Education

मानसिकता बदलने की ज़रूरत है…

Anita Gautam for BeyondHeadlines

नर्सरी एडमिशन हो या आईआईटी का एडमिशन, बच्चे का एडमिशन कहीं भी हो खुशी बहुत होती है. आज कल  एडमिशन का धंधा और स्कूल, कालेजों की दुकान करोड़ों का टर्नओवर कर रही हैं. बच्चे के दो-ढाई साल होते ही प्ले स्कूल में भेजने का रिवाज आधुनिकता की पहचान और फैशन सा हो गया है. एक साल बाद ही तीन-साढे तीन साल के बच्चे का भविष्य शहर के कौन से नामी-गिरामी, मंहगे और इंटरनेशनल स्कूल में हो, मां-बाप, साम-दाम-दंड भेद सब इस्तेमाल करके देखते हैं. प्रयास के तौर पर डोनेशन का फंडा भी अपनाते हैं. डोनेशन के नाम पर प्राइमरी स्कूलों में दाखिले के लिए 2 से 4 लाख रूपये तक लोग देने से नहीं चुकते. डोनेशन और एडमिशन आज एक ही सिक्के के दो पहलू हो गए हैं.

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हर साल शिक्षा विभाग और विभागों की तरह ही कई बातें जैसे शिक्षा पद्धति में नये बदलाव और एडमिशन की प्रक्रिया में कुछ नई सीटें, गरीब बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में आरक्षित सीटों का लुभावना वादा करने की बात करते हैं, पर शायद ही ऐसे प्राइवेट स्कूल गरीब बच्चों को एडमिशन देते हों. अगर गलती से किसी निम्न वर्ग आय के बच्चे को एडमिशन मिल भी जाए तो उस बच्चे के साथ ऐसा सौतेला व्यवहार किया जाता है जैसे वह किसी छूत की बीमारी से पीड़ित है.

कक्षा के छात्र तो छात्र शिक्षक तक उस बच्चे से संक्रमण की बीमारी होने का हवाला देते है, उनका मानना होता है कि ये लोवर मिडल क्लास बच्चे अच्छे बच्चों को अर्थात् हर माह जिन बच्चों के माता-पिता स्कूल फंड में चंदा देते हैं, को बिगाड़ देते हैं, इनके घरों में कोई पढ़ा लिखा नहीं होता, इसलिए ये बच्चे होमवर्क भी नहीं करते, क्लास में ऐसे बच्चों को पढ़ाना बहुत मुश्किल होता है. पर कोई उन शिक्षकों से पूछे कि क्या विद्या की देवी किसी के साथ भेदभाव करती है?

बच्चा तो शुरू से ही कुम्हार की मिट्टी स्वरूप होता है, शिक्षक जैसी शिक्षा देंगे वह वैसा ही बनेगा… बच्चे को अपनी जिंदगी के सुनहरे 14 सालों के 5-6 घंटे, गिरने से लेकर संभलने तक की उस उम्र में अगर कोई अच्छा विद्यालय, अच्छा शिक्षक और अच्छे मित्रों का साथ मिल जाए तो यकीनन वह भी देश का सुनहरा भविष्य हो सकता है. आज के दौर में भी कई ऐसे सफल लोग हैं, जिन्होंने तब तक प्राइवेट स्कूल का मुंह नहीं देखा जब तक कि स्वयं उन्हें अपने बच्चे के एडमिशन के काम्पटिशन में न उतरना पड़ा हो. बच्चा पैदा होते ही मां-बाप के मन में एडमिशन का भूत बैठ जाता है और बच्चे के थोड़ा बडे होते ही उसके इंजीनियर, डाक्टर, सविल सर्विसेज और न जाने क्या-क्या बनाने भूत सवार हो जाता हैं.

आईआईटी में अगर किसी बच्चे का एडमिशन हो जाए तो समझिए मां-बाप गंगा नहा लिये और पूरा का पूरा खानदान तर गया. मां-बाप बच्चे के एडमिशन के लिए लाखों रूपये कर्जा तक लेते हैं, आखिर बच्चे के भविष्य का जो सवाल, फिर वो तो जन्मदाता हैं. पर क्या कभी आपने सोचा है कि क्यों इंटरनेशलन या मिशनरी स्कूल भारत में अपना जाल बिछा रहे हैं? आखिर उनके देश में भी तो बच्चें है, फिर इन्हें भारत और भारत के बच्चों की इतनी चिंता क्यों, वजह साफ है, वो लोग हमारे देश में हमारे बच्चों को अपने देश की शिक्षा प्रणाली वहां का कल्चर सिखाते हैं, उन दुकानों के बच्चों के मन में दूसरे देश, दूसरी संस्कृति, दूसरी सभ्यता, दूसरे देश का पहनावा और वहां का लाइफ स्टाइल तक भाने लगता है.

बच्चा भी चाहता है फटाफट 12वीं पास करके विदेशी यूनिसर्विटी में जाकर पढ़ाई करूं और फिर वहीं किसी मल्टीनेशनल कंपनी में प्रति माह हजारों डालर पाने वाली नौकरी करूं. अब आप समझ रहे होंगे कि ऐसे में किस देश में अधिक उन्नति होगी? यकीनन, दूसरे देश में क्योंकि हमारे देश का होनहार तो दूसरे देश में अपना हुनर दिखा रहा है. उस देश को चमका रहा है, एक सोची समझी रणनीति के तहत हमारा बच्चा इसका शिकार हो जाता है. किन्तु हमारे साथ-साथ सरकार का भी दोष है,जो अपने देश, अपने शहर में बच्चों को शिक्षा का अधिकार सरकारी फाइलों, कलैंडरों और सिर्फ पोस्टरों में देते हैं, बावजूद बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने के.

सरकारी बाबुओं की तरह ही सरकारी शिक्षकों की मानसिकता बदलने की ज़रूरत है, देश में सरकारी नौकरी का अर्थ है, जिंदगी भर आराम और उपर की कमाई की नौकरी. अतः हर सरकारी क्षेत्र के घोटालों की तरह यहां भी नौकरी आवंटन घोटाला होता है. यदि सरकारी स्कूलों के शिक्षक अपने घर ट्युशन नामक ज्ञान देने की अपेक्षा विद्यालय में ही बच्चों को सही और ईमानदारी से शिक्षा का पाठ पढ़ाएं तो लोगों को सरकारी शिक्षा पद्धति पर विश्वास होगा. तभी लोग अंन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा के मॉल में जाने के बदले अपने देश की शिक्षा पद्धति को अपनाएंगे. बच्चों के दिमाग से काम्पटिशन की अपेक्षा स्वदेश के लिए कुछ करने का जज्बा पैदा होगा.

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