Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines
किसी भी राष्ट्र के विकास को समझने के लिए वहां रह रहे नागरिकों के स्वास्थ्य को समझना ज़रूरी होता है. नागरिकों का बेहतर स्वास्थ्य राष्ट्र की प्रगति को तीव्रता प्रदान करता है. दुर्भाग्य से हिन्दुस्तान में स्वास्थ्य के प्रति नागरिकों में तो अचिंता है ही साथ ही साथ हमारी सरकारों के पास भी कोई नियोजित ढांचागत व्यवस्था नहीं है जो देश के प्रत्येक नागरिकों के स्वास्थ्य का ख्याल रख सके. आंकड़ें बताते हैं कि देश की बीमार स्वास्थ्य व्यवस्था प्रत्येक साल तीन करोड़ साठ लाख लोगों को गरीब बना रही है. और सबसे चौंकाने वाला तथ्य यह है कि स्वास्थ्य सेवाओं से संबंधित खर्च के कारण भारत की आबादी का लगभग 3 फीसदी हिस्सा हर साल गरीबी रेखा के नीचे फिसल जाता है.
एक सच यह भी है कि हमारा देश की सेहत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च के मामले में बेहद खराब है. आजादी के 65 साल बाद भी देश की कुल आय का दो फीसद हिस्सा भी स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च नहीं हो पा रहा है. भारत स्वास्थ्य के क्षेत्र में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित मानकों पर खरा नहीं उतरता. आंकड़ें बताते हैं कि हमारा देश इस क्षेत्र में काफी पीछे चल रहा है. धन के मामले में देखें तो श्रीलंका हमसे आगे हैं. श्रीलंका में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति 30 डालर खर्च करता है जबकि भारत में केवल सात डालर ही खर्च होते हैं. 11वीं योजना में स्वास्थ्य क्षेत्र में 1,40,135 करोड़ रुपए निर्धारित किए गए थे जबकि जारी किए गए सिर्फ 93,981 करोड़ रुपए और खर्च किए गए 89,576 करोड़ रुपए. और कितना पैसा घोटाला किया गया होगा, यह बहस का एक अलग मुद्दा है.
तमाम स्थितियों का अध्ययन करने और योजना आयोग की संचालन समिति की सिफारिशों के बाद 12वीं योजना में स्वास्थ्य क्षेत्र की राशि को तीन गुना से अधिक बढ़ाते हुए 3 लाख 18 हजार करोड़ रुपए किये जाने की बात की जा रही है. इस लिहाज से वर्ष 2013-14 के बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए 45 से 50 हजार करोड़ रुपए मिलने की संभावना है. अब इस पर अमल होता है या नहीं, यह तो बजट पेश होने के बाद भी पता चल पाएगा.
बजट से हटकर बहस का एक दूसरा पहलू यह भी है कि स्वास्थ्य के नाम पर आज लोगों को जितना डराया जा रहा है, उतना ध्यान स्वस्थ वातावरण मुहैया कराने पर दिया जाता तो शायद आज हमारे देश के भविष्य कुपोषण का शिकार नहीं होते, देश की जन्मदात्रियां रक्तआल्पता (एनिमिया) के कारण मौत की नींद नहीं सोती. स्वस्थ बालक का जन्म होता और वह आजीवन स्वस्थ रहकर किसान अथवा जवान कि भूमिका में देश की सेवा करता.
यह कैसी विडंबना है कि आज हमारे देश की स्वास्थ्य नीति का ताना-बाना बीमारों को ठीक करने के इर्द-गिर्द घूम रही है, जबकि नीति निर्धारण बीमारी को खत्म करने पर केन्द्रित होने चाहिए. अपने देश में मुख्यतः आयुर्वेद, होमियोपैथ और एलोपैथ पद्धति से बीमारों का इलाज होता है. जिसमें सबसे ज्यादा एलोपैथिक पद्धति अथवा अंग्रेजी दवाइयों के माध्यम से इलाज किया जा रहा है. स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े लोगों का मानना है कि अंग्रेजी दवाइयों से इलाज कराने में जिस अनुपात से फायदा मिलता है, उसी अनुपात से इसके नुकसान भी है.
इतना ही नहीं महंगाई के इस दौर में लोगों के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च कर पाना बहुत मुश्किल हो रहा है. ऐसे में बीमारी से जो मार पड़ रही है, वह तो है ही साथ में आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ता है. इन सभी समस्याओं पर ध्यान देने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वास्थ्य की समस्या राष्ट्र के विकास में बहुत बड़ी बाधक है.
