Edit/Op-Ed

अखिलेश साहब! ज़रा इधर भी ध्यान दीजिए…

Anurag Bakshi for BeyondHeadlines

यह अच्छी बात है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को खुद इसका अनुभव है कि अफसरशाही किस तरह काम में रोड़े अटकाती है. उद्यमियों के महासम्मेलन में उन्होंने जिस तरह उदाहरण देकर बताया कि किस प्रकार अफसर काम को टालने अथवा जानबूझकर बाधाएं खड़ी करने का काम करते हैं. उससे यह और स्पष्ट हो गया कि नौकरशाही के कामकाज में व्यापक सुधार की जरूरत है.

इसकी पुष्टि उद्यमियों की ओर से भी की गई. उन्होंने भी सम्मेलन में बताया कि किस तरह नौकरशाही उनके काम में रोड़े अटकाने का काम करती है. लेकिन समस्या यह है कि नौकरशाही के रवैये में सुधार के क़दम कब उठाए जाएंगे? क्योंकि इस तरह की बातें पिछले एक वर्ष से हो रही हैं.

ऐसी बातों के बावजूद स्थिति जहां की तहां नज़र आती है. बेहतर हो कि राज्य सरकार यह समझे कि समस्या को स्वीकार करने, अथवा उसके कारण गिनाने का मतलब तभी है जब उसके समाधान की दिशा में प्रयास भी किए जाएं. उत्तर प्रदेश में फिलहाल ऐसा होता नज़र नहीं आता.

Akhilesh Sir! Please also pay attention here ..

जिस तरह सोनभद्र में भुखमरी के चलते एक व्यक्ति और उसके तीन बच्चों की मौत के संदर्भ में पूछे गए सवाल के जवाब में गृह सचिव आर.एन. उपाध्याय ने यह कहा कि “जन्म ही मृत्यु का कारण है” वह घोर शर्मनाक है. उन्होंने न केवल एक गंभीर घटना के संदर्भ में पूछे गए सवाल का विचित्र जवाब दिया. बल्कि खुद को ठहाका लगाने से भी नहीं रोक सके.

इतना ही नहीं, उन्होंने हैरान करने वाले अपने जवाब को सही साबित करने के लिए अच्छी-खासी व्याख्या भी की. यह अच्छी बात है कि उन्हें तत्काल प्रभाव से गृह सचिव के पद से हटा दिया गया. इसके अलावा राज्य सरकार के पास और कोई चारा भी नहीं था.

ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनके मंत्री सही ही कहते हैं कि राज्य की नौकरशाही एक बड़ी समस्या है. कम से कम गृह सचिव आर.एन. उपाध्याय तो इसकी पुष्टि ही कर रहे हैं. भले ही आर.एन. उपाध्याय को उनके पद से हटा दिया गया हो, लेकिन यह कहना कठिन है कि ऐसे अधिकारी अपवाद स्वरूप ही हैं. जो झकझोर देने वाली किसी घटना पर ठहाका भी लगा सकते हैं.

आखिर इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इसके पहले भी नौकरशाही में ऊंचे पदों पर बैठे लोग अपने विचित्र व्यवहार और बयान से प्रशासनिक तंत्र की किरकिरी करा चुके हैं. यह कुछ और नहीं प्रशासनिक अधिकारियों में घर कर गई संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ही है.

इससे अधिक निराशाजनक और क्या होगा कि जब पुलिस और प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे आम जनता की समस्याओं के प्रति कुछ ज्यादा ही संवेदनशीलता का परिचय देंगे तब वे अपने बयानों और व्यवहार से हद दर्जे की संवेदनहीनता का प्रदर्शन कर रहे हैं.

जब यह स्पष्ट हो चुका है कि नौकरशाही को समझाने-बुझाने अथवा आदेश-निर्देश देने मात्र से उसके रवैये में सुधार नहीं आने वाला तब फिर कुछ नए उपायों पर अमल किया ही जाना चाहिए. ऐसा करना इसलिए और भी ज़रूरी है, क्योंकि यह सरकार अपने कार्यकाल का एक वर्ष पूरा कर चुकी है और स्थितियों में सुधार के संकेत भी नज़र नहीं आते.

