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आवाज़ पाकिस्तान तक जानी चाहिए…

Ashish Shukla for BeyondHeadlines  

कहा जाता है कि आप कितना भी राजनीति से बचना चाहें, यह आपको छोड़ेगी नहीं. इसमें शक की तो कोई गुंजाइश ही नहीं है कि राजनीति मानव के स्वभाव में ही रची-बसी है और न चाहते हुए भी हम सब इसमें भागीदारी करते हैं.

बात उन दिनों की है जब मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (वाराणसी) के राजनीति विज्ञान विभाग में परास्नातक अंतिम वर्ष (द्वितीय वर्ष) का छात्र हुआ करता था. उत्तर प्रदेश में चुनावी रंग (2009 लोकसभा चुनाव) सर चढ़कर बोल रहा था और सभी छोटे-बड़े नेता अपने-अपने दलों के प्रत्याशियों के पक्ष में जमकर प्रचार कर रहे थे. सौ बातों की एक बात, सबने अपनी पूरी ताक़त झोंक दी थी.

देशी (गंवई) राजनीति का थोडा-बहुत अनुभव तो मुझे था ही. और हो भी क्यों न मेरी अपनी दादी इलाहाबाद जिले के एक बड़े और प्रतिष्ठित गाँव सहसों की प्रधान (2000-2005) जो रह चुकीं थी. महिला सशक्तिकरण के पक्षधर मुझे माफ करें, लेकिन सत्य तो यही है कि वो केवल नाम की ही प्रधान थीं और सारा कारोबार पिताजी और मैं चलाया करते थे.

आवाज़ पाकिस्तान तक जानी चाहिए…सोने पर सुहागा यह कि अगले पंचायत चुनाव (2005) में पिताजी स्वयं प्रत्याशी थे और मुझे भी जमकर गुणा-गणित लगानी पड़ी थी. अपने दुर्भाग्य और मेरे सौभाग्य से पिताजी वह चुनाव नजदीकी अंतर से हार गए.

मेरा सौभाग्य इसलिए कि, अगर वो जीत गए होते तो मैं न तो कभी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय गया होता और न ही जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय का मुंह देख पाता और न ही आज यह सब लिख पाने की स्थिति में होता.

खैर गंवई राजनीतिक अनुभव के बाद अब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग, जिसका मैं ताउम्र आभारी रहूँगा, ने मुझे राजनीति के कुछ गूढ़ सिद्धांतों और राज्य में उनकी उपयोगिताओं के बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध करा दी थी. यह कहने में कोई अतिश्योक्ति न होगा कि “एक तो तितलौकी और उसपर नीम चढ़ी.”

अंतिम सेमेस्टर की परीक्षाएं नजदीक थीं. लेकिन देश में आने वाली अगली सरकार की चिंता भी मुझे कम न थी. इसी दौरान क्राइस्ट चर्च कालेज, कानपुर, के प्रोफेसर अनिल कुमार वर्मा, जो लोकनीति से भी जुड़े थे और चुनाव पर अध्ययन कर रहे थे, ने मुझे एक दिन चुनाव क्षेत्र में चलने का निमंत्रण दिया.

मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया. करूँ भी क्यों न… न हींग लगे न फिटकरी और रंग चोखा. नियत दिन पर हमारी सफ़ेद एम्बेसडर कार निकल पड़ी चुनाव क्षेत्र का दौरा करने. दोपहर के बाद हम उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर शहर में पहुंचे ही थे कि पता चला कि नरेन्द्र मोदी, आजकल जिन्हें लोग “नमो” के नाम से भी प्रचारित कर रहे हैं, एक चुनावी सभा को संबोधित करने वाले हैं. हमने भी उसका हिस्सा होना स्वीकार कर लिया.

अनुमान के मुताबिक वहां ज्यादा भीड़ तो नहीं थी, लेकिन नेता तो आखिर नेता होता है. माइक पकड़कर लगा हुआ था कान खाने में. कुछ देर की कपरझौं-झौं के बाद अचानक सरगर्मी बढ़ गयी और राग दरबारी में कुछ संशोधन हुआ तथा भाषण के बजाय “जय श्री राम” का नारा लगने लगा.

