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क़सूर महज़ ये कि मुसलमान हैं …

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published January 19, 2013 1 View
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12 Min Read
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Pravin Kumar Singh for BeyondHeadlines

अठारह साल का आमिर जब जेल से बाहर निकला तो बत्तीस साल का हो चुका था. उसके जीवन का सबसे अनमोल दौर जेल की काल-कोठरी में खत्म हो गया. उसने कभी जहाज़ को आसमान में उड़ते देख कर उसे उड़ाने, यानी पायलट बनने के सपने देखे थे. लेकिन सपना महज़ सपना बन कर रह गया. इसी तरह मक़बूल शाह अपना अठारहवां बसंत भी नहीं देख सका था कि दिल्ली पुलिस ने आतंकवादी होने के आरोप में उसे गिरफ्तार कर लिया. वह जब जेल की चारदीवारी से बाहर आया तब तक चैदह साल का अर्सा गुजर चुका था. इतने दिनों में मक़बूल का सब कुछ उजड़ गया था.

ये कहानी केवल आमिर और मकबूल की नहीं है. दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल द्वारा आतंकवाद के आरोप में पकड़े गए सोलह लोगों को बाकायदा अदालतों ने बाइज्जत रिहा कर दिया है. ये सभी वर्षों जेल में रहे. हाल ही में गुजरात में भी दहशतगर्दी के आरोप में बंद ग्यारह लोग और गोधरा में साठ लोग रिहा हुए. पिछले साल आंध्र प्रदेश में भी इक्कीस लोग बरी किए गए. अन्य राज्यों से भी जो आतंकवाद के आरोप में पकड़े गए थे, उसमे कई लोग रिहा हुए हैं. ये आंकड़े देश के अलग-अलग राज्यों से हैं, मगर इन सबमें एक समानता यह है कि ये सभी एक ही कौम के हैं, यानी ‘मुसलमान’…

आज खुद को सभ्य समाज का हिस्सा कहने वाले कई लोग निःसंकोच कहते हैं कि ‘‘मुस्लिम इज नॉट टेररिस्ट, बट ऑल टेररिस्ट आर मुस्लिम्स’’ जो नवयुवक आतंकवाद के आरोप से बरी हुए है, वे ज्यादातर डाक्टर, इंजीनियर, पत्रकार हैं, उच्च शिक्षित है या शिक्षा ग्रहण कर रहे थे. ये तमाम लोग हमारे समाज के जिम्मेदार और इज्जतदार शहरी बन सकते थे. क्या कोई इंसान पुलिस की थर्ड डिग्री और आतंकवादी होने का दंश झेलने और वर्षों बिना किसी अपराध के जेल में बंद रहने के बाद सहज जिंदगी गुजार सकता है? क्या फिर से इनकी जिंदगी को पटरी पर लाया जा सकता है? क्या फिर इन्हें समाज की मुख्यधारा में शामिल करना इतना आसान होगा? इस तरह के व्यवहार को झेलने के बाद किसी भी व्यक्ति के मन में किस तरह का विचार उत्पन्न होगा?

मालेगांव विस्फोट कांड के आरोपी सात मुस्लिम युवकों की अभी बस जमानत हुई है, केस वापस नहीं हुआ है, जबकि स्वामी असीमानंद ने इस मामले में खुद गुनाह कबूल कर लिया है. यह महज संयोग ही था. वरना पता नहीं उन सात निर्दोष युवकों को कब तक जेल में सड़ना पड़ता. सवाल है कि जब मालेगांव विस्फोट कांड के लिए किसी ने अपना गुनाह कबूल कर लिया उसके बाद भी झूठे आरोप में फंसाए गए युवकों को सिर्फ ज़मानत पर क्यों छोड़ा गया? उन्हें आरोपों से पूरी तरह मुक्त क्यों नहीं माना जा सकता? यह सही है कि देश में हुए कई बम विस्फोट की घटनाओं से धन-जन की बहुत क्षति हुई. लेकिन उन घटनाओं के लिए निर्दोष युवकों पर गुनाह की जिम्मेदारी थोपना कितना उचित है?

