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आरटीआई को कमज़ोर करने की साज़िश

Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

अगली बार अगर अपने भाषण में राहुल गांधी, सोनिया गांधी या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सूचना के अधिकार की बात कहें तो आप उनका नाम लेकर ज़मीन पर थूक दें. आपके पास उनके झूठ को निगलने से इतर और भी विकल्प तो होने चाहिए ना.

दरअसल, यूपीए सरकार सूचना का अधिकार लागू करने का पूरा क्रेडिट लेने में कोई कसर नहीं छोड़ती. लेकिन ज़मीनी हकीक़त यह है कि सीधे-साधे सवालों के भी जबाव अब सूचना के अधिकार कानून के तहत लेने के लिए प्रशिक्षित आरटीआई कार्यकर्ताओं तक को पापड़ बेलने पड़ रहे हैं.

हालात यह है कि सूचना देना तो दूर की बात, अब तो सूचना अधिकारी आवेदन लेने से ही साफ़ इंकार कर दे रहे हैं. और जो आवेदन स्वीकार कर भी लेते हैं तो जबाव के बजाए गोल-मोल सूचनाएं भेजकर पल्ला झाड़ लेते हैं. राज्यों की राजधानियों या छोटे-छोटे शहरों की बात तो छोड़ ही दीजिए, ऐसा देश की राजधानी दिल्ली में भी हो रहा है. हमने गृह विभाग को कई बार आरटीआई दायर की लेकिन हर बार आरटीआई वापस आ गई.

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जब हमने दिल्ली सरकार के गृह विभाग के जन सूचना अधिकारी को आरटीआई स्पीड पोस्ट के माध्यम से भेजी तो एक हफ्ते के बाद आरटीआई डाक के माध्यम से वापस आ गई. लिफाफे पर लिखा था, “यहां चार जन सूचना अधिकारी हैं, बिना पद कोई नहीं लेता.” जबकि सूचना के अधिकार अधिसूचना में स्षस्ट तौर पर लिखा है कि कोई भी जन सूचना अधिकारी आपके आवेदन लेने से इंकार नहीं कर सकता. यही नहीं, केन्द्रीय सूचना आयोग के एक निर्णय  के मुताबिक एक ही विभाग में यदि एक से अधिक लोक सूचना अधिकारी हैं तो उस स्थिति में जिस के पास आवेदन जाता है, उसे ही सूचना उपलब्ध करानी होगी.

हमने  दिल्ली सरकार के इस गृह विभाग के वेबसाईट को सर्च किया, लेकिन जन सूचना अधिकारी का कहीं कोई नाम नहीं है. जबकि सूचना के अधिकार की धारा-4(1)(b) के तहत यह जानकारी वेबसाईट पर होना अनिवार्य था. काफी मेहनत के बाद सीआईसी के साईट पर एक ऑर्डर की कॉपी से पता चला कि ज्वाईंट सेक्रेटरी (होम) जन सूचना अधिकारी हैं. फिर क्या था. हमने पुनः उनके नाम व पते से अपने आरटीआई दिल्ली सरकार के गृह विभाग को भेज दिया. लेकिन आरटीआई फिर लौट आई. इस बार इस पत्र पर डाकिये ने लिखा था कि “बिना सेक्शन के यह अधूरा पता है, लेने से इंकार.”

ऐसा सिर्फ हमारी आरटीआई के साथ ही नहीं हो रहा है. राजनीतिक दल वेल्फेयर पार्टी ऑफ इंडिया के महासचिव डॉ. कासिम रसूल इलियास के साथ भी ठीक ऐसा ही हुआ है. उन्होंने भी जब 17 दिसम्बर को अपनी आरटीआई दिल्ली सरकार के गृह विभाग को भेजा तो उनकी आरटीआई वापस कर दी गई और इस पर डाकिये ने लिखा था कि “ यहां जन सूचना अधिकारी बहुत से हैं, कोई नहीं लेता.” उन्होंने पुनः जन सूचना अधिकारी के नाम का पता लगाकर अपनी आरटीआई को भेजा तो पुनः दो हफ्ते के बाद उनकी आरटीआई वापस आ गई  और इस पर लिखा था कि “ पूछने पर बताया गया कि इन नाम का कोई जन सूचना अधिकारी नहीं है. इसलिए लेने से इंकार.” सबसे दिलचस्प बात यह है कि इस आरटीआई को विभाग के लोग फाड़ कर देख भी चुके थे.

आरटीआई कानून की दुर्दशा के यह अकेले उदाहरण नहीं है. दिल्ली की जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनीवर्सिटी तो इससे भी दो क़दम आगे है. जब हम यहां आरटीआई दायर करने गए तो हमारे साथ बदतमीज़ी की गई और आवेदन लेने से इंकार कर दिया गया. आवेदन डाक के माध्यम से भेजने के बाद इसकी हमने लिखित शिकायत सूचना के अधिकार की धारा-18 के तहत केन्द्रीय सूचना आयोग को की, लेकिन आयोग ने आवेदन दुबारा भेजने की बात कहकर हमारी शिकायत को निरस्त कर दिया. जबकि सूचना का आधिकार की धारा-20(1) यह भी बताती है कि लोक सूचना अधिकारी यदि आवेदन लेने से इंकार करता है, अथवा परेशान करता है तो उसकी शिकायत सूचना आयोग से की जा सकती है. यही नहीं, अगर वह अधिकारी तय समय-सीमा में सूचना उपलब्ध नहीं कराता अथवा गलत या भ्रामक जानकारी देता है तो ऐसी स्थिति में 250 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से 25000 रुपए तक का जुर्माना उस के वेतन में से काटा जा सकता है. साथ ही उसे सूचना भी देनी होगी. लेकिन आयोग कभी जुर्माना नहीं लगाती इसलिए दिन प्रतिदिन जन सूचना अधिकारियों का मन बढ़ता ही जा रहा है और आरटीआई कमज़ोर होती जा रही है.

और अंत में यह उदाहरण आपको न सिर्फ हमारे नेताओं और सिस्टम के मुंह पर थूकने के लिए बल्कि हंसने के लिए भी मजबूर कर देगा. एक व्यक्ति ने आरटीआई आवेदन में अपने नाम के नीचे पत्रकार लिख दिया तो जन सूचना अधिकारी ने यह कहकर सूचना देने से मना कर दिया कि सूचना का अधिकार सिर्फ भारतीय नागरिकों के लिए है, पत्रकारों के लिए नहीं.

और हां, यह तो हमने बताया ही नहीं कि एक आरटीआई दायर करने में ही कम से कम 50 रुपये का खर्चा आ जाता है. अब ज़रा सोचिए कि जो लोग अपना वक्त और पैसा इस आस में लगाते हैं कि जानकारियां बाहर आएंगी तो सिस्टम बेहतर होगा, जब वह अपनी आरटीआई को बेरंग लौटा देखते होंगे तो उनके दिल और दिमाग पर क्या बीतती होगी? चलते-चलते बस इतना ही कहूंगा कि भले ही सरकार आरटीआई का गला घोंटने की साजिशें रच रही हो, हमारी जिम्मेदारी इसे बचाने की है, क्योंकि बहुत से घोटाले भी इसी से खुले हैं. तो जबाव मिले न मिले, आरीटाई दायर करते रहिए. कई बार सिर्फ सवाल पूछने से ही हालात बेहतर हो जाते हैं.

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