Abdul Hafiz Gandhi for BeyondHeadlines
सवाल उठता है कि क्या मुसलमानों की वर्तमान शैक्षिक व आर्थिक पिछड़ेपन के लिए क्या सिर्फ और सिर्फ सरकार ही ज़िम्मेदार है? तो मेरा जवाब है: नहीं!
सरकार अगर हमारे इस पिछड़ेपन के लिए ज़िम्मेदार हैं तो उससे कम मुस्लिम समाज भी जिम्मेदार नहीं है. पिछले 65 सालों में मुसलमानों की संख्या सरकारी नौकरियों में घटी है. सच्चर कमेटी की माने तो हिंदुस्तान में कभी भी राज्य सरकारों की सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की संख्या उनकी जनसंख्या के मुताबिक नहीं रही है.
पश्चिम बंगाल के 2006 तक के आंकड़ों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि वहां मुसलमानों की जनसंख्या 25.5 फीसद है.लेकिन सरकारी नौकरियों में मुसलमानों का हिस्सा सिर्फ 2.1 फीसद ही है. कमोबेश यही हालात दुसरे राज्यों के भी हैं.
केन्द्र सरकार के आंकड़े भी बहुत अच्छी तस्वीर पेश नहीं करते हैं. सच्चर कमेटी रिपोर्ट बताती है कि IAS में सिर्फ 3 फीसद और IFS में 1.6 फीसद ही मुस्लमान हैं. यह उस वक़्त के देश भर में मुसलमानों की 13.7 फीसद जनसंख्या के मुकाबले काफी कम है.
हिन्दुस्तान जैसे देश में सभी वर्गों की सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी होनी चाहिए ताकि साझा लोकतंत्र कायम किया जा सके. यह हिस्सेदारी शैक्षिक संस्थाओं में भी होनी चाहिए, जिससे सभी को तरक्की का सामान अवसर मिल सके. लेकिन सच्चाई पर नज़र डालें तो तस्वीर कुछ और ही उभरती है. 2006 में मौजूदा प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए शिक्षा की कमी एक ख़ास वजह है. लेकिन अगर कोई उनसे पूछे कि इस शैक्षिक पिछड़ेपन को कम करने के लिए आपकी सरकार ने क्या कोशिशें की तो शायद उनसे जवाब नहीं बन पड़ेगा. सच्चर कमेटी के मुताबिक मुस्लिम इलाकों में सरकारी स्कूलों की बेहद कमी है और नतीजतन ज़यादातर मुस्लिम बच्चे शिक्षा से महरूम रह जाते हैं.
सरकार के ज़रिये जो कोचिंग मुस्लिम नौजवानों को सिविल सर्विसेज की तैयारी के लिए कराई जाती है, वहां उम्दा टीचर्स व किताबों की हमेशा कमी रहती है. एक सवाल सरकार से पूछना लाज़मी है कि हर साल मुसलमानों की संख्या सिविल सर्विसेज में 2 से लेकर 4 फीसद तक ही क्यों रहती है? क्या कोई फिक्स्ड फार्मूला है या जानबूझ कर इसे 2 और 4 फीसद के बीच ही रखा जाता है. अगर ज़्यादा पीछे न जाकर 2006 से देखें तो उस साल 2.2 फीसद, 2009 में 3.9 फीसद, 2010 में 2.4 फीसद, 2011 में 3.1 फीसद और 2013 में 3.1 फीसद मुस्लिम नौजवानों ने इस एग्जाम में सफलता पाई.
लोगों को किसी सरकारी विभाग या संस्था पर यक़ीन कायम रहे और वो यक़ीन और बढ़े इसके लिए ज़रूरी है कि उस विभाग या संस्था के काम करने के तरीके को और पारदर्शी बनाया जाये. सूचना का अधिकार कानून-2005 से चीजें काफी पारदर्शी हुई हैं, लेकिन जहाँ तक UPSC का सवाल है तो चीजें अभी उतनी पारदर्शी नहीं हैं.
मिसाल के तौर पर अभी भी UPSC Preliminary exam के जवाब ना हीं अपनी वेबसाइट पर डालती है और न ही दूसरे किसी तरीके से एग्जाम में बैठने वालों को पेपर के सही जवाब बताती है. अगर UPSC जवाब को वेबसाइट के ज़रिये आम कर देती है तो लोगों को इससे मदद मिलेगी और उसकी पारदर्शिता बढ़ेगी, जिससे लोगों के यकीन में और मज़बूती आएगी.
