Edit/Op-Ed

भरथुआ के ग्रामीणों के इंसाफ को सलाम

Vinod Bandhu for BeyondHeadlines

मुज़फ्फरपुर ज़िले के औराई प्रखंड स्थित भरथुआ के ग्रामीणों को सलाम. इस गांव के लोगों ने बिना समय गंवाए दिल्ली में पांच साल की गुड़िया के साथ हैवानियत को अंजाम देने वाले मनोज साह के सामाजिक बहिष्कार का फैसला किया. ग्रामीणों ने उसका हुक्का पानी बंद कर दिया. इससे समाज की जीवंतता का अहसास हुआ है. बिखरने के इस दौर में उसकी एकजुटता दिखी है. उसके अंदर का इंसाफ प्रकट हुआ है. इससे एक उम्मीद जागी है. उधर, मनोज की पत्नी और सास ने भी इंसाफ के साथ खड़ा होकर मिसाल पेश की है. उन्होंने कहा है कि अगर मनोज दोषी है तो उसे फांसी दी जाए.

किसी भी चरित्र की कलंक कथा को रोकने में सबसे बड़ी भूमिका सामाजिक और नैतिक बंधन की ही हो सकती है. रिश्तों के डोर से समाज बंधा रहा है. बचपन में आदर और अपनत्व के संबोधन से हम रिश्तों थामते हैं और यही हमें सामाजिक प्राणी बनाता है. अपने-पराये की संकीर्णता से बाहर यह हमें दर्द, खुशी और आदर के रिश्ते से जोड़ता है. इसी से हमारे अंदर मानवीय मूल्य पैदा होते हैं. लेकिन बीते दो-तीन दशकों में इस डोर को तार-तार करने में हमारे आधुनिक जीवन सरोकारों ने क्या कोई कसर छोड़ी है?

GUDIYA RAPE CASE

मानवता को लज्जित करने वाली दिल्ली वाली दिल्ली का ताज़ा घटना ने कई अहम सवाल खड़े किए हैं. दामिनी के साथ दरिंदगी के बाद देश भर में आए उबाल के दबाव में संशोधन कर कानून को सख्त बनाने को केन्द्र सरकार मजबूर हुई. लेकिन इसका नतीजा क्या निकला? गुड़िया के साथ क्रूरता क्या कहती है? कानून के सख्त होने और इसके रखवालों की सक्रियता से दोषी को कड़ी सज़ा सुनिश्चित कराई जा सकती है. यह एक सकारात्मक पहलू है. लेकिन इंसान के अंदर हैवान न पनपे यह रास्ता तलाशना ज़्यादा ज़रूरी है. ऐसी मनोविकृतियां युवाओं के दिमाग़ में जगह बना रही हैं तो इनकी मूल वजह क्या है? शास्त्रार्थ अब इस मुद्दे पर ज्यादा ज़रूरी है. दिल पर हाथ रखकर खुद के अंदर झांकने की ज़रूरत है, कि हम कहां और कैसी चूक कर रहे हैं?

बच्चों को महंगे स्कूलों में पढ़ाना ज़्यादा ज़रूरी है या उसे नेक और ज़िम्मेदार इंसान बनाना? क्या यह सवाल कभी हमारे दिमाग में कौंधता है? स्कूली शिक्षा से मोरल साइंस के पन्ने कब गायब हो गए, इसकी सुधी हमें है? पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति क्या हमारे देश के आबो-हवा रचने-बसने के काबिल हैं? सामाजिक रिश्तों की अहमियत को ताक पर रखकर हमने कैसा गुनाह किया है?

किसी भी कलंक कथा में बिहार के बिहार के किसी का नाम आए तो अफसोस स्वाभाविक है. लेकिन ऐसी क्रूरता कोई बिहारी होने की वजह से नहीं करता है. दरअसल, हैवानियत की कोई जात या प्रांत नहीं होता है. बीते कुछ समय में हैवानियत की ऐसी तमाम घटनाओं में अगर बिहार का कोई युवक शामिल रहा तो अन्य राज्यों का भी युवक भी कोई पीछे नहीं है. असामाजिक तत्व जब गिरोह बनाते हैं तो उनकी मंज़िल क्या होती है? यह तो प्रवृति है, जो जन्म लेती है. दिल्ली या अन्य किसी महानगर या नगर में कौन किस परिवेश में जी रहा है, इसका असर भी मनोविज्ञान पर पड़ता है. हमारा अपराध यह होता है कि ऐसी प्रवृति को रोकने की पहल करने के बजाए अपने-पराये की तराजू लेकर बैठ जाते हैं. कोई अपना करे तो बहादुरी और दूसरा करे तो अपराध, ऐसी मानसिकता या कमजोरियां हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है.

आरंभिक छोटी सी गलती को ढ़ककर हम अपनों का भी भला नहीं करते, बल्कि उसे अंधकार की उस राह पर सरपट दौड़ने की उर्जा प्रदान करते हैं. फिर दलदल तो दलदल है, इसमें धंसकर निकलना आसान नहीं होता है. बहरहाल, अब समय आ गया है कि सामाजिक बंधन की डोर मज़बूत की जाए. सामाजिक चेतना की मुहम चलाई जाए. नैतिकता-अनैतिकता पर बहस हो. मनुष्य सामाजिक प्राणी है तो वह समाज की छतरी तले ही जीवन का आनंद ले सकता है. भरथुआ के ग्रामीणों ने सामाजिक इंसाफ का हौसला दिखाया है. कानून के दायरे के ऐसे फैसलों से जो संदेश जाएगा, वह ज़्यादा असरदार होगा.

(लेखक दैनिक हिन्दुस्तान, पटना के राजनीति संपादक हैं.)        

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