Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines
दिल्ली गैंगरेप के में सबसे कम उम्र के रेपिस्ट के नाबालिग होने पर सोमवार को जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड (जेजेबी) ने भी अपनी मुहर लगा दी. जेजेबी ने इस आरोपी के प्राथमिक पाठशाला में दिए जन्म प्रमाण पत्र को सही मानते हुए इसे नाबालिग माना है.
अब इस आरोपी पर जुवेनाइल एक्ट के तहत ही मामला चलेगा यानि उसे अधिकतम सजा तीन साल की ही दी जा सकेगी. लेकिन समाज नहीं चाहता कि यह रेपिस्ट तीन साल में ही रिहा हो जाए और दोबारा सामान्य जीवन शुरू करे. क्योंकि समाज की आंखों पर आक्रोश की पट्टी चढ़ी है. और इस आक्रोश को मीडिया हर संभव तरीके से हवा दे रहा है.
‘ज़रा सोचिए’ कहने वाला चैनल लोगों को सोचने का मौका देने से पहले ही अपनी सोच उन पर थोप रहा है तो सबसे तेज़ चैनल इतना तेज़ हो गया है कि फांसी की मांग को बुंलद करने में वह यह भी भूल गया है कि नाबालिगों के प्रति समाज और राष्ट्र की भी कुछ जिम्मेदारियां हैं. ‘आपको आगे रखने’ का दावा करने वाला चैनल भी समाज को इतना आगे ले गया है कि भावनाओं के सामने तर्क बेबस से नज़र आ रहे हैं.
देश में सबसे बड़ी बहस इस बात पर हो रही है कि बालिग होने की उम्र 18 ही मानी जाए या फिर इस कम करके 16, साढ़े 16 या कम से कम साढ़े सत्तरह (ताकि नाबालिग को फांसी पर लटकाया जा सके) किया जा सके.
भारत ने बाल अधिकारों के मामले में अंतरराष्ट्रीय कन्वेंशन पर हस्ताक्षर किए हैं. इस कन्वेंशन का हिस्सा रहते हुए भारत के लिए कानून में बदलाव करना मुश्किल है. लेकिन यह नामुमकिन नहीं है, भारत सरकार के पास बालिग होने की उम्र को कम करने के विकल्प हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या बालिग होने की उम्र कम करके, अपनी भावानाओं और आक्रोश में बहकर कानून में बदलाव करवाकर भारत एक समाज और राष्ट्र के रूप में अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ सकता है.
दिल्ली गैंगरेप के बाद सबसे बड़ा सवाल यही है कि एक अपराधी को किस उम्र में बालिग माना जाए (या क्या नाबालिग को अपराधी माना जाए.) बालिग होने का सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह तय करता है कि अपराध के पीछे अपराधी की मंशा क्या थी. यानि कि जिसने अपराध किया वह अपराध का विश्लेषण करने में, उसके हर पक्ष को समझने में सक्षम था.
दिल्ली गैंगरेप के 6ठें रेपिस्ट को बालिग मानने के लिए तर्क दिया जा रहा है कि वह मानसिक और शारिरिक रूप से बालिग था अन्यथा वह इतना जघन्य अपराध नहीं करता. यदि इन तर्कों को मान भी लिया जाए तो भी क्या बालिग होने की उम्र को कम करना या कानून में बदलाव करना न्यायोचित होगा.
चाइल्ड राइट्स के मामलें में यह भी तर्क दिया जा रहा है कि अमेरिका ने चाइल्ड राइट्स कन्वेंशन पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं और वहां 16 वर्ष के बच्चों को भी बालिग मानकर अपराधी क़रार दिया जाता है. लेकिन एक तथ्य यह भी है कि संयुक्त राष्ट्र के सिर्फ तीन सदस्यों ने चाइल्ड राइट्स कन्वेंशन पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, जिनमें एक देश सूडान भी है.
अमेरिका की परिस्थितियों से भारत की तुलना नहीं की जा सकती. अमेरिका में यह मुमकिन नहीं है कि कोई 11 साल का बच्चा बस पर कंडक्टरी करे और 7 साल तक उसका शोषण होता रहे. भारत में जहां हर चाय की दुकान पर, हर ढाबे पर बच्चे प्लेटें साफ़ करते नज़र आते हैं वहीं पूरे अमेरिका में बाल मजदूरी का शायद ही कोई मामला सामने आता हो.
यही नहीं अमेरिका में हर बच्चे को बेहतर से बेहतर माहौल और शिक्षा देने की कोशिश की जा सकती है. जब हम वहां की सुविधाओं से भारत की तुलना नहीं कर सकते तो फिर अन्य परिस्थितियों में क्यों करे?
