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मैं हाज़िर हूं, ऐ मेरे अल्लाह!

Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

“लोगों पर यह अल्लाह का हक़ है कि जो उस घर तक पहुंचने का सामर्थ्य रखता हो, वो हज करे.” (कुरआन, 3:97)

हज दरअसल अल्लाह के प्रति अगाध प्रेम और अथाह समर्पण भावना वाली ऐतिहासिक घटना की याद में मनाई जाती है.

आज से लगभग साढ़े चार हज़ार वर्ष पूर्व हज़रत इब्राहिम (अलै.) ने मक्का की पवित्रतम इबादतगाह ‘खाना-ए-काबा’ का निर्माण किया. यह एक ऐसा निर्जन स्थान था, जहां न पानी था और न ही पेड़-पौधे. पशु-पक्षी और किसी तरह की सजीव सृष्टि का कहीं अता-पता नहीं था, किन्तु इब्राहिम (अलै.) ने अल्लाह के हुक्म से अपने बुढ़ापे की लाठी यानी अपने बेटे ‘इस्माइल’ (अलै.) को अबोधावस्था में उनकी मां ‘हाज़रा’ सहित यहां लाकर असहाय छोड़ दिया था. यह हज़रत इब्राहिम के त्याग व समर्पण भावना की ही परीक्षा थी, जिसमें वे सफल रहे थे.

 तब से ईमान लाने के बाद नमाज़, रोज़ा और ज़कात की तरह ‘हज’ भी उन सभी मुसलमानों पर जीवन में एक बार फर्ज़ है, जो अपनी माली हालत और सेहत को देखते हुए मक्का जा सकता हो.

इसीलिए हर मुसलमान की ख्वाहिश होती है कि वह अपनी ज़िंदगी में कम से कम एक बार हज ज़रूर करे. इसे वो अल्लाह तआला के फज़लो-करम से मिले हुक्मनामे की तामील करने की मज़हबी ज़िम्मेदारी के तौर पर लेते हैं. हर बरस अरबी महीने ज़िल्लहिज़्ज़ा की दसवीं तारीख को मक्का में अपनी हाज़िरी लगाता है. वास्तव में यही वह समय है, जब विश्व भर के मुसलमान मक्का शहर में जमा होते हैं. विश्व बंधुत्व की इससे बड़ी अवधारणा और साक्षात दर्शन और क्या हो सकता है कि हर रंग, नस्ल और भाषा एवं क्षेत्र, देश व संस्कृति के मुसलमान एक ही स्थान पर जमा होते हैं, एक सा वस्त्र धारण करते हैं और एक ही भाषा (अरबी) का प्रयोग कर अपनी इबादत एक ही विधी के अनुसार एक साथ पूरी करते हैं. हर समय उनकी जबान पर बस एक ही कलमा होता है-

        लब्बैक अल्लाहुम्मा लब्बैक, लब्बैक ला शरीक-लहू लब्बैक, अल्लाहुम्मा लब्बैक…..

(मैं हाज़िर हूं, ऐ मेरे अल्लाह! हाज़िर हूं! तेरा कोई साझी नहीं. मैं हाज़िर हूं. मेरे अल्लाह, मैं हाज़िर हूं….)

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