ऐसे में देश के प्रत्येक नागरिक को स्वस्थ रखने के लिए सरकारी नीति बननी चाहिए न कि बीमार को स्वस्थ करने के लिए. यदि कोई कहे कि आखिर में सम्रगता में स्वास्थ्य पर नीति बनाते समय किन बातों पर ध्यान देना चाहिए. इसके लिए सबसे पहले हमें देश की स्वास्थ्य व्यवस्था को नागरिकों के उम्र के हिसाब से तीन भागों में विभक्त करना चाहिए. 0-25 वर्ष तक, 26-59 वर्ष तक और 60 से मृत्युपर्यन्त. शुरू के 25 वर्ष और 60 वर्ष के बाद के नागरिकों के स्वास्थ्य की पूरी व्यवस्था सरकार को करनी चाहिए. जहाँ तक 26-59 वर्ष तक के नागरिकों के स्वास्थ्य का प्रश्न है तो इन नागरिकों को अनिवार्य रूप से राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत लाना चाहिए.
शुरू के 25 वर्ष अपने नागरिक को उत्पादक योग्य बनाने का समय है. ऐसे में अगर देश का नागरिक आर्थिक कारणों से खुद को स्वस्थ रखने में नाकाम होता है तो निश्चित रूप से हम जिस उत्पादक शक्ति (मानव संसाधन) का निर्माण कर रहे होते हैं, उसकी नींव कमजोर हो जायेगी और कमजोर नींव पर मजबूत इमारत खड़ा करना संभव नहीं होता है. ऐसे में किसी भी लोककल्याणकारी राज्य-सरकार का यह महत्वपूर्ण दायित्व होता है कि वह अपने उत्पादन शक्ति के नींव को मजबूत करे. अब बारी आती है 26-59 साल के नागरिकों पर ध्यान देने की. इस उम्र के नागरिक सामान्यतः कामकाजी होते हैं और देश के विकास में किसी न किसी रूप से उत्पादन शक्ति बन कर सहयोग कर रहे होते हैं. चाहे वे किसान के रूप में, जवान के रूप में अथवा किसी व्यवसायी के रूप में हो कुछ न कुछ उत्पादन कर ही रहे होते हैं. और जब हमारी नींव मजबूत रहेगी तो निश्चित ही इस उम्र में उत्पादन शक्तियाँ इमारत भी मज़बूत बनाने में सक्षम व सफल रहेंगी और अपनी उत्पादकता का शत् प्रतिशत देश हित में अर्पण कर पायेंगी. इनके स्वास्थ्य की देखभाल के लिए इनको राष्ट्रीय बीमा योजना के अंतर्गत लाने की ज़रूरत है. एक बार स्वास्थ्य बीमा करा लिया और इनका इलाज स्वास्थ्य बीमा कार्ड के माध्यम से होने लगेगा. इन्हें भी अपने हाथ से डाक्टर को रूपये देने की ज़रूरत नहीं पड़े इस तरह की व्यवस्था करने की आवश्यकता है. अब बात करते हैं देश की सेवा कर चुके और बुढ़ापे की ओर अग्रसर 60 वर्ष की आयु पार कर चुके नागरिकों के स्वास्थ्य की। इनके स्वास्थ्य की जिम्मेदारी भी सरकार को पूरी तरह उठानी चाहिए.
उपरोक्त बातों से सार रूप में यह कहने का प्रयास कर रहा हूं कि स्वास्थ्य पर किसी भी सुरत में नागरिकों पर आर्थिक दबाव न आने पाएं. चलते-चलते यह भी यह बताता चलूं कि इस बार में कुछ हिस्सा सरकार को अपनी दवा कंपनी खोलने के लिए भी रखना चाहिए, क्योंकि आंकड़ें बताते हैं कि एक आम आदमी अपनी हेल्थ बजट का 72-78 फीसदी खर्च सिर्फ दवाओं पर करता है. और इस देश में 25 हज़ार से अधिक दवा कम्पनियां हैं, जिसमें सरकारी सिर्फ 5 हैं और पांचों दवा कम्पनियां हमेशा घाटे में रही हैं, और निजी दवा कम्पनियां आम जनता को लूट कर मौज काट रही हैं.