Edit/Op-Ed

भगवान लोकतंत्र और न्याय की आत्मा को शांति दे!!!

Omair Anas for BeyondHeadlines

मडियाहूँ जिला जौनपुर में कई गलियां पार करने के बाद एक मकान पड़ता है, मकान क्या है बस सर पर छत डालने और अपनी ग़रीबी छुपाने के लिए काफी है. दो भाई और उनके दो बेटे और उनकी बेटियां यहीं रहते थे. बड़े भाई ज़मीर अहरार पार्टी से जुड़े थे. छोटे भाई ज़हीर जमात इस्लामी से और उन दोनों के बेटे उनकी पार्टियों उतना ही जुड़े थे जितना में उनके अब्बा नाराज़ न हों बस.

दोनों बेटे लड़कियों के लिए एक छोटा सा मदरसा कहें या स्कूल चलाते थे. बड़ा बेटा प्रबंधन संभालता था छोटा बेटा पढ़ने में अच्छा और होनहार था. इसलिए वो टीचर था. उसने इस्लामी तालीम हासिल की थी. कम उम्र के बावजूद दाढ़ी उसके चहरे पर सुन्दर लगती थी. ग़रीबी के बावजूद समाज को कुछ देने का उनका जज्बा बेमिसाल था.

सब खुश थे. चचा भतीजे जब कब हलकी फुलकी बहसबाजी का मज़ा लेते रहते थे. खास तौर पर इसलिए क्योंकि उसे अपने अब्बा ज़मीर की अहरार पार्टी से भी उतनी ही उलझन थी जितनी चचा की जमात से.

God bless the soul of democracy and justice!

न जाने किसकी नज़र लगी इस परिवार को. 2003 में अचानक बड़े भाई का पंजाब में देहांत हो गया. एक बेटा बगैर बाप के हो गया और एक भाई बगैर भाई के हो गया. दोनों टूटते हुए लोगों ने एक दुसरे को दिलासा दिया. भतीजे को बाप की मुहब्बत मिल गयी और भाई को भाई की जिम्मेदारी.

जैसे तैसे चल रही जिंदगी का बदकिस्मती पीछा कर रही थी. 2004 से बेक़सूर मुस्लिम नौजवानों की गिरफ़्तारी और फर्जी मुटभेड में मार गिराने का भारतीय सुरक्षा एजेंसियों का अभियान चालू हो गया. जहाँ तहां 18 से 22 साल के लड़के मार गिराए जाने लगे. बेवकूफी भरी शरारत करने की उम्र वाले लड़कों को मीडिया मास्टरमाइंड बना कर अपनी टीआरपी बढ़ाने में लग गया.

दाढ़ी, कुरता, डेली पसेंनजर ट्रेनों में क्रूरतापूर्ण मजाक का विषय बनने लगे. ये सब शुरू हुआ कांग्रेस की सेकुलर गवर्नमेंट में और यूपी में मायावती की बहुजन सरकार में. लेकिन ये कहना की 2007 से पूर्व मुलायम सिंह सरकार इन सब से पूरी तरह से अलग थी, ग़लत होगा. और इसीलिए 2012 में समाजवादी सरकार के आने के बाद ये सिलसिला रुका नहीं.

मुलायम सिंह के लिए मुस्लिम युवकों की रिहाई सिर्फ एक चुनावी स्टंट था. जिसे वो सत्ता में आने के बाद भूल गए. लेकिन मुलायम सिंह बेईमान भी हैं ये साबित हुआ तब जब आरडी निमिष कमिटी की रिपोर्ट पर अखिलेश सरकार मौन बांध कर बैठ गयी बल्कि बड़ी बेशर्मी से उन्होंने आरटीआई के जवाबों में ये कहा की उन्हें इस कमिटी के बारे में कुछ नहीं मालूम (पत्रकार परवेज़ सिद्दीकी की आरटीआई).