उत्तर प्रदेश में स्पेशल टास्क फोर्स ने सन् 2007 में डॉक्टर तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद को आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार किया. खालिद मुजाहिद के परिजनों ने जब सूचना का अधिकार कानून के तहत जौनपुर के पुलिस अधीक्षक से गिरफ्तारी की बाबत सूचना मांगी तो उन्हें बताया गया कि वह 16 दिसंबर को मडि़याहॅू (जौनपुर) से पकड़ा गया. जबकि एसटीएफ ने दोनों की गिरफ्तारी बाईस दिसंबर बाराबंकी से दिखाया है. इसी तरह, हाल ही में तारिक कासमी ने जेल से पत्र लिखा कि जेल में उसके साथ भयानक सांप्रदायिक भेदभाव किया जाता है और इतनी कठोर यातनाएं दी जाती हैं जो बताना मुश्किल है. ऐसा लगने लगा है कि आत्महत्या ही आखिरी विकल्प है.

ये महज दो मामले नहीं हैं. उत्तर प्रदेश के विभिन्न जेलों में लगभग चैसठ लोग बंद हैं. जब भी किसी ऐसे व्यक्ति को पुलिस द्वारा पकड़ा जाता है तो मीडिया, विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इन मामलों को ज्यादा से ज्यादा सनसनीखेज बना कर पेश किया जाता है. मीडिया में काम करने वाले पत्रकार कहे जाने वाले लोग शायद ही कभी इनका पक्ष भी सामने लाने की कोशिश करते हों. बल्कि एक तरह से महज आरोप भर में पकड़े जाने के बाद इनका मीडिया ट्रायल शुरू हो जाता है. इसके बाद ये सभी सिर्फ आतंकवादी के रूप में पहचाने जाने लगते है. लेकिन जब आतंकवाद के मामलों में ये लोग र्निदोष साबित होकर बरी हो जाते हैं तो इनसे संबंधित खबरों कों मीडिया में जरा भी जगह नहीं मिल पातीं. इनके न्याय के लिए उठने वाली आवाज ज्यादा से ज्यादा उर्दू मीडिया तक सिमट कर रह जाती है.

अगर ऐसे आरोपियों के साथ न्याय की बात करें तो मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की ओर से देश भर में हुई तमाम गिरफ्तारियों के न्यायिक जांच की मांग करने के बावजूद अब तक उत्तर प्रदेश में 2007 में गिरफ्तार सिर्फ तारिक कासमी और खालिद के मामलों की जांच के लिए जस्टिस निमेष आयोग गठित किया गया. इस आयोग को छह माह में रिपोर्ट देना था. लेकिन लगभग पांच साल समय गुजर जाने के बावजूद अब तक इस संबंध में कोई रिपोर्ट पेश नहीं की गई. इसकी मांग उठने पर राज्य की ओर से कहा जाता है कि जांच करने से पुलिस का मनोबल गिर जाएगा. किसी लोकतंत्र में एक पक्ष को सुनना कैसा न्याय है?

पिछले कुछ सालों में उत्तर प्रदेश का आजमगढ़ जनपद को ‘‘आतंकवाद के नर्सरी’’ के रूप में बदनाम किया जा चुका है, क्योंकि आतंकवाद के मामलों में वहां से दस लोग गिरफ्तार हुए. आज हालत यह है कि अगर आज़मगढ़ से किसी भी तरह जुड़े केवल मुसलमान ही नहीं, हिंदू को भी यूरोप में कहीं जाना हो, तो वीजा मिलना मुश्किल है. यों आजकल बिहार के दरभंगा जिले को नए आजमगढ़ के रूप में जाना जाने लगा है, जहां से छह युवकों को आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार किया गया.

बदलते हुए समाज की हकीक़त समझते हुए मुस्लिम समुदाय ने भी शिक्षा को सबसे ज्यादा अहमियत दिया है. ये अपने बच्चों को आधुनिक शिक्षा देने के लिए शहरों में भेज रहे हैं. लेकिन आतंकवाद के आरोप में जो नवयुवक पकड़े गए हैं, उनके परिजनों में आज भय बैठ गया है. इन्हें लगने लगा है कि बच्चों को पढ़ाना ‘‘जुर्म’’ है. किन्हीं वजहों से किसी समुदाय के भीतर यह विचार आ जाए तो उस समुदाय की स्थिति समझी जा सकती है. क्या इन हालात में जीते-मरते समुदाय के तरक्की करने या नया सोचने की उम्मीद करने का हक बच जाता है?