UPSC सारे सब्जेक्ट्स को बराबर दर्जा देने के लिए स्केलिंग सिस्टम का इस्तेमाल करती है, पर आज तक यह क्या है और कैसे इसको निर्धारित किया जाता है, आम लोगों से छुपा कर रखा गया है. हिंदुस्तान जैसे लोकतंत्र में जिसको हम अधिक से अधिक भागीदारी वाला बनाना चाहते है, उस देश में कोई संस्था सरकारी नौकरियां देने के लिए क्या मापदंड अपनाती है, इसको उजागर करना उस संस्था और सरकार दोनों का काम है, ताकि लोगों के यकीन को कायम रखा जा सके. और कोई भी सरकारी संस्था जो इतना बड़ा और ज़रूरी काम करती हो, उसे लोगों से अपने काम-काज के बारे में खुलना ही चाहिए. उसका पारदर्शी होना साझेदार लोकतंत्र की पहली शर्त है.
एक बात तो यह रही कि सरकार और UPSC की क्या जिम्मेदारी बनती है, और दूसरी बात यह है कि मुस्लिम समाज अपनी जिम्मेदारी को कितना निभा रहा है और उन्हें क्या क्या करना चाहिए, ताकि मुस्लिम नौजवानों की संख्या सिविल सर्विसेज बढ़ सके.
कोई भी सरकार चाह कर भी एक समाज के लोगों के लिए बहुत अधिक कुछ नहीं कर सकती. यह भी सच है कि सरकार की लापरवाही से मुस्लिम समाज शिक्षा, सरकारी नौकरियों में पिछड़ गया है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि मुस्लिम समाज ने भी अपनी जिम्मेदारी का पूरी तरह से निर्वाहन नहीं किया है.
क्या वजह है कि ग्रामीण इलाकों में 54.6 और शहरी इलाकों 60 फीसद मुस्लिम बच्चे कभी स्कूल ही नहीं गए. एक वजह स्कूलों का मुस्लिम इलाकों में न होना है. दूसरी वजह गरीबी है और तीसरी वजह कि मुसलमानों के मज़हबी, समाजी और सियासी रहनुमाओं ने जदीद और अंग्रेजी शिक्षा की तरफ ध्यान ही नहीं दिया.
हम सभी बखूबी जानते हैं कि किसी भी competition को निकालने के लिए आरंभिक शिक्षा यानी नर्सरी से लेकर 12 वीं तक बहुत अहम रोल अदा करती है. लेकिन मुस्लिम समाज इस लिहाज से काफी पीछे है. सच्चर कमेटी भी इसी तरफ इशारा करती है कि सबसे बुरी हालत प्रारंभिक शिक्षा की है.
सरकारी नौकरियों (जिसमें सिविल सर्विसेज भी है) में मुस्लिम नौजवानों की संख्या बढ़ानी है, तो प्रारंभिक शिक्षा को दुरुस्त करना होगा और बढ़िया से बढ़िया शैक्षणिक संस्थान खोलने होंगे. ये feeding centres जब कायम हो जायेंगे तो खुद बखुद कॉलेजों, यूनिवर्सिटीयों और सरकारी नौकरियों में मुस्लिम बच्चे आने लगेंगे.
मुझे यह लगता है कि अग्रेज़ी की मांग है, क्योंकि अंग्रेजी आज मार्केट की भाषा बन चुकी है. किसी भी नौकरी में अच्छी अंग्रेजी बोलने और लिखने वाले के चांसेज़ बढ जाते हैं. अंग्रेजी आज की दुनिया की connecting language बन चुकी है. इसलिए इसके बगैर काम चल जाये ऐसा मुमकिन नहीं. मुस्लिम समाज को इसके लिए आगे आना होगा.
साथ ही साथ मुस्लिम समाज को अपनी priorities fix करने की ज़रुरत है. जब यह साफ़ है कि सरकारी कोचिंग सेन्टर्स में पढ़ाई और गाईडेंस का काम सही से नहीं होता तो क्या हम सबकी यह जिम्मेदारी नहीं बनती कि हर जगह नहीं भी तो कम से कम कुछ खास शहरों में उम्दा टीचर्स और इंफ्रास्ट्रेक्चर के साथ सिविल सर्विसेज के लिए प्राइवेट कोचिंग सेन्टर खोले जायें.
ज़रा सोचिए ! कितना अच्छा होता कि मुशायरों पर लाखों रुपये हर साल खर्च न करके अधिक से अधिक पैसा इन कोचिंग सेन्टर्स को बनाने और चलाने में लगाया जाता. सवाल सिर्फ और सिर्फ priorities के बदलने का है. सबको मालूम है कि चंदे या बकरीद पर खाल से और वक्फ से जमा हुआ पैसा मज़हबी तालीम पर खर्च होता है. मैं इसके खिलाफ नहीं हूँ, पर इस पैसे का एक बड़ा हिस्सा जदीद तालीम और इन कोचिंग सेन्टर्स और वहां पर क्वालिटी टीचर्स के बहाली पर खर्च हो, ताकि कुछ पुख्ता नतीजे हमारे सामने आने लगे. वर्ना हर साल मुस्लिम बच्चों की UPSC में कम संख्या पर लिखा और बोला जाता रहेगा और नतीजा वही ढाक के तीन पात रहेगा.
