मीद ही है, जो उन्हें इस आन्दोलन को इतने लम्बे समय तक लड़ने की हिम्मत और ताक़त देती है.
वह इन दिनों जंतर-मंतर के एक ऐसे कोने पर बैठे हैं, जहां से हर एक इंसान गुज़रता है, मगर अब तक मीडिया के कैमरे की नज़र उन पर नहीं पड़ी है. हालांकि इन्द्र कुमार ने अन्ना-आन्दोलन में मीडिया की चकाचौंध को बखूबी अपनी आंखों से देखा है. बस हसरत भरी निगाहों से देख अपने दिल को यह तसल्ली दे लेते हैं कि ये तो साम्राज्यवादी ताक़ते हैं, जब देश की मीडिया समाजवादी हो जाएगी, उन्हें ज़रूर पूछा जाएगा.
बहरहाल, रमाइंद्र कुमार की यह लड़ाई पांच मुद्दों पर आधारित है. विश्व व्यवस्था परिवर्तन, विश्व शांति, भारत बचाओ, दुनिया बचाओ, तिब्बत बचाओ… और सबसे महत्वपूर्ण इस देश में समाजवाद लाओ… चाहे गर्मी हो या सर्दी या तूफानी बारिश ही क्यों ना हो, कोई भी उनके हौसलें को अब तक तोड़ नहीं पाया है.
रमाइंद्र कुमार, जिन्होंने अपनी एमए तक पढ़ाई जे.एन.यू से की है. वह जे.एन.यू. में नामवर सिंह के निगरानी में रिसर्च एसोसिएट भी रहे. उन्होंने अपनी एम.फिल व पी.एच.डी की उपाधि दिल्ली विश्वविधालय में सरवन कुमार सिंहा की देखरेख में की. अपने इन अध्ययनों के कार्यकाल में रमाइंद्र ने दस किताबें भी लिखी, जिनमें से ‘बदलो बदलो सारे जहां को बदलो’ और ‘नई व्यवस्था का आह्यवान’ काफी प्रसिद्ध हुई. रमाइन्द्र बताते हैं कि जेपी आन्दोलन में 21 महीने भागलपूर जेल में बन्द भी रहे हैं.
रमाइंद्र ने अपना यह आंदोलन 1996 में पूंजीवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण शुरु किया था. उनका मानना है कि आज हमारा देश जिसकी आधे से ज़्यादा जनसंख्या गरीब है, वह देश पूंजीवाद का पुजारी बनता जा रहा है. गरीब और गरीब होता जा रहा है, तथा अमीर और अमीर… समानता का कहीं दूर-दूर तक कोई निशान नहीं. जहां आज भी देश के दस में से सात परिवार दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहें हैं. वहीं पूंजीपति अपने घरों को महल बनाने में व्यस्त हैं. समाजवाद के नाम पर माया का जो खेल खेला जा रहा है, वो त्रुटिपूर्ण है.
रमाइन्द्र बताते हैं कि दुनिया में पूंजीवादी व्यवस्था हावी है. इस व्यवस्था में 7.5 अरब की आबादी में से 1 अरब आबादी भी खुशहाली का जीवन नहीं जी पा रही है. 3 अरब गरीबी की स्थिति में 1 अरब भूखमरी के कगार पर जीवन जीने का मजबूर हैं. पूंजीवाद ने दुनिया की अधिकतम आबादी को गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी, बीमारी, जलालत, निर्दयीता और हिंसा दी है. इसलिए पूंजिवादी व्यवस्था का विकल्प तलाशना मानवता के लिए अनिवार्य है.
रमाइंद्र ने यह जंग उन लोगों के खिलाफ छेड़ी है, जो समाजवादी मुकुट पहने समाज ही को लूटने में व्यस्त हैं. मुलायम और अखिलेश जैसे समाजवादी नेताओं पर सीधा निशाना साधते हुए कहते हैं कि यह ढ़ोंगी समाजवादी हैं. यह समाजवाद के नाम पर अलग ही सेवा में लगे हैं, जिन्हें केवल अपनी चिन्ता है.
वह ग़रीब जिसे पीने का पानी तक उपलब्ध नहीं है. जिनके घरों में कई-कई दिनों तक चुल्हा नहीं जलता. ऐसी दयनीय स्थिति को देख रमाइंद्र ने हर गरीब को अधिकार दिलाने की कसम खाई है. अब वो अपने इस मक़सद में कितना सफल होते हैं, ये तो भविष्य के गर्त में है.