मुझे मामला समझते देर न लगी. था भी वहीं… एक हेलीकाप्टर नरेंद्र मोदी को लेकर पहुँच चुका था. मंच पर आते ही नारे लगवाने का काम मोदी ने संभाल लिया. लेकिन आशा के विपरीत वहां इकट्ठी भीड़ हेलीकाप्टर में ज्यादा और मोदी में कम रूचि ले रही थी और शायद सुबह से बिना खाए पिए लोग थक भी गए थे. लेकिन मोदी कहाँ मानने वाले थे. वो तो नारा लगवाते जा रहे थे. और हद तो तब हो गयी जब उन्होंने कहा कि “आवाज़ पाकिस्तान तक जानी चाहिए.”

मैंने तुरंत अपने बगल में खड़े प्रोफेसर अनिल कुमार वर्मा जी से पूछा कि आवाज़ पाकिस्तान तक क्यों जानी चाहिए. जब चुनाव (2009 लोकसभा) मिर्ज़ापुर में हो रहा है और यह तो पाकिस्तानी सीमा पर भी नहीं बसा है.

प्रोफेसर साहब जानते तो थे लेकिन कुछ बोले नहीं. फिर हमने पूरा भाषण सुना लेकिन उसमें कुछ भी ऐसा नहीं था जिसे याद रखा जा सके. सिवाय इसके कि “आवाज़ पाकिस्तान तक जानी चाहिये.” और कुछ हुआ हो चाहे न लेकिन, इस बात ने पाकिस्तान के प्रति मेरी जिज्ञासा में इजाफा ज़रूर कर दिया.

जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में पिछले चार साल (2009-2013) से पाकिस्तान को समझने की कोशिश कर रहा हूँ. हालाँकि अभी पूरी तरह सफल नहीं हो सका हूँ. इसी कोशिश में एक एम्. फिल. का डीजरटेशन दो-चार शोधपत्र और कई छोटे-मोटे आर्टिकल प्रकाशित हो चुके हैं. पाकिस्तान को तो मैं अभी और समय देने के पक्ष में हूँ. अरे भाई यहाँ पाकिस्तान को समय देने का मतलब उस पर और गहन अध्ययन करना है. आप लोग भी पता नहीं क्या-क्या समझ लेते हैं.

खैर अब मैं मोदी और उनके सिपहसालारों की चाल समझ गया हूँ. और आज मैं यह भी जान गया हूँ कि क्यों मोदी मिर्ज़ापुर के चुनाव में “जय श्री राम” का नारा पाकिस्तान तक पहुँचाना चाहते थे.

2014 लोकसभा चुनाव अब ज्यादा दूर नहीं है और एक बार फिर मोदी मीडिया में बने हुए हैं. इस बार तो सुना है कि उनका क़द भारतीय जनता पार्टी में बहुत बढ़ गया है. लाल कृष्ण आडवाणी और उन जैसे अन्य नेताओं कि अब औकात ही क्या जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का भी उनको समर्थन है. अब क्या पूछना है जिस तरह सावन के अंधे को सब जगह हरा-हरा ही दिखाई देता है, मोदी और उनके सिपहसालारों को हर जगह कमल का फूल और केसरिया झंडा दिखाई दे रहा है. अब तो श्री राम ही मालिक हैं.

चिट्ठी के अंत में पहले लिखा जाता था कि, कम लिखा है और ज्यादा समझना… जहाँ तक मुझे याद है मैंने अपने अब तक के जीवनकाल में किसी को कोई चिट्ठी तो नहीं लिखी. लेकिन पाठकों से अनुरोध है कि भइया इस बार चुनाव नज़दीक है और मैंने कम ही लिखा है और उम्मीद है का आप ज्यादा समझेंगे ही.

(Author is Ph.D. Candidate, South Asian Studies, School of International Studies in JNU, New Delhi.) 

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