यह नहीं, हमें इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि सिविल सर्विसेज और दूसरी सरकारी नौकरियों में कितने मुस्लिम बच्चे appear हो रहे हैं. इस बारे में मेरे पास अधिक आंकडे नहीं हैं पर अगर 2003 और 2004 के आंकड़ों पर नज़र डालें तो यह पता चलता है की सिर्फ 4.9 फीसद मुस्लिम बच्चे written exam में बैठे थे. यह देखना होगा कि किस तरह एग्जाम में बैठने की फीसद को बढ़ाया जाए. इसके लिए जागरूकता की बहुत ज़रुरत है. हर शहर और अल्पसंक्यक संस्थान में करियर काउंसलिंग की जानी चाहिए ताकि सरकारी और गैर-सरकारी नौकरियों के बारे में बच्चों को बताया जा सके.
सच्चर कमेटी के हिसाब से मुस्लिम बच्चों में सिर्फ 3.4 फीसद ही ग्रेजुएट्स हैं और सिर्फ 1.2 फीसद पोस्ट-ग्रेजुएट्स हैं. इस स्थिति में काफी सुधार की ज़रुरत है. जब ग्रेजुएट्स अधिक होंगे तो अधिक नौकरियों के लिए अप्लाई भी करेंगे और निश्चित तौर पर नौकरियां भी पाएंगे.
यहाँ मैं एक बात कहना चाहता हूँ कि यह किसी से भी नहीं छुपा है कि मुस्लिमों के खिलाफ सिस्टम में कहीं न कहीं भेदभाव है. सच्चर कमेटी ने इस भेदभाव को बखूबी उजागर भी किया है. इसलिए इस institutional bias के प्रभाव को कम करने के लिए रिजर्वेशन से बढ़िया और कोई तरीका नहीं हो सकता. यहाँ मै सभी को रिजर्वेशन देने की वकालत नहीं कर रहा हूं, मगर यह सुविधा उन मुस्लिम बच्चों को ज़रूर मिलनी चाहिए जो पिछड़ी जातियों से आते हैं और इनके लिए 27 फीसद में से 8.44 फीसद का कोटा फिक्स कर देना चाहिए और इसको संसद से कानून पास करा कर अमल में लाना चाहिए. इससे मुस्लिम समाज के नौजवानों को फायदा पहुंचेगा.
एक बात और, हमारे मज़हबी और सियासी रहनुमाओं ने ‘victimhood psyche ‘ को बहुत मज़बूत कर दिया है. इससे एक सोच पैदा हो गयी है कि मुस्लिम बच्चे कितना भी पढ़-लिख जाये, उनको सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी. मुस्लिम समाज को इस सोच से अपने आपको बचाना होगा और बच्चों को ज़्यादा से ज़्यादा प्रोत्साहित करना होगा कि वो competitive exams में बैठे. मैं यह क़तई नहीं कह रहा हूँ कि मुस्लिम बच्चों के साथ भेदभाव नहीं होता है और न यह कह रहा हूँ कि मुस्लिम समाज को गुजरात जैसे हज़ारों दंगों से नहीं गुज़ारना पड़ा है, पर मैं यह ज़रूर कहना चाह रहा हूँ कि इससे आगे की मुस्लिम समाज को सोचनी होगी. मुस्लिम समाज को सुरक्षा तो चाहिए ही चाहिए, लेकिन भारत के नागरिक होने के नाते उनको विकास में भी भागीदारी चाहिए. यह भागीदारी सरकारी कामकाज और नौकरियों में उन्हें मिलनी ही चाहिए.
आखिरी बात यह कि मुस्लिम समाज में कोई मज़बूत प्रेशर ग्रुप या अवेयर ग्रुप नहीं है जो आंकड़े इकठ्ठा करे और सरकार का उनकी तरक ध्यान आकर्षित कराये. किसी ने खूब कहा है की लोकतंत्र में संघर्ष और पैनी नज़र दोनों होनी चाहिए. सरकार और मुस्लिम समाज दोनों आगे आयेंगे तभी जाकर मुस्लिम बच्चों की संख्या सिविल सर्विसेज में बढ़ेगी वर्ना और कोई तरीका हाल फिलहाल नज़र में नहीं आता.
(लेखक जवाहरलाल नेहरु विश्वविधालय में रिसर्च स्कोलर हैं और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय छात्र संघ के अध्यक्ष रहे हैं.)