6ठें रेपिस्ट को फांसी पर लटकाने के लिए यदि कानून बदला भी जाता है तो यह फिर उन लाखों नाबालिगों के साथ अन्याय होगा जो दुर्भागय् की भट्टी में अपना बचपन जला रहे हैं. भारत में कई लाख बच्चे ऐसे हैं जो सही शिक्षा, माहौल और अवसर न मिलने के कारण गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं. कानून बदलकर हम ऐसे लाखों बच्चों से भी सुधरने का अवसर छीन लेंगे.
दिल्ली गैंगरेप कांड के बाद बनी जस्टिस वर्मा कमेटी ने स्पष्ट कहा है कि वह नाबालिग की उम्र कम करने के पक्ष में नहीं है. जस्टिस वर्मा का यह सुझाव हमें ऐसे ही स्वीकार करना चाहिए जैसे हमने उनके बाकी सुझाव स्वीकार किए हैं.
हमारे लिए शर्मनाक यह भी है कि बिना परिस्थितियों को समझे हमारा मीडिया 6ठें रेपिस्ट को ‘दरिंदा’ लिख रहा है. सवाल यह है कि एक नाबालिग दरिंदा कैसे हो सकता है? हमें यह समझना होगा कि यह रेपिस्ट दरिंदा है या फिर हमारा समाज और सिस्टम दरिंदगी कर रहा है.
मीडिया का कैमरा इस कांड के बाद इस आरोपी के घर-गांव तक पहुंचा. लेकिन क्या किसी ने भी यह बताया कि उसका परिवार किस हालात में रहता है. और जिन्होंने यह बताया कि उसका परिवार किस हालात में रहता है क्या उन्होंने यह बताया कि उसके परिवार को सामाजिक कार्य विभाग द्वारा संचालित योजनाओं के लाभ मिल रहे थे या नहीं?
जब पूरी व्यवस्था इस नाबालिग रेपिस्ट और इसके परिवारों के हक़ मार रही थी, समाज कल्याण अधिकारी उसके परिवार के हिस्से का पैसा डकार रहे थे, जन प्रतिनिधियों ने उसके (और उस जैसे हजारों के) परिवारों से नज़रें फेर ली थी तब हमने अपनी आंखे मूंद ली थी. लेकिन जब विषम परिस्थितियों में रहते हुए वह बलात्कारी बन गया तो हम उसे फांसी पर लटकाकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना चाहते हैं.
हमें यह भी समझना होगा कि भारत में शराब पीने की अधिकृत आयु 21 वर्ष है, अमेरिका में भी यह 21 ही है जबकि कनाडा के कुछ हिस्सों में 19 और ब्रिटेन में यह उम्र 18 वर्ष है. हमारे अपने देश में वोट देने का अधिकार भी 18 साल से अधिक उम्र के नागरिकों को ही मिल पाता है. यही नहीं, लड़कों के लिए शादी करने की उम्र 21 और लड़कियों के लिए 18 वर्ष निर्धारित है. तमाम कानूनों और संविधान के तहत हम 18 वर्ष से कम उम्र के व्यक्ति को इस लायक नहीं मानते कि वह परिवार का बोझ उठा सके, देश के लिए सही नेतृत्व चुन सके और शराब पी सके तो हम अपराध के मामलों में बालिग होने की उम्र 18 से कम किस आधार पर तय कर सकते हैं?
हमने बाकी मामलों में बालिग होने की उम्र 18 इसलिए ही रखी हैं क्योंकि हम मानते हैं कि 18 वर्ष से कम उम्र का नागरिक सही फैसले नहीं ले सकते और जो सही फैसले नहीं ले सकते क्या उसे सुधरने का एक मौका नहीं दिया जाना चाहिए?
नाबालिग रेपिस्ट ने जो किया है उसे किसी भी परिस्थिति में सही नहीं ठहराया जा सकता. वह अपराध है और रहेगा लेकिन इस मामले में हमें यह भी समझना होगा कि वह रेपिस्ट किन हालातों से गुज़रा है और यह अपराध करते वक्त उसकी मानसिक स्थिति क्या थी. कानून बदलकर उसे फांसी पर लटका देना समस्या के पेड़ की फुलची काटना मात्र होगा. इस तरह के अपराधों की जड़ काटने के लिए हमें अपनी सामाजिक व्यवस्था को बदलना होगा. बच्चों को उनके मूल अधिकार शत-प्रतिशत देना सुनिश्चित करना होगा और किशोर पुनर्वास और न्याय व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करने होंगे.