सच्चे लोकतंत्र महिलाओं को नंगा नहीं करते

Beyond Headlines
12 Min Read

Samar Anarya

उन्होंने तय किया था कि अगले पुलिसिया हमले का जवाब वह अपने कपड़े उतार के देंगी. उनको समझ आ गया था कि पुलिसिया हमलों और उत्पीड़न को रोकने के और रास्ते नहीं बचे हैं. वे भी इसी देश की नागरिक हैं, पर संविधान द्वारा दिए गये गरिमा के साथ जीने के बुनियादी अधिकार से लैस होने के बावजूद उनको और कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था.

कपड़े उतार देने का फैसला, वह भी सार्वजनिक स्थान पर किसी भी महिला के लिये आसान फैसला नहीं हो सकता. खास तौर पर उस मुल्क में जो आज भी इज्जत  को लेकर उस सामन्ती सोच के साथ जी रहा है और जिसमे मर्यादा की तमाम इबारतें स्त्री देह पर लिखी जाती हैं, वह भी कलम से नहीं बल्कि तलवार से लेकर जौहर और सती तक की स्याही से. उस मुल्क में भी जहाँ इज्जत की इस सामंती परिभाषा को चुनौती देने वाली महिलाओं (और पुरुषों) के लिये  (अ)सम्मान हत्याएं नियति बन जाती हैं .

real democracy don't naked women

पर उड़ीसा के जगतसिंहपुर जिले के गोविन्दपुर गाँव की महिलाओं ने यही फैसला किया था. पोस्को नाम की कंपनी और सत्ता से लेकर विपक्ष तक बैठे उसके दलालों से त्रस्त इन महिलाओं के लिये भी यह फैसला उतना ही मुश्किल रहा होगा जितना किसी और के लिये, मगर उनके लिये शायद कोई और विकल्प बचे भी नहीं थे. विडंबना बस यह थी कि उनका यह प्रतिरोध अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की पूर्व संध्या पर दर्ज होना था. उस दिन जब सदियों के संघर्षों से हासिल इस एक दिन को जीने का समारोह बना देने मुक्ति के तमाम सपनों के लिये लड़ रहे साथी सड़कों पर होते हैं.

उनके खुद से लिये गये होने के बावजूद पोस्को-प्रभावित (मुख्यधारा की मीडिया से प्रभावित उधार लेकर कहूँ तो) इन महिलाओं का यह फैसला उनका अपना फैसला नहीं था. यह उनके जिन्दा रहने भर की लड़ाई के जारी रखने की अनिवार्य शर्त के बतौर उनपर थोप दिया गया फैसला था. यह एक ऐसा फैसला था जिसने मानवाधिकार संगठनों में काम करने वाले हम जैसे लोगों को भी थर्रा कर रख दिया था जिनकी जिंदगी का हर दिन ऐसी ही भयावह खबरों  से जूझते हुए बीतता है.

पर फिर, ऐसा पहली बार भी नहीं हो रहा था. इस फैसले ने जुलाई 2004 की उस निर्मम दोपहर के जख्मों को हरा भर कर दिया था जिस दिन इसी मुल्क के मणिपुर की तमाम माएँ अपने कपड़े उतार इस मुल्क को महफूज़ रखने के दावों वाली सेना की आसाम राइफल्स नाम की टुकड़ी के मुख्यालय के सामने खड़ी हो गयीं थी. यह कहते हुए कि भारतीय सेना.. हमारा बलात्कार करती है.

पर उस दोपहर और इस दोपहर में एक बड़ा अंतर भी था. राष्ट्रीयता और देशप्रेम के तमाम दावों के बावजूद इस मुल्क के हुक्मरानों के लिये मणिपुर हमेशा से एक ‘अशांत’ क्षेत्र रहा है, एक ऐसा क्षेत्र जिसे सिर्फ बलप्रयोग से काबू में रखा जा सकता है. और फिर सेना के लिये बलप्रयोग के मायनों में बलात्कार हमेशा से एक अचूक हथियार के बतौर शामिल रहा है. एक ऐसा हथियार जो न सिर्फ समुदायों को काबू में रखने के काम आता है बल्कि उनको अपमानित कर उनकी प्रतिरोध की क्षमता को हमेशा के लिये तोड़ देने का अचूक नुस्खा भी होता है.

