Anurag Bakshi for BeyondHeadlines
आज देश के करीब 600 जिलों में से 200 से अधिक में नक्सली फैल चुके हैं. इनकी संख्या 20,000 से ज़्यादा है और इसके करीब चार गुना इनके मददगार हैं.
खैर, छोड़िए… इन आंकड़ों में रखा ही क्या है? आइए एक घटना पर ध्यान देते हैं… बांग्लादेश सीमा पर बीएसएफ के जवानों ने पांच खूंखार पाकिस्तानी आतंकवादियों को मार गिराया. बड़े उत्साह से बीएसएफ के अधिकारियों ने तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री को मीटिंग में इस घटना की सूचना देनी चाही. जैसे ही अधिकारी ने अपनी बात खत्म की गृहमंत्री दार्शनिक अंदाज में बोले. जिन्हें मारा गया है वे हमारे ही भाई-बंधु हैं. हमें उनको मार कर खुश नहीं होना चाहिए. बैठक खत्म होने के बाद सारे अफसर इस डांट के बाद सिर धुनते रहे…
कुछ वर्ष पहले की बात है. प्रधानमंत्री नक्सल-प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक ले रहे थे. एक मुख्यमंत्री ने कहा- अरे, यह कोई बड़ी बात नहीं है. कुछ अपने ही लोग भटक गए हैं. हम उनको समझा बुझा लेंगे. सब ठीक हो जाएगा.
दूसरे मुख्यमंत्री ने कहा-कहां है नक्सल समस्या? आप लोग भी बेमतलब बात का बतंगड़ बना रहे हैं. अरे अपने ही समाज के कुछ लड़के हैं. डांट-डपट कर ठीक कर लिया गया है. कोई समस्या नहीं है. हमारे राज्य में तो यह कोई समस्या ही नहीं है.
ये दोनों मुख्यमंत्री उन राज्यों के थे, जहां का दो तिहाई और एक-तिहाई इलाका नक्सल प्रभावित था. इन दोनों राज्यों में नक्सलियों के पास राकेट लांचर तक मौजूद हैं.
देश के सत्ता पक्ष ने वह चाहे केंद्र में हो या राज्यों में… कभी इन घटनाओं को समझने की कोशिश नहीं की. राज्यों में राजनीतिक दलों ने या तो नक्सलियों से गुप्त समझौता किया या इसे जान-बूझ कर नज़रअंदाज करते रहे. नक्सलवाद आज महज़ ठेकेदारों, सरकारी अफसरों से पैसा वसूलने का तंत्र हो गया है. यह नेतृत्व-विहीन हो गया है. नतीजा यह है कि नक्सली खुद को अस्तित्व में रखने और अपनी स्वीकार्यता व्यापक करने के लिए परेशान नहीं हैं. वे परेशान हैं तो इस बात के लिए हैं कि राज्यों की हिम्मत इस ओर आंख उठाने की न हो. डरपोक और भ्रष्ट तंत्र व राजनेता में वह इच्छाशक्ति बन ही नहीं पा रही है, जिससे इस लाल आतंक का मुकाबला किया जा सके.
आंध्र प्रदेश की सरकार ने आज से कोई ढाई दशक पहले ग्रेहाउंड गुरिल्ला फोर्स तैयार की. इस बल में प्रतिबद्धता, पेशेवर रुख और शक्ति का अद्भुत समन्वय था. यह आज भी देश का सबसे कुशल सुरक्षा बल है. दस साल के अंदर इसने आंध्र के नक्सलियों में दहशत पैदा कर दी और उन्हें प्रदेश से खदेड़ दिया.
अभी तीन सप्ताह पहले ग्रेहाउंड ने हेलीकॉप्टर से आकर छत्तीसगढ़ के जंगलों में न केवल शीर्ष नक्सली नेताओं को मार गिराया, बल्कि ऑपरेशन के बाद पूरी सफलता से वापस लौट गए. छत्तीसगढ़ की पुलिस महज़ तमाशबीन बनी रही और मात्र स्थानीय मदद करती रही. यह अलग बात है कि ग्रेहाउंड का एक इंस्पेक्टर हेलिकॉप्टरों में नहीं चढ़ पाया और नक्सलियों का शिकार हो गया.
मुख्यमंत्रियों के गैर-जिम्मेदार रवैये के कारण नक्सली हिंसा बराबर बढ़ती जा रही है. आंकड़े बताते हैं कि पिछले तमाम वर्षों में अगर एक नक्सली मारा गया तो इसके बदले में चार लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा है. इनमें आम जनता से लेकर सुरक्षा बल के जवान तक शामिल हैं. इस स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि कश्मीर जैसी अशांत जगह में अगर एक सुरक्षा बल या आम नागरिक मारा जाता है तो एक आतंकवादी को भी मार गिराया जाता है.
चिदंबरम ने गृहमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान इस समस्या से कारगर तौर पर निपटने के लिए एक सिद्धांत दिया था. “इलाका खाली कराओ. कब्जे में लो और विकास करो.” कांग्रेस के ही एक नेता दिग्विजय सिंह ने चिदंबरम का खुला विरोध किया. चिदंबरम ने अपने भाषण में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि दशकों के शोषण और सरकारी भ्रष्टाचार ने आदिवासियों का राज्यों और उनके अभिकरणों में विश्वास खत्म कर दिया है. आज स्थिति यह है कि राज्यों के विरोध में जो भी सशक्त संगठन आता है ये आदिवासी उसके साथ हो जाते हैं. लिहाजा हमें सबसे पहले उनका विश्वास जीतना होगा. यह एक बड़ा ही सार्थक और कारगर सिद्धांत था. लेकिन राज्य सरकारों ने इसे संभव नहीं होने दिया.
उनमें प्रतिबद्धता नहीं थी जो इस सिद्धांत के अनुपालन के लिए अपेक्षित थी. नतीजा यह रहा कि केंद्र का पैसा फिर से भ्रष्ट, आपराधिक और कायर नेता-अफसर के मार्फत नक्सलियों के पास पहुंच गया. धीर-धीरे सरकार की कायरता से नक्सलियों की हिम्मत बढ़ने लगी और आज आंध्र प्रदेश से नेपाल तक एक क्रांतिकारी पट्टी बन गई है. विश्व का इतिहास गवाह है कि इस तरह के आतंकवाद को खत्म करने का सबसे सटीक तरीका है आतंकियों की आपूर्ति लाइन तोड़ो. ग्रेहाउंड सरीखे बल का गठन कर इन्हें सामरिक रूप से पंगु करो और फिर वहां के लोगों का विश्वास जीतो. विकास करो.
इन सबके लिए ज़रूरत है सत्ताधारियों की सोच बदलने की. कायरता छोड़ने की और चुनाव में वोट की ललक से निजात पाने की. क्या आज का सत्ता वर्ग इस थोड़ी सी कुर्बानी के लिए तैयार है?