India

दवा कथाः एमआरपी एक, रेट अलग-अलग

Dilnawaz Pasha For BeyondHeadlines

16 दिसंबर 2012, रविवार के दिन, देश के सबसे पॉश हॉस्पिटल अपोलो के सामने स्थित सेवा सदन में वेबसाइट BeyondHeadlines.in और मुंबई की संस्था प्रतिभा जननी सेवा संस्थान की ओर से दवाइयों के मूल्यों पर बहस और परिचर्चा आयोजित की गई. दिल्ली के करीब 80 बुद्धिजीवियों और पत्रकारों को बहस में आमंत्रित किया गया था, जिनमें से लगभग 50 पहुंचे. आमंत्रण फेसबुक के ज़रिए भेजे गए थे, इसलिए परिचर्चा में शामिल होने वाले अधिकतर लोग एक दूसरे से पहली बार मिल रहे थे.

परिचर्चा शुरू हुई, वक्ताओं ने अपने विचार रखे, श्रोता भी बहस में शामिल हुए. मुंबई से आए आशुतोष कुमार सिंह ने दवाइयों की कीमतों पर कई सनसनीखेज खुलासे किए. उन्होंने बताया कि कैसे 7 रुपये से भी कम में निर्मित होने वाला आईवी सैट बाजार में 117 रुपये तक में बेचा जाता है. अस्पताल का स्तर आईवी सैट की कीमतें तय करता है. आसुतोष द्वारा पेश किए गए आंकड़े सनसनीखेज थे. कई कंपनियां अपनी दवाइयां पर 2 हजार प्रतिशत तक मुनाफा कमा रही हैं.

युवा पत्रकार अफरोज आलम साहिल ने दवाइयों की कीमतें निर्धारित करने के लिए बनाए गए नेशनल फार्मा प्राइसिंग अथॉरिटी (एनपीपीए) के बारे में कई सनसनीखेज खुलासे किए. साहिल के मुताबिक एनपीपीए ने आरटीआई के जवाब में कहा कि उसके पास देश में दवाएं निर्मित करने की कोई सूची नहीं है. यही नहीं प्राधिकरण दवाइयों की गुणवत्ता और रेट तय करने के लिए सैंपल सिर्फ दिल्ली से ले रही है. देश के किसी भी अन्य हिस्से से दवाइयों के सैंपल नहीं लिए जा रहे हैं. सबसे चौंकाने वाली बात साहिल ने यह बताई की एनपीपीए दवा कंपनियों पर भारी भरकम जुर्माना तो लगाती है लेकिन कभी उसे वसूल नहीं कर पाती, जिस कारण दवा कंपनियों की मनमर्जी बीमारों की जेब पर हावी है. यही नहीं देश में दवाएं बेच रही तमाम बड़ी कंपनियां राजनीतिक पार्टियों को भी चंदा दे रही हैं.

दिल्ली में प्रैक्टिस कर रहे है और दिल्ली सरकार में कार्यरत डॉक्टर देशराज सिंह ने चिकित्सिा क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के अपने कड़वे अनुभव साझा करते हुए बताया कि कैसे एक ही डॉक्टर एक ही समय में कई क्लिनिकों में बैठ रहा है और इसकी जांच करने वाला कोई नहीं है.

पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और डॉक्टर जहां आंकड़ों की बात कर रहे थे वहीं सबसे ठोस उदाहरण पेश किया नेपाल से अपोलो अस्पताल में अपनी मां का इलाज करने आए प्रह्लाद ने. परिचर्चा शुरू होने से पहले प्रह्लाद बैचेन से सेवा सदन की लॉबी में टहल रहे थे. वो अपनी बात साझा करना चाहते थे. अंत में उन्हें अपनी बात रखने का मौका मिला. प्रह्लाद के अनुभव ने सभी को चौंका दिया.

बहस के बाद में प्रह्लाद की मां का हालचाल जानने उनके कमरे में पहुंचा. वो हिप सर्जरी कराने के लिए अपोलो अस्पताल आईं हैं. बात शुरू करते ही प्रह्लाद ने कहा, ‘मां तो ठीक नहीं हुई है लेकिन मैं ज़रूर बीमार हो गया हूं. मुझे पांच लाख का बजट बताया गया था. कहा गया था कि पांच लाख से ज्यादा खर्चा नहीं आया था. अपनी सारी जमा पूंजी और जो हो सका वो उधार लेगे मैं मां का ऑपरेशन कराने अपोलो अस्पताल आ गया. अब तक पांच लाख से ज्यादा खर्च हो गए हैं और मां का ठीक होना तो दूर सुधार तक नहीं दिख रहा है.’

