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‘नजीब जंग’ के तानाशाही की कहानी, हामिद की ज़ुबानी…

Hamidur Rahman for BeyondHeadlines

मैं बिहार के सिवान ज़िले से एक सपना लेकर आया था कि मैं जामिया में दाखिला लूंगा, जो एक सेन्ट्रल यूनीवर्सिटी है. वहां जाकर मेरा शारिरीक व मानसिक विकास होगा. वहां के वातावरण में रहकर अपने मां-बाप का ख्बाव पूरा करूंगा. एक कामयाब आईएएस ऑफिसर बनुंगा. वहां डिबेट के माहौल में मुझे काफी कुछ सीखने को मिलेगा. और इस तरह मेरा सर्वागीण विकास होगा. लेकिन मैं यह नहीं जानता था कि जिस जामिया में जा रहा हूं, वहां जम्हूरियत की बात करना गुनाह है. जहां अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने का मतलब बग़ावत है. और वहां प्रशासन की मनमानी के खिलाफ़ सिर्फ अपनी राय रखने का मतलब कैम्पस से रस्टीकेशन या फिर कैम्पस बैन या फिर जामिया से बाहर का रास्ता दिखाया जाना है.

बहरहाल, मैंने जामिया सीनियर सेकेन्ड्री स्कूल में 11वीं जमाअत में दाखिला लिया और जामिया में स्कूल से कॉलेज तक मैंने हमेशा ही प्रथम श्रेणी से परीक्षा पास की. मैं स्नातक छात्र के रूप में राजनीतिक विज्ञान से अपने विषय में तीनों साल जामिया का टॉपर बना. छात्र जीवन में मैंने कई बार राष्ट्रीय स्तर पर जामिया का प्रतिनिधित्व किया. न सिर्फ प्रतिनिधित्व किया बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर वाद-विवाद प्रतियोगिता में अव्वल रहा. जामिया डिबेट सोसाईटी में मैंने कई बार ईनाम जीतें. इसके अलावा मैंने विभिन्न कार्यक्रम में हिस्सा लिया और वहां भी ईनाम से नवाज़ा गया. इसी दौरान मैं जामिया स्कूल में क्लास मॉनिटर भी बना और कॉलेज में लगातार क्लास-रिप्रेजेन्टेटिव भी रहा. पॉलिटिकल साईंस डिपार्टमेंट के सबजेक्ट एसोसियशन का सचिव भी बना. इसके अलावा विभिन्न कार्यों से भी जुड़ा रहा और हस समय जामिया के नाम को रौशन करने की सोचा.

जामिया ने मुझे बेस्ट स्टूडेन्ट का अवार्ड भी दिया. इतना सब होने के बावजूद जामिया प्रशासन ने दिल्ली हाई-कोर्ट में जो हलफनामा दायर किया गया कि मैं एक नॉन-सिरियस छात्र हूं. देख व सून कर मेरे दिल पर एक ज़बरदस्त धक्का लगा. शायद ऐसा इसलिए किया गया कि मैंने सिर्फ एक सवाल पूछा था कि जम्हूरी हिन्दुस्तान में ग़ैर-जम्हूरी जामिया क्यों हैं…

मैंने यह सवाल इसलिए उठाया था क्योंकि जामिया के हर छात्र की चाहत है कि यहां छात्र-संघ चुनाव हो. और वैसे भी छात्र-संघ हमारा बुनियादी हक़ है. यही नहीं, जामिया पिछले 6 सालों से प्रति छात्र 50 रूपये की फीस भी लेता आ रहा है. फिर चुनाव क्यों नहीं हो रहा है? मेरे मन में यह सवाल भी आया कि जब चुनाव नहीं हो रहे हैं तो पैसे कहां जा रहे हैं?

छात्र संघ के चुनाव का सवाल मैंने इसलिए उठाया कि जामिया में छात्रों के अधिकार का दमन हर तरह से शुरू हो गया था और इस दमन के खिलाफ लड़ने के लिए छात्र नेता होना बहुत ज़रूरी था.

