मुंबई हमला: कभी न भर सकने वाला घाव

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Ashish Shukla for BeyondHeadlines

भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई में नवम्बर 2008 में हुए आतंकवादी हमले को चार साल से भी अधिक समय हो चुका है, लेकिन उसकी पीड़ा आज भी हमें महसूस होती है. मुंबई एक कभी न रुकने वाला शहर है, जो अपनी जीवटता के लिए विख्यात है परन्तु डेविड कोलमन हेडली, जिसे पहले दावूद गिलानी के नाम से भी जाना जाता था, ने शांतिप्रिय भारतीयों को वह घाव दिया है जो शायद ही कभी भरे. अभी हाल ही में एक अमेरिकी अदालत ने हेडली को आतंकवादी क़रार देते हुए 35 साल के कारावास की सज़ा दी है. इतनी कम सज़ा का कारण अमेरिकी सरकार और हेडली के बीच का एक समझौता है जिसके अंतर्गत उसने जांच में काफी सहयोग किया था. हालांकि न्यायाधीश इस क़रार के पक्ष में नहीं थे और उनका मत था कि इस कार्य के लिए उसे आसानी से मौत की सज़ा दी जा सकती थी.

किसी भी तार्किक व्यक्ति के मन में इस सम्बन्ध में कुछ स्वाभाविक सवाल उठ सकते हैं. क्या मुंबई हमले में शामिल आतंकवादी के लिए यह उपयुक्त दंड है? क्या यह उस अमेरिका को शोभा देता है जो विश्व में प्रजातंत्र और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए आवाज़ उठाने का दावा करता रहता है? क्या यह भविष्य में अमेरिका या किसी अन्य  देश पर होने वाले आतंकवादी हमलों को रोकने में सहायक सिद्ध होगा? क्या यह आतंकवाद के विरुद्ध जारी युद्ध के उद्देश्यों के अनुरूप है? और सबसे महत्वपूर्ण यह कि क्या इससे मानवता को भय से आजाद करने में कुछ सकारात्मक लाभ होगा? ज्ञान, तर्क और न्याय के किसी भी मानक के आधार पर इन प्रश्नों के सकारात्मक उत्तर ढूंढना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी है.

The Complexity of Headley Phenomenon

यह हमें सोचने पर मजबूर कर देता है कि हेडली किस स्वभाव का व्यक्ति था? किसी व्यक्ति के स्वभाव का विश्लेषण कारण तो वैसे ही कठिन कार्य माना जाता है, लेकिन जटिलता और भी बढ़ जाती है जब वह व्यक्ति हेडली जैसा आतंकवादी हो. आतंकवादी हेडली और पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्ना में कम से कम एक समानता है. दोनों का व्यक्तित्व संशय पैदा करने वाला है. जिन्ना पाकिस्तान में कायदे-आज़म के रुप में मशहूर हैं तथा उन्हें  बहुत से लोग आधुनिकतावादी और असाम्प्रदायिक मानते हैं. वास्तव में यह वही व्यक्ति हैं जिन्होंने एक तरफ तो साम्प्रदायिक “द्विराष्ट्र सिद्धांत” को आधार बनाकर पाकिस्तान के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया तथा दूसरी और पाकिस्तान की क़ानून निर्मात्री सभा में यह भी कहा कि सभी लोग अपने अपने पूर्जा-स्थलों पर जाने के लिए स्वतंत्र हैं और राज्य का इन सबसे कोई लेना-देना नहीं है. वस्तुतः जिन्ना एक साथ समाज के कई गुटों, जो परस्पर विरोधी विचार रखते थे, को यह आश्वासन दिया कि उनके हितों को प्राथमिकता दी जायेगी और उनकी इच्छाओं का नए जन्मे राज्य पाकिस्तान में सम्मान होगा. हालांकि, यह कभी न हो सका और उनकी मृत्यु के बाद जल्द ही आतंरिक गतिरोध उभरकर सामने आ गए जिससे आम जनता की स्थिति दिनों-दिन बिगडती चली गयी.  आज तो यह हालत है कि पाकिस्तान को “दुनिया के नक़्शे पर सबसे खतरनाक जगह” माना जाता हैं जहाँ शांति और समृद्धिपूर्ण जीवन तो दूर कोई भी अपनी स्वाभाविक मौत मरने को लेकर भी निश्चित नहीं है.

इसी तरह, हेडली एक तरफ तो डी. ई. ए., एफ. बी. आई. और सी. आई. ए. के अपने अमेरिकी साथियों तो संतुष्ट करने का प्रयास करता रहा तो वहीं दूसरी और पाकिस्तान में बैठे लश्करे-तोइबा, आई. एस. आई. और अल-काएदा के हुक्मरानों के लिए काम करता रहा. उसके अमरीकी और पाकिस्तानी मालिक यह सोचते रहे कि हेडली उनके द्वारा दिए गए कामों में लगा हुआ है लेकिन वास्तविकता तो यह थी कि हेडली ने अपने सभी मालिकों, खासकर अमेरिकी, को बहुत ही चालाकी से धोखा देता रहा और सदैव अपने ही मन के आदेशों का पालन किया.

