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BeyondHeadlines > India > एड्स के नाम पर कारोबार…
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एड्स के नाम पर कारोबार…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published December 2, 2012 2 Views
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9 Min Read
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Shashank Dwivedi for BeyondHeadlines

पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनएड्स की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक हमारे देश में पिछले एक दशक में एचआईवी संक्रमण के नए मामलों में 56 प्रतिशत की कमी आई है. जिस तरह से एड्स के आंकड़ों के मामले में पिछले कुछ वर्षों में कुछ गैर-सरकारी संगठनों ने विदेशी फंडिंग हासिल करने के लिए एड्स संक्रमित लोगों के आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए, उसे देखते हुए किसी भी आंकड़े पर सहज विश्वास करना मुश्किल लगता है. लेकिन चूंकि यह आंकड़ा संयुक्त राष्ट्र की संस्था द्वारा जारी किया गया है, इसलिए इस पर विश्वास किया जा सकता है.

कुछ लोग के लिए एड्स जानलेवा बीमारी हो सकती है लेकिन ज्यादातर लोग इसके नाम पर अपनी जेबे भर रहे हैं. नेता और अधिकारियो को एड्स के नाम पर विदेशो में धूमने से फुर्सत नहीं है. वहीं ज्यादातर गैर सरकारी संगठन चांदी काट रहे हैं. सरकार को तो यह तक पता नहीं कि एड्स नियंत्रण के काम पर कौन -सा संगठन कितना पैसा कहा खर्च कर रहा है.

कुछ वर्ष पूर्व भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी ने संसद में बयान दिया था. उन्होंने कहा ‘इन अवर कंट्री पीपल आर नाँट लिविंग विद एड्स, दे आर लिविंग आँन एड्स ‘अर्थात हमारे देश में लोग एड्स के साथ नहीं जी रहे हैं, बल्कि एड्स से अपनी रोजी-रोटी कमा रहें हैं. वाकई, आज देश एड्स माफिया के चंगुल में है. एड्स के नाम पर पैसे की बरसात हो रही है. विभिन्न इंटरनेशनल एजेंसीज एड्स के नाम पर अपनी सोच भी हम पर थोप रही हैं.

दरअसल एचआईवी – एड्स के क्षेत्र में मिल रही विदेशी सहायता ने तमाम गैर सरकारी संगठनों को इस ओर आकर्षित किया है. नतीजन जो एनजीओ पहले से समाज सेवा के लिए काम करते थे, वे अब खुद अपनी ‘सेवा’ के लिए एनजीओ खोल रहे हैं. एड्स प्रोजेक्ट्स की बदंरबाट ने एचआईवी -एड्स का जमकर दुष्प्रचार किया है. एड्स के उपचार के लिए दवाओं और कंडोम के इत्तेमाल पर भी वैज्ञानिक एकमत नहीं हैं. सारे प्रयोग यहां होने से भारत दुनिया की लेबोरेटरी बन रहा है. देश में एड्स विशेषज्ञों का अभाव है साथ ही डाक्टर और पैरा मेडिकल स्टाफ भी इसको लेकर कई भ्रांतियां पाले हुए है.

आज पूरी दुनिया में एचआईवी और एड्स को लेकर जिस तरह का भय व्याप्त है और इसकी रोकथाम व उन्मूलन के लिए जिस तरह के जोरदार अभियान चलाये जा रहे हैं, उससे कैंसर, हार्टडिजीज, टी.बी. और डायबिटीज जैसी खतरनाक बीमारियां लगातार उपेक्षित हो रही हैं. और बेलगाम होकर लोगों पर अपना जानलेवा कहर बरपा रहीं हैं. पूरी दुनिया के आंकडों की माने तो हर साल एड्स से मरने वालों की संख्या जहाँ हजारों में होती है, वहीं दूसरी घातक बीमारियों की चपेट में आकर लाखों लोग अकाल ही मौत के मुंह में समा जाते हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार अगर हृदय रोग, कैंसर, मधुमेह और क्षय-रोग से बचने के लिए लोगों को जागरूक या इनके उन्मूलन के लिए कारगर उपाय नहीं किये गये तो अगले दस वर्षों  में इन बीमारियों से लगभग पौने चार करोड़ लोगों की मौत हो सकती है. इन बीमारियों की तुलना में एड्स से मरने वालों की संख्या काफी कम है.

हमारे देश में 1987 से लेकर अब एड्स से मरने वालों की संख्या जहां सिर्फ 12 हजार थी वहीं पिछले ही पिछलें ही वर्ष में केवल टी.बी. व कैंसर से 6 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हो गयी. परन्तु सरकारी और गैरसरकारी दोनों स्तरों पर सिर्फ एचआईवी और एड्स की रोकथाम के लिए गम्भीरता है और इसी के लिए अति सक्रिय कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं. भारत में विभिन्न रोगों से होने वाली मृत्य के दस सबसे प्रमुख कारणों में एचआईवी-एड्स नहीं है. लेकिन, केंद्र सरकार के स्वास्थ्य बजट का सबसे बड़ा हिस्सा एचआईवी-एड्स में चला जाता है.