अपनी बेटियों का रोज बलात्कार होते देख रही मणिपुर की माओं का गुस्सा तब छलक आया था. वे ऐसी औरतें थीं जिनका यकीन इस देश और उसकी सेना पर हमेशा हमेशा के लिये खत्म हो चुका था. उनको साफ़ दीखता था कि कैसे उनका अपना होने का दावा करने वाला यह देश उनके साथ  वास्तव में एक आक्रांता देश की तरह पेश आता था. उन्हें दिखता था कि कैसे इस मुल्क की फौज उनके पुरुषों पर हमले करती थी, उनकी महिलाओं का बलात्कार करती थी. उन्हें समझ आता था कि कैसे उनके देश की सरकार इस हिंसा को न केवल न्यायोचित ठहराती थी बल्कि  जख्मों पर नमक छिडकने वाले अंदाज में आसाम राइफल्स के सिपाहियों को ‘पैट्रोलिंग किट’ में अनिवार्य सामग्री के रूप में कंडोम्स देती थी.

जी हाँ, अगर आपको पता न हो तो, आसाम राइफल्स अपने सिपाहियों को पैट्रोलिंग के लिये कंडोम देती है. साफ़ है, कि इसे महिलाओं को बचाने की नहीं बल्कि अपने सिपाहियों को बीमारी से बचाने की चिंता ज्यादा थी. मणिपुर की माओं से यह बर्दाश्त नहीं हुआ था और वे सड़कों पर उतर आयीं थी.