मीडिया प्रायः इसे “पाकिस्तानी-अमेरिकी”, “आधा अमेरिकी-आधा पाकिस्तानी”, और दोहरा एजेंट जैसी संज्ञा देती रही, जोकि निश्चित रूप से वह था, लेकिन यह उसका आधा-अधूरा ही वर्णन माना जा सकता है. हेडली, एक पाकिस्तानी पिता और अमेरिकी माँ की संतान था जिसे उत्तराधिकार में एक मिली-जुली धूर्तता प्राप्त हुई जिसका उपयोग आगे चलकर उसने अपने लक्ष्यों को हासिल करने में किया. पूछ-ताछ के दौरान यह पता चला कि वह अमेरिकी कम और पाकिस्तानी ज्यादा था. उसने अपनी अमेरीकी पहचान का उपयोग पाकिस्तान आधारित आतंकी संगठनों के लक्ष्यों, जिसमे उसका भी लक्ष्य शामिल था, को हासिल करने में किया. पूछ-ताछ के दौरान उसने बताया कि कैसे वह अमेरिकी पासपोर्ट, जिस पर उसके पिता का नाम अंकित नहीं था, के सहारे कई बार भारत गया और भारतीय अधिकारियों को कोई शक तक न हुआ.

हेडली ने भारतीयों का मजाक उड़ाते हुए उन्हें मूर्ख की संज्ञा से भी नवाजा. उसका यह कहना हमें पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू के उस लेख की याद दिलाता है जिसमे उन्होंने नब्बे प्रतिशत भारतीयों को मूर्ख कहा था. बहुत सारे लोगों, जिनमे मई भी शामिल था, ने उनकी इस बात को लेकर आलोचना की थी. हालांकि, बाद में जब मैंने एस. हुसैन जैदी और राहुल भट्ट की किताब “हेडली एंड आई” पढी तो लगा की काटजू के वक्तव्य में कुछ सच्चाई भी थी. नब्बे प्रतिशत वाली उनकी बात तो सच नहीं है लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है की हमारे समाज में एक वर्ग ऐसा भी है. किताब के सहयोगी लेखक, राहुल भट्ट, भी इसी श्रेणी में आते हैं जिन्होंने पुलिस को हेडली के बारे में बताने के लिए तब भी जहमत न उठाई जबकि उसने अप्रत्यक्ष रूप से मुंबई में एक संभावित हमले का संकेत दिया था. यह काफी आश्चर्यजनक और शर्मनाक है कि न तो उन्होंने तब पुलिस को सम्पर्क करने का प्रयास किया जब, 10 नवम्बर 2008, हेडली ने फ़ोन पर अगले कुछ दिनों तक दक्षिणी मुंबई न जाने की हिदायत दी और न ही तब बताना उचित समझा जब, दिसंबर 2008, हेडली ने एक बार फ़ोन पर बताया कि उसे मुंबई हमले की पहले से जानकारी थी. वह पुलिस के पास तब गए, जब टी. वी. पर यह खबर आ चुकी थी कि आतंकवादी हेडली नवम्बर 2009 में अमेरिका में गिरफ्तार हो गया है और पुलिस को राहुल नाम के व्यक्ति की तलाश है जिसका जिक्र हेडली ने अपने ईमेल में किया था. राहुल ने पुलिस के पास जाने में इतनी देर क्यों लगायी? एकदम साफ़ बात है, वह मजबूरी में पुलिस के पास गए क्योंकि अब तक वह यह जान चुके थे कि जल्द ही पुलिस उन तक पहुँच जाएगी.

यह पूर्व न्यायाधीश काटजू के वक्तव्य में सच्चाई को और पुख्ता बनाता है. हालांकि, मामले के गूढ़ अन्वेषण के पश्चात् यह कहना काफी आसान है कि डेविड हेडली भी कम मूर्ख नहीं था. वह मूर्खों का सरदार था जिसने स्वर्ग का टिकट प्राप्त करने लिए इस्लाम के नाम पर पाकिस्तानी आतंकवादियों की मदद की और भारत में बहुत सारे निर्दोष लोगों को मरने में की. अपने लिए स्वर्ग के टिकट की व्यवस्था के उपरान्त वह अब अपने दिवंगत पिता के लिए अज्र (धार्मिक पुरस्कार) के मंशा के साथ कोपेनहेगन में मुंबई की तरह हिंसा फैलाना चाहता था.

(लेखक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में शोध छात्र हैं.) 

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