उत्तर प्रदेश सरकार ने रामप्रकाश गुप्ता के शासन काल में सन् 2001 में एक जीओं निकाला था कि प्रत्येक पुलिस थाना क्षेत्र का जो मुसलमान घर से बाहर हो उसका पंजीकरण किया जाए. इस तरह की प्रोफाइलिंग राज्य की ओर से किया जाने वाला भेदभाव नहीं तो क्या है? सवाल है कि आज तक जो लोग आतंकवाद के आरोप से बेकसूर साबित होकर बरी हुए हैं, उनके लिए क्या किया गया है? अब तक केवल आंध्र प्रदेश में ही कुछ लोगों को मुआवजा मिला है. लेकिन कई लोगों ने मुआवजे को ठुकरा दिया और सरकार से बेगुनाही के प्रमाण पत्र की मांग की. इधर देश भर में कई जगह इस तरह के कार्यक्रम हुए जिसमें मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और प्रगतिशील नेताओं ने ऐसे गिरफ्तार किए गए बेकसूर लोगों को फंसाने वालो को सजा के दायरे में लाने की मांग की. साथ ही जो बिना किसी सजा के उम्र का एक अच्छा हिस्सा जेल में गुजार चुके हैं, उन्हें सरकारी नौकरी और पुर्नवास के लिए समुचित व्यवस्था भी की जाए.

विगत दिनों वामपंथी सांसद डी राजा और कांग्रेस के मणिशंकर अय्यर के नेतृत्व में धर्मर्निरपेक्ष दलो के सांसदो का सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल प्रधानमंत्री से मिलकर इस बाबत जानकरी दी एवं सीपीएम के महासचिव प्रकाश करात, आमिर, मकबूल शाह और कई ऐसे भुक्तभोगियों को लेकर राष्ट्रपति से मुलाकात किये.

कई राजनीतिज्ञों को अब लगने लगा है कि यह एक बड़ा मुद्दा है. कोई भी दल इसे गवाना नहीं चाहता है. संसद के अन्दर सबसे पहले सपा के सांसद उक्त विषय पर चर्चा करने के लिए अग्रसर दिखे. लेकिन बीते दिनों इस विषय पर मावलंकर हाल में सम्पन्न राष्ट्रीय सम्मेलन में घोषणा के बावजूद सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह का न आना आश्चर्यजनक रहा. कार्यक्रम में मुस्लिम जनप्रतिनिधि इस विषय पर रोष जाहिर करते दिखे.

सच्चाई यह है कि केन्द्रीय और राज्य सरकारों की ओर से इस संबंध में किसी गंभीर पहल की उम्मीद बिल्कुल नहीं दिखाई देती. यह बेवजह नहीं है कि बेकसूर नौजवानों की गिरफ्तारियों से मुसलमानों में मायूसी, हताशा और गुस्सा भी बढ़ा है. अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि अगर इस संबंध में किसी कार्यक्रम का आयोजन होता है तो उनमें पर्दानशीं महिलाओं तक की तादाद अच्छी-खासी संख्या में होती है. क्या यह किसी संवेदनशील समाज या जिम्मेदार राज्य के लिए चिंता की बात नहीं है?

इस समूचे घटनाक्रम पर मंथन करने के बाद फिलस्तीन की कवयित्री सुजैन अब्दल्लाह की कविता याद आती है. उन्होंने लिखा है- ‘छीन लो उसका भोजन पानी/ बना दो घर-द्वार को युद्ध का मैदान/ हमला बोलो उस पर बार-बार, हर तरफ से/ दिन में, और खास कर रात के अंधियारे में/ उजाड़ दो उसका घर, जला डालो खेत-खलिहान/ कत्ल कर दो उसके प्रियजनों का/ शाबास! तुमने आत्मघातियों की पूरी एक फौज पैदा कर दी…!’

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