पर उड़ीसा तो मणिपुर से हजारों किलोमीटर दूर है. अशांति से भी इसका कोई खास रिश्ता कभी नहीं रहा कि यहाँ ब्रिटिश साम्राज्य की याद और आजाद भारत के शासकों का प्यारा आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट प्रभावी हो. यहाँ की औरतें मणिपुर की महिलाओं की तरह ‘विदेशी’ यका या इस मुल्क के देशभक्तों के शब्दों में ‘चिंकी’ भी नहीं दिखतीं हैं.
फिर यहाँ की महिलाओं का इस मुल्क की सरकार और पुलिस से विश्वास वैसे ही क्यों छीज गया जैसे मणिपुर की महिलाओं का? यही वह सबसे खतरनाक सवाल है जो पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिति के इस नग्न प्रतिरोध की सूचना देने वाले बयान से उपजता है.  बहुत सादा सा बयान था यह– “और किसी विकल्प के न बचे होने की वजह से गाँव की महिलाओं ने तय किया है कि कल वह पुलिस के सामने नंगी हो जायेंगी.” (नंगी को मैं नग्न भी लिख सकता था पर सांस्कृतिक सुंदरता दमन की भयावहता के साथ अच्छी नहीं लगती).
ऐसा नहीं है कि ऐसे प्रतिरोध में उतरने के पीछे छिपा हुआ दर्द और गुस्सा किसी से छिपाया जा सके पर फिर राज्य और इसके ‘नैतिक’ दलालों में अगर अंधे और बहरे हो जाने की क्षमता न हो तो फर वह राज्य ही क्यों कर हों?
गोविन्दपुर की स्त्रियाँ इस फैसले तक ऐसे ही नहीं पँहुच गयी हैं. वह यहाँ तक इसलिए पँहुची हैं क्योंकि उनको पता है कि राज्य सत्ता ने उन्हें पहले ही पोस्को, और उसकी जैसी कंपनियों को बेच दिया है. उस पोस्को को जो उनके सारे सांविधानिक अधिकारों को मन मर्जी से धता बताती रहती है. वह इस फैसले पर अपने उन परिजनों की लाशों से गुजर कर पँहुची हैं जिनको पोस्को के भाड़े के गुंडों ने हमेशा हमेशा के लिये खामोश कर दिया है. वह इस फैसले पर उस हथियारबंद पुलिस को देख कर पँहुची हैं जो पोस्को प्रोजेक्ट की पर्यावरण अनुमति खारिज हो जाने के बाद भी उनकी जमीनें जबरिया छीन लेने के लिये कुछ भी करने पर आमादा है.
उन्होंने देखा है कि कैसे इस पुलिस ने उनके शांतिपूर्ण प्रतिरोध पर बम फेंक के उनके चार साथियों की निर्मम हत्या कर देने वाले पोस्को के टट्टुओं पर मुकदमा करने के बजाय बिना जांच के उन्हें क्लीन चिट देते हुए प्रदर्शनकारियों पर ही दोष मढ़ दिया कि वे बम बना रहे थे और उसके फट जाने की वजह से मारे गये. भूल जाइये कि एफआईआर करना जनता का अधिकार है कोई भीख नहीं. भूल जाइये कि वह बिना कोई जांच किये फैसला ले रहे हैं, जैसे वह खुद ही न्यायालय हों सिर्फ पुलिस नहीं.
ऐसा भी नहीं कि उन महिलाओं ने ऐसा हमला पहली बार झेला हो. वे तो एल लंबे दौर से ऐसे निर्मम हमलों और पुलिसिया अकर्मण्यता का शिकार रही हैं. उन्होंने देखा है कि कैसे उनके अपनों के खिलाफ फर्जी मुक़दमे कायम किये जाते रहे हैं और कैसे राज्य तंत्र पूरी तरह से पोस्को के साथ खड़ा है.
सन्देश साफ़ है कि राज्य सत्ता ने प्रतिरोध के लोकतांत्रिक और अहिंसक आवाजों को सुनने से इनकार कर दिया है.  ब्रेख्त के अंदाज में कहें तो साफ़ है कि राज्य सत्ता ने विधि के शासन और नागरिकों को बर्खास्त कर अपने लिये पोस्को जैसी नयी जनता चुन लेने का फैसला कर लिया है. साफ़ है कि इसने संविधान के अंदर आने वाली सीमाएं तोड़ कर नागरिकों को अतिवादी कदम उठाने पर मजबूर कर देने का फैसला कर लिया है. अब फिर या तो यह अतिवादी कदम आत्महत्या कर लें जैसे हों जैसा विदर्भ में हो रहा है, या महिलाओं के कपड़े उतार देने जैसे जैसा गोविन्दपुर और मणिपुर की महिलाओं ने तय किया है. या फिर वैसे जैसे मुल्क के तमाम हथियारबंदविद्रोहों ने चुन लिया है कि जो व्यवस्था उन्हें जीने नहीं देती वह उसे जीने नहीं देंगे.
सन्देश साफ़ है कि लड़ाई अब न्याय के लिये बची ही नहीं है. अब तो वह उस जगह आ गयी है जहाँ बस जिन्दा रहने और सुन लिये जाने भर की जंग में अतियों तक जाना पड़ेगा. अब लड़ाई वहाँ है जहाँ एक तरफ जनता को नागरिकता के रजिस्टर से खारिज कर देने पर आमादा  लोग हैं  दूसरी तरफ सबकुछ दाँव पर लगा उसी नागरिकता से मिलने वाले अधिकारों के लिये लड़ रहे लोग.
कहने की जरूरत नहीं है कि सन्देश अच्छे नहीं हैं. न लोकतंत्र के लिये, न नागरिकों के लिये. अब तक मणिपुर, काश्मीर और नागालैंड जैसे परिधि पर पड़े होने को मजबूर राज्यों में पल रहा नैराश्य अब अंदर आने लगा है. हताशा की अति शान्ति के अंत का बायस ही बन सकती है और वह राष्ट्र के भविष्य के लिये ठीक नहीं है. ‘अशांत क्षेत्रों’ में आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पॉवर्स एक्ट से लैस फौजों के सामने कपड़े उतार देने को मजबूर औरतों का होना लोकतंत्र के लिये अक्षम्य अपराध है मगर देश की सीमाओं के बहुत बहुत अंदर खड़ी पुलिस के सामने कपड़े उतार देने को मजबूर औरतों का होना देश के आत्महत्या की तरफ बढ़ रहे होने की तरफ इशारा है. बेहतर होगा कि देश, और देश के लोग, समय रहते चेत जायें.  (Samar Anarya के ब्लॉग से साभार)
Share This Article