जब सरकार बिक सकती है तो यह स्वास्थ्य का सार्वजनिक क्षेत्र क्यों नहीं?

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Anita Gautam for BeyondHeadlines

भारत विकसित और विकासशील देश के रूप में उभर रहा है. गत वर्षों में भारत ने चेचक और पोलियो जैसी असाध्य बीमारीयों पर विजय हासिल की है.

पर भारत का विकास मात्र पोलियो की दो बूंद तक ही सीमित नहीं होना चाहिए. वहीं दूसरी ओर भारतीय स्वास्थ्य उद्योग 50 फीसदी की दर से बढ़ रहा है, जिससे प्रभावित हो 5 लाख से अधिक लोग भारत ईलाज करवाने आते हैं.

इससे यह बात साबित होती है कि भारत मेडिकल टूरिज्म के एक बड़े केंद्र के रूप में भी उभर रहा है. लेकिन इस प्रगति की कहानी का एक और भी पहलू है. बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव और ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा सेवाओं की बदहाली भारतीय स्वास्थ्य क्षेत्र की पोल खोलती हैं. भारत में प्रति 10 लाख लोगों पर 860 बिस्तर हैं, जबकि दुनिया में इसका औसत 2,600 है.

देश में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की भारी कमी है। कुल बीमारियों का तीन-चौथाई बोझ सिर्फ ग्रामीण भारत ही उठाता है. दुनिया भर में पांच साल से कम उम्र के 88 लाख बच्चे डायरिया, क्वाशियोरकर, मरास्मस, हैजा जैसी तमाम बीमारियों से मृत्यु के शिकार हो जाते हैं. इनमें 20 लाख से अधिक भारत के बच्चे हैं. यही नहीं, भारत में हर पांच मिनट में एक महिला प्रसव के दौरान मर जाती है.

कैसा विरोधाभास है कि भारत मेडिकल टूरिस्टों को तो इंटरऑपरेटिव एमआरआई प्रदान कर सकता है, लेकिन अपने देश के बच्चों को डायरिया से होने वाली मौत से नहीं बचा सकता? स्वास्थ्य भारत ऐसा लक्ष्य है जिसे प्राप्त करने के लिए भारत लंबे समय से कड़े प्रयास तो कर रहा है, लेकिन अभी तक इसके आसपास तक नहीं फटक पाया. अपनी जिम्मेदारियों से बचते हुए सरकार ने स्वास्थ्य सुविधाएं देने की अधिकतर जिम्मेदारी सार्वजनिक क्षेत्र को दे रखी है, किन्तु जब सरकार बिक सकती है तो यह सार्वजनिक क्षेत्र क्यों नहीं?

दूसरे देश में जिन दवाओं पर प्रतिबंध लगा हुआ है और सिर्फ प्रतिबंध ही नहीं, बल्कि चौंकाने वाली बात तो यह है कि ऐसी दवाईयों को जानवरों तक के लिए निषेध किया गया है, वही दवाईयां स्वास्थ्य विभाग के लोगों की मोटी रिश्वत के कारण धड़ल्ले से हमारे देश में बिक रही हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि जनस्वास्थ्य पर खर्च करने के मामले में भारत का स्थान 175 देशों की सूची में 171वां है. विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं को उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी भी सरकार की बनती है किन्तु राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य विभाग योजनाओं की पोल तो गांवों की दुर्दशा देख कर ही समझ आती है, जहां अस्पताल के नाम पर खंडर ज़मीन और कुत्ते राउंड पर होते हैं.

अपितु दिल्ली के एम्स, सफदरजंग, जी.बी.पंत और खास तौर से नवजात शिशुओं के कलावती बाल सरन चिकित्सालय की ओर रूख किया जाए तब पता चलता है कि हर घंटे लोग दवा और डाक्टर के अभाव से मर जाते हैं.

अगर आपको गलती से दवा और डाक्टर दोनों मिल भी जाए तो आईसीयू वार्ड में अपनी आखिरी सांसे लेने के लिए किसी सफाई कर्मचारी का मुंह ताकना पड़ता है. अगर इसी बीच सांस का सिलेंडर खत्म हो जाए और मरीज़ मर जाए तो भी अस्पताल प्रशासन एक दूसरे पर दोषारोपण करके साफ-साफ बच निकलती हैं. जब शहरों की ऐसी जर्जर हालत है, तो आप स्वयं कल्पना कर सकते हैं कि गांवों में क्या होगा?

इसी का फायदा उठाते हुए लोगों ने प्राइवेट अस्पताल खोल लिये. जिसमें आपको ईलाज के साथ-साथ मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पिटल व आपकी सुविधानुसार 5 सितारा और 7 सितारा होटलों की सुविधा भी प्राप्त होगी पर वो गरीब जिसके लिए एक जून का पेट भरना मुश्किल है वह क्या करेगा? यकीनन वो या तो ईलाज के नाम पर कर्ज लेगा और गलती से ठीक हो गया तो कर्ज उतारने के लिए हर रोज़ मरेगा या मौत को गले लगाएगा.

हमारे स्वास्थ्य विभाग को चाहिए कि वह स्वास्थ्य कल्याण के लिए न सिर्फ एक बड़े तबके तक पहुंचे, बल्कि वह गरीब आदमी की जेब के मुताबिक स्वास्थ्य सेवाएं भी मुहैया कराए. ऐसा तभी संभव है, जब हमारे डॉक्टर दवाओं में व्याप्त भेदभाव को समाप्त कर, लोगों की जेनेरिक दवाओं के प्रति नकारात्मक सोच को बदलने में उनकी मदद करें, पर यह भ्रम भी तो उनके निजी स्वार्थ के कारण ही लोगों में व्याप्त है. अगर हमारी सरकार की अपेक्षा हमारे डॉक्टर ही सचेत हो जाएं और लोगों को अच्छे स्वास्थ्य के प्रति अधिक से अधिक जागरूक करें तो धीरे-धीरे ही सही, यह अस्वस्थ भारत, स्वस्थ और विकसित भारत के रूप में ज़रूर उभरते हुए विकास की ओर अपने परचम लहराएगा.

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