पिछले करीब छ सालों से मडियाहूँ का वो मकान खालिद मुजाहिद का इंतज़ार कर रहा था. निमेष रिपोर्ट ने चचा ज़हीर आलम की डूबती उम्मीदों को सहारा दिया था. उम्मीद उस वक्त यकीन में बदलने लगा जब यूपी सरकार ने बाकायदा मुक़दमे वापसी के लिए ऐलान कर दिया. बस ज़रा शक ये था कि अखिलेश यादव निमेष कमीशन की रिपोर्ट की सिफारिशों का नाम लिए बगैर रिहाई की सिफारिश कैसे कर सकते हैं.

सरकार तो माई बाप होती है, सो किसी ने सोचा भी नहीं कि बाराबंकी की अदालत में अखिलेश यादव राजनीति खेलने वाला हलफनामा दाखिल करेंगे, निमेष कमीशन का कोई हवाला दिए बगैर राज्य में साम्प्रदायिक सदभाव बनाने के लिए खालिद मुजाहिद और तारिक़ कासमी की रिहाई की मांग कर डाली.

अदालत कोई समाजवादी पार्टी का कार्यालय तो है नहीं जहाँ आप मन मर्जी चलाये. सरकार की फर्जी अर्जी रद्द हो गयी और बूढ़े और कमज़ोर चचा की अचानक बढ़ गयी उम्मीदें धढ़ाम से नीचे आ गिरीं.

मानव अधिकार संगठनों का निमेष कमीशन रिपोर्ट आम करने और उसकी सिफारिश के अनुसार रिहाई और आरोपी अधिकारीयों के खिलाफ क़ानूनी करवाई का दबाव बनने लगा. तमाम सुबूत थे जिससे 40 पुलिस समेत कई बड़े अधिकारी इस फर्जी गिरफ़्तारी की चपेट में आपने वाले थे.

सोहराबुद्दीन और इशरत जहाँ फर्जी मुठभेड़ ने गुजरात में पुलिस वालों को कानून का दुरपयोग करने का अंजाम सिखा दिया था. इसलिए यूपी पुलिस अधिकारी निमेष कमीशन की रिपोर्ट को दबाये रखने की लाबिंग करती रही क्योंकि वह रिपोर्ट से इस क़दर डरे हुए थे कि अगर अखिलेश यादव सरकार द्वारा बनाये गए कमीशन पर जनता के दबाव में आ गई तो लेने के देने पड़ जायेंगे.

चचा ज़हीर ने बहुत दूर तक शायद नहीं सोचा था. जब हम उनसे पिछली बार दिल्ली में मिले थे तो उनका हौसला उनके कमज़ोर पड़ते जिस्म और बढ़ती उम्र से कहीं बुलंद था. वो लड़ रहे थे अपने भतीजे के लिए… यूपी की ताकतवर पुलिस से, समाजवादी पार्टी के बेशरम सरकार से, मुलायम सिंह यादव के झूठे वादों से… वो लड़ रहे थे एक ऐसे तंत्र से जिसमें एक मुस्लिम चीफ सेक्रेटरी हैं. जिसमें साठ से अधिक विधायक हैं. जिसमें करीब एक दर्जन के आसपास मुस्लिम मंत्री हैं. और ये साबित हो गया कि आज़म खान जैसे मंत्रियों और जावेद उस्मानी जैसे सीनियर नौकरशाहों की इस तंत्र के आगे क्या औकात है.

खालिद मुजाहिद अपने गाँव आज पहुँच रहा है लेकिन जिन्दा नहीं बल्कि कंधों पर उसका जनाज़ा आ रहा है. ये जनाज़ा सिर्फ खालिद मुजाहिद का नहीं हैं, बल्कि ये लोकतंत्र का जनाज़ा है. ये मुलायम सिंह सरकार और उनके नौसिखिये बेटे अखिलेश सिंह की झूटी राजनीती का जनाज़ा है. भगवान इस मरते लोकतंत्र और न्याय की आत्मा को शांति दे. आमीन !!!

(लेखक जेएनयू में अंतर्राष्ट्रीय अध्यन केंद्र में शोधार्थी हैं, उनसे omairanas@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.)

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