फीस में मनमाने तरीक़े से वृद्धि, सवाल न पूछने का हक़, छात्रों को उनका स्कोलरशीप की रक़म का ना मिलना, निर्धन छात्रों के लिए स्पेशल प्रावधान न देना, नुक्कड़ नाटक या फिर वाद-विवाद का कैम्पस में न होना और जम्हूरियत को बचाने के लिए सवाल करना जामिया में अपराध समझा जाने लगा. जामिया में डर और खौफ का प्रशासन द्वारा माहौल बनाया गया, जिसमें हर छात्र यह कहने पर मजबूर हो गया कि—“मैं सच कहूंगा और हार जाउंगा… वह झूठ बोलेगा और लाजवाब कर देगा…”

छात्रों के लीगल राईट्स, फंडामेंटल और ह्यूमन राईट्स का यहां बूरी तरह से दमन किया गया और एक यूनिवर्सिटी में जेल से बूरे हालात पैदा कर दिए गए.

मैंने सिर्फ इस ज़ुल्म और अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाई तो जामिया ने मेरे कैरेक्टर सर्टिफिकेट में मेरा कैरेक्टर ही बिगाड़ दिया. शायद ही किसी यूनीवर्सिटी ने अपने किसी छात्र को ऐसा कैरेक्टर सर्टिफिकेट दिया हो. मेरा जुर्म सिर्फ इतना था कि मैंने दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दायर करके जामिया में छात्र-संघ चुनाव कराने की मांग की है. मुझे याचिका वापस लेने के लिए कई बार धमकाया गया और फिर भी मैं टिका रहा तो मेरा करियर खराब करने के लिए इस तरह का कैरेक्टर सर्टिफिकेट बनाया गया.

मैंने दिल्ली हाई कोर्ट में इंसाफ के लिए गुहार लगाई ताकि मेरा कैरेक्टर सर्टिफिकेट सही हो सके. मुझे ये दाग़ कतई बर्दाश्त नहीं था. कोर्ट ने भी जामिया को फटकार लगाई और सही कैरेक्टर सर्टिफिकेट देने का आदेश दिया.

हाई कोर्ट के इस आदेश के बाद मुझे कैरेक्टर सर्टिफिकेट तो मिल गया, लेकिन मेरे खिलाफ जामिया प्रशासन ने ज़ुल्म का जो सिलसिला शुरू किया था, वो अब और भी आक्रमक हो गया था. और मैं हर तरह से प्रताड़ित किया जाने लगा. मुझे तनाव ग्रसित करने की पूरी कोशिश की गई. जामिया प्रशासन ने मुझे हर तरह से धमकाया. लेकिन फिर भी वो मेरे हिम्मत को तोड़ नहीं सकें…

मैंने 6 सेन्टरों पर एम.ए. के लिए दाखिला फॉर्म भरा. सभी जगह मैंने लिखित परीक्षा पास की. इंटरव्यू के लिए बुलाया गया. मैंने पांच सेन्टरों पर इंटरव्यू भी दिया, लेकिन जब मेरिट लिस्ट तैयार हुआ तो उसमें मेरा नाम कहीं नहीं था. यहां तक कि वेटिंग लिस्ट से भी मेरा नाम गायब था. हद तो तब हो गई जब परसियन सेन्टर में 10 सीट खाली होने के बावजूद भी मुझे दाखिला नहीं दिया गया.

हाई कोर्ट में मैंने फिर रिट पेटिशन दाखिल की और कहा कि मेरे साथ अन्याय हुआ है तो कोर्ट ने जामिया से जवाब मांगा. जवाब में वाईस चांसलर ने हलफनामा दाखिल करके बताया कि पूरे मामले पर गंभीरता से सोचने के बाद मैं यह निर्देश देने के लिए विवश हूं कि निवारक उपायों के तहत हमीदूर्रहमान को जामिया में किसी भी कोर्स में दाखिला नहीं दिया जाएगा.

इस तरह वाईस चांसलर महोदय ने अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करते हुए मुझे जामिया से बाहर का रास्ता दिखा दिया. इस तरह इंसाफ की लड़ाई लड़ने में मुझे मज़लूम बना दिया गया और ज़ालिम की जीत हुई. इस पूरे एक साल के दौरान सच्चाई को मैंने दम तोड़ते देखा और ज़ालिम को मुस्कुराते…. और मैं अब यह कहने पर मजबूर हो गया हूं कि

दहशत को मिटाना है तो नफ़रत को मिटाओ

दिल से हर एक इंसान के अदावत को मिटाओ

सच्चाई को हक़ तआला की मीज़ान में तौलो

ऐसा न करे जो वो अदालत को मिटाओ….  

नोट: हमीद के मामले की अधिक जानकारी के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक किजीए… आप हमीद से 09999573910 पर संपर्क भी कर सकते हैं.

नजीब जंग से क्या ‘जंग’ जीत पाएगा हमीद…?

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