प्रह्लाद की इस बात में आपको शिकायत नज़र आ सकती है लेकिन उनका दुख सिर्फ उनकी आंखों में देखकर ही समझा जा सकता था. प्रह्लाद ने जो दवाइयों के बिल दिखाएं वो किसी को भी चौंका सकते हैं. अपोलो फार्मेसी से उन्हें अपनी मां के लिए तीन दिन की जो दवाएं 24 हजार रुपये में मिल रही वहीं दवाएं उन्हें दूसरी फॉर्मेसी से लगभग 19 हजार रुपये में मिल रही थीं. यानि हर तीन दिन की दवाओं में करीब 5 हजार का रुपये का फर्क था. प्रह्लाद ने यह बात परिचर्चा के दौरान भी कही थी, लेकिन मुझे यकीन नहीं हुआ.

मैंने सबूत मांगा तो प्रह्लाद ने बिल दिखा दिए. उदाहरण के तौर पर उनकी मां को लगाए जा रहे सिपला द्वारा निर्मित इंजेक्शन XYLISTIN FORTE की एमआरपी 1406 रुपये है. यह इंजेक्शन उन्हें अपोलो की फार्मेसी से प्रिंट रेट यानी 1406 रुपये का ही मिल रहा था. जबकि एस्कॉर्ट फॉर्मेसी से उन्हें यह इंजेक्शन 1100 रुपये में मिल रहा है. यही नहीं एस्कॉर्ट फॉर्मेसी वाले फोन करने पर ही उन्हें यह इंजेक्शन उन तक पहुंचा रहे हैं.

एक ही इंजेक्शन पर दो अलग-अलग फॉर्मेसी पर 300 रुपये का फर्क है. बाकी दवाइयों का भी यही हाल था. प्रत्येक बिल पर करीब 5 हजार रुपये तक का फर्क आ रहा है. यानि एक दिन की दवाई पर प्रह्लाद अपोलो फार्मेसी को लगभग 1500 रुपये अधिक दे रहे थे. (वीडियो में देखें प्रह्लाद का बयान)

Must watch Reality of Medicine MRP in India

आंखों में आंसू भरकर प्रह्लाद कहते हैं, ‘खर्चा अस्पताल द्वारा बताए बजट से बहुत ज्यादा हो गया है, मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि एक ही इंजेक्शन के रेट में इतना फर्क क्यों हैं, न कंपनी अलग है, न क्वालिटी अलग है लेकिन फिर रेट में इतना फर्क क्यों है, क्या इंडिया में कोई भी कंपनी जो चाहे वो रेट दवा पर प्रिंट कर सकती है?’

अब सवाल यह है कि प्रह्लाद और अस्पतालों में इलाज करा रहे लोगों के साथ हो रही इस नाइंसाफी का असली गुनाहगार कौन है? क्या दवाइयों की कीमतें अस्पताल के स्तर से तय होना जायज है? क्यों न दवाइयों की कीमत अधिकतम बिक्री मूल्य के स्थान पर न्यूनतम बिक्री मूल्य के पैमाने पर की जाए?

बाकी सेवाओं को व्यापारिक किया जा सकता है, रेस्टोरेंट में भोजन की मनचाही कीमत वसूलने को जायज ठहराया जा सकता है, लेकिन दवाओं पर मनमाफिक एमआरपी प्रिंट करने और वसूलनों को कौन सा समाज या कौन सी व्यवस्था जायज ठहरा सकती है?

वक्त प्रह्लाद के सवालों के जवाब चाहता है. क्योंकि प्रह्लाद ही अकेले पीड़ित नहीं है. दवा कंपनियां भारत में हर साल तीन प्रतिशत लोगों को गरीबी रेखा के नीचे भेज रही हैं. स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले कुल खर्च का 72 फीसदी मात्र दवाओं पर खर्च हो रहा है. अब सवाल यह है कि यह कब तक होता रहेगा और कब तक इस बेहद गंभीर मुद्दे पर हम खामोश रहेंगे?

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