यदि केवल नौकरशाही को कोसा जाता रहेगा तो स्थितियों में सुधार की उम्मीद नहीं पूरी होने वाली. राज्य सरकार को इसकी अनुभूति होनी चाहिए कि अधिक से अधिक निवेश आकर्षित करने के लिए यह आवश्यक है कि औद्योगीकरण के अनुकूल माहौल का निर्माण हो. फिलहाल राज्य सरकार ऐसा कोई दावा करने की स्थिति में बिल्कुल भी नहीं है कि बुनियादी सुविधाओं और माहौल के मामले में हालात उद्यमियों के अनुकूल हैं.

सच्चाई यह है कि न तो नौकरशाही का रवैया उद्यमियों को उत्साहित करने वाला है और न ही बुनियादी ढांचे की स्थिति… यदि स्थितियां जस की तस ही बनी रहती हैं. तो यह तय है कि उद्योगपति निराश होंगे और इसके दुष्परिणाम उत्तर प्रदेश को भी भोगने पड़ेंगे.

राज्य सरकार यह कहकर अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकती कि नौकरशाही शिथिल-सुस्त है और उसका रवैया सरकार के कामों में रोड़े अटकाने वाला है. क्योंकि यह बुनियादी रूप से उसकी ही जिम्मेदारी है कि नौकरशाही का यह रवैया सुधरे. राज्य सरकार को इसका अहसास हो जाना चाहिए कि वह चाहे जो भी उपाय कर ले. लेकिन नौकरशाही के इस तरह के रवैये में सुधार लाए बिना खुद उसकी छवि में सुधार नहीं होने वाला.

उत्तर प्रदेश में प्रशासनिक तंत्र में घर कर चुके भ्रष्टाचार के संदर्भ में मुख्यमंत्री  के बयान पर उन्हें इसे स्पष्ट भी करना चाहिए यदि कोई उचित आधार है तो इसका औचित्य भी गौर करना चाहिए. समझना मुश्किल है कि कुछ अधिकारी करीब-करीब खाली हाथ क्यों हैं और कुछ के पास ज़रूरत से ज्यादा विभाग क्यों हैं?

यह निराशाजनक है कि यह स्थिति तब है जब राज्य सरकार अपने कार्यकाल में एक बड़ी संख्या में अधिकारियों के तबादले कर चुकी है और इन तबादलों का कारण यही बताया गया कि प्रशासन को शासन के मन मुताबिक ढालना है.

अब तो ऐसा लगता है कि तबादलों की जो भी कवायद होती है उसका उद्देश्य प्रशासनिक ढांचे की व्यवस्था सुधारना कम, राजनीतिक हित पूरे करना अधिक होता है.

नि:संदेह यह भी सही है कि किसी भी संस्था, संगठन अथवा तंत्र को पूरी तौर पर भ्रष्ट बताना उचित नहीं कहा जा सकता और ऐसे किसी नतीजे पर पहुंचना ठीक नहीं है कि प्रशासनिक तंत्र में जो भी लोग काम कर रहे हैं वे सभी भ्रष्ट हैं. लेकिन यथार्थ यह भी है कि जो लोग ईमानदार, कर्मठ और अपने दायित्वों के प्रति सदैव समर्पित रहते हैं.
वो या तो हाशिये पर हैं या अपना काम सही तरह नहीं कर पा रहे हैं.

प्रशासनिक तंत्र की यह स्थिति कुल मिलाकर इस कहावत को चरितार्थ करने वाली है कि खोटे सिक्के अच्छे सिक्कों को चलन से बाहर कर देते हैं. यह देखना राज्य सरकार का दायित्व है कि कैसे उन तत्वों को हाशिये पर लाया जाए, जिनके चलते ऐसी स्थिति बन गई है कि जो अच्छे अधिकारी हैं, वो सही ढंग से काम नहीं कर पा रहे हैं.

राज्य सरकार को इसका आभास होना चाहिए कि प्रशासनिक तंत्र के भ्रष्टाचार को रेखांकित करने मात्र से समस्या का समाधान नहीं होने वाला. बात तो तब बनेगी जब सुधार के ठोस उपाय भी किए जाएंगे.

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