एड्स को लेकर विदेशी सहायता एजेंसियों के उत्साह के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन भारत जैसे गरीब देश में इस समय डायरिया, टीबी और मलेरिया जैसी बीमारियों पर नियंत्रण पाने की ज्यादा ज़रूरत है, जिसे हर साल लाखों लोग मरते हैं. स्वास्थ्य नीतियों और बजट आवंटन करते समय यह ध्यान रखना होगा कि हर साल लाखों लोग कैसर और टीबी से मरते हैं.

अभी भी केंद्र सरकार एड्स नियंत्रण पर हर साल करोड़ रुपये का बजट तय कर रही है. उदाहरण के तौर पर एड्स पर वर्तमान सत्र 2012-13 में एड्स पर बजट 1700 करोड़ रुपये का है. केंद्रीय राज्य सरकार का बजट अलग होता है. विदेशी अनुदान भी अतिरिक्त है. ध्यान देने वाली बात यह है कि एड्स के मामलों में साल दर साल कमी आ रही है लेकिन सरकारी बजट लगातार बढ़ रहा है. जबकि कैंसर, टीबी जैसी अन्य जानलेवा बीमारियों का बजट इस अनुपात में काफी कम कम है.

एड्स को लेकर पूरी दुनिया में जितना शोर मचाया जा रहा है. उतने तो इसके मरीज़ भी नहीं हैं. फिर भी आज दुनिया भर के स्वास्थ्य के एजेंडे में एड्स मुख्य मुद्दा बना हुआ है. और इसकी रोकथाम के लिए करोडों डालर की धन-राशि को पानी की तरह बहाया जा रहा है. यही नहीं अब तो अधिकांश गैर-सरकारी संगठन भी जन सेवा के अन्य कार्यक्रमों को छोड़कर एड्स नियत्रंण अभियानों को चलाने में रूचि दिखा रहे है. क्योंकि इसके लिए उनको आसानी से अनुदान मिल जाता है और इससे नाम और पैसा आराम से कमाया जा सकता है.

कुछ वैज्ञानिकों का तो यह भी मानना है कि एचआईवी -एड्स के हौवे की आड़ में कंडोम बनाने वाली कम्पनियाँ भारी मुनाफा कमाने के लिए ही इन अभियानों को हवा दे रही हैं. तभी तो एड्स से बचाव के लिए सुरक्षित यौन संबंधों की सलाह तो खूब दी जाती है, पर संयम रखने या व्यभिचार न करने की बात बिल्कुल नहीं की जाती है. यानि कि खूब यौनाचार करो पर कंडोम के साथ…

पर कहने का मतलब यह नहीं है कि एड्स की भयावहता के खिलाफ लोगों केा जागरूक न किया जाए. एचआईवी-एड्स वाक़ई एक गंभीर बीमारी है और इसकी रोकथाम के लिए जन-जागरण अभियान ज़रूर चलाया जाना चाहिए, पर अन्य जानलेवा बीमारियों की कीमत पर कतई नहीं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि थोड़े से प्रयासों एवं प्रयत्नों से ही हार्ट-डिजीज, डायबिटीज, डेंगू और कैंसर से होने वाली मौतों में 50से 60 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है.

भारत में एचआईवी-एड्स के क्षेत्र में काम कर रही बिल गेट्स की संस्था ‘दि इडिंया एड्स इनीशिएटिव आँफ बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउडेशन’ के अनुसार अभी भी भारत में, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में सेक्स, कण्डोम, एड्स के बारे में बात करने पर आज भी लोग काफी हिचकिचाहट महसूस करते हैं. यहाँ तक कि इस सम्बन्ध में टेलीविजन पर अगर कोई विज्ञापन भी प्रसारित होता है तो देखने वाले चैनल बदल देते हैं. फिर प्रश्न उठता है कि एड्स निवारण के नाम पर जो करोड़ो का फंड आता हे वो जाता कहां है? क्योंकि न तो इसके ज्यादा मरीज हैं, और जो मरीज़ हैं भी उन्हें भी सुनिश्चित दवा और सहायता उपलब्ध नहीं कराई जाती. वित्तीय अनियमितता अपने चरम पर है. एड्स नियत्रंण कार्यक्रम सिर्फ नोट कमाने का ज़रिया बनकर रह गये है वहीं एड्स की कीमत पर अन्य बीमारियों के लिए सरकार समुचित फंड और सुविधायें उपलब्ध नहीं करा पा रही है.

(लेखक स्वस्थ भारत विकसित भारत अभियान के तहत कंट्रोल एम.एम.आर.पी कैंपेन चला रही प्रतिभा-जनी सेवा संस्थान से जुड़े हैं व स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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