प्रतापगढ़ के कुंडा में शहीद हुए ज़ियाउल हक़ की शहादत को आज तीन महीने पूरे हो गए हैं. इस मौके से हम पुलिस रिजर्व लाइन, लखनउ में रह रही उनकी पत्नी परवीन आज़ाद से मिले. घर में बेड पर चारों तरफ अख़बार व कागज़ बिखरे पड़े हैं. टीवी पर उत्तर प्रदेश का कोई लोकल न्यूज़ चैनल चल रहा है. एनाटॉमी से जुड़ी हुई किताबें खुली हुई है. शायद परवीन पोस्ट मार्टम रिपोर्ट को पढ़ और उसकी वीडियों को देखकर अपने पति की हत्या की कहानी को समझने की कोशिश कर रही थी. वो एक दम एक्सपर्ट की तरह मुझे पोस्ट मार्टम की बारिकियों व घांवों के बारे समझाने लगी. खैर, हमने उनसे कई मुद्दों पर बात किया. जैसे ही हमारा साक्षात्कार खत्म हुआ कि टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज़ चल रही थी कि राजा भइया के पोलिग्राफिक टेस्ट की अर्जी दाखिल… हमने इस खबर से परवीन को भी रूबरू कराया. इस ख़बर को देखकर चेहरे पर थोड़ी सी तसल्ली के भाव ज़रूर दिखे. खैर, पेश है BeyondHeadlines के लिए Afroz Alam Sahil का परवीन आज़ाद के साथ बात-चीत का कुछ प्रमुख अंश….
क्या आपको लगता है कि आपके पति की मौत पर मुसलमानों के वोटबैंक की राजनीति हो रही है?
सबसे पहले मैं आपको बताना चाहूंगी कि मुझे सिर्फ और सिर्फ इंसाफ से मतलब है. मुझे सिर्फ अपने पति के मौत की जांच से मतलब है क्योंकि उनकी हत्या की गई है. बाहर क्या चल रहा है, उस पर मेरी कोई नज़र नहीं है. अगर कोई मुझे इंसाफ दिलाने में मदद कर रहा है, चाहे वो कोई भी हो, मुस्लिम हो, हिन्दू हो, पुलिस वाला हो या फिर मीडिया के लोग… उन्हीं लोगों का मैं हमेशा शुक्रगुज़ार रहूंगी.
जियाउल हक़ की शहादत के बाद यूपी की कानून व्यवस्था के बारे में आपकी क्या राय है?
क़ानून व्यवस्था की ही गड़बड़ी है कि मेरे पति की मौत हुई है. दस पुलिस वाले उनके साथ घटनास्थल पर गए थे, पर मुसीबत में उन्हें छोड़कर भाग जाते हैं. औऱ उन पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई. सिर्फ मेरे पति का ही सवाल नहीं है, बल्कि इससे पहले व बाद की घटना में भी गद्दार पुलिस वाले अपने ऑफिसर को छोड़कर भाग जाते हैं. जिसकी वजह से हर बार एक ईमानदार अफसर मौत का शिकार हो जाता है. अगर उत्तर प्रदेश की न्याय व्यवस्था, इन पर कार्रवाई करती तो शायद ऐसा नहीं होता. मेरे पति ने खुद मुझे बताया था कि हमारा गनर राजा भईया की मुखबरी करता है. पुलिस के अधिकतर लोग उसके लिए काम करते हैं. लेकिन हमारा कानून इनका क्या करता है? कार्रवाई के नाम पर सिर्फ निलंबित कर देना समस्या का समाधान नहीं है. बल्कि होना यह चाहिए कि अगर कोई पुलिस वाला किसी भी घटना स्थल से अपनी ड्यूटी छोड़ कर भागता है तो उस पर देश-द्रोह व मर्डर का मुक़दमा चले. अगर ऐसा होता है तो आगे चलकर कोई ईमानदार पुलिस वाले को कोई इतनी आसानी से मार पाएगा.
अब तक इंसाफ की लड़ाई का सबसे मुश्किल वक्त कौन सा रहा है?
शूरू से लेकर अब तक मुश्किल दौर ही है. इस ज़माने में इंसाफ की गुहार लगाना ही सबसे मुश्किल की बात है, लेकिन मैं हार नहीं मानूंगी.
तमाम राजनीतिक दल जियाउल हक़ की शहादत के बाद आपसे मिलने पहुंचे थे. राहुल गांधी भी आए थे. क्या अब आपको लगता है कि राजनीतिक लोगों का आपके घर आना मात्र दिखावा था या वह हकीक़त में आपके लिए कुछ करना चाहते थे?
मैंने पहले भी बताया कि हर वो व्यक्ति जो मेरे घर आया मैंने उसे बस यह समझा कि वो मेरे दुख में शरीक़ होने के लिए आया है और हमने हर वो खास व आम लोगों से यही कहा कि आप मेरे इंसाफ की लड़ाई में सहयोग करें. और जो लोग भी मेरे घर आएं, उन्होंने भी यक़ीन दिलाया कि इंसाफ की लड़ाई में वो मेरे साथ हैं. अब अपने-अपने स्तर से खास लोगों ने क्या किया, उसकी जानकारी मुझे बिल्कुल नहीं है. और जानकारी प्राप्त करना मेरे लिए मुमकिन भी नहीं है. जो भी इस लड़ाई में मेरा सहयोग करेगा मैं उसकी शुक्रगुज़ार रहुंगी. हालांकि मेरे इंसाफ की लड़ाई में युवाओं की भागीदारी अच्छी रही. ज़्यादातर यूनिवर्सिटी के छात्र संघ के लोग इस लड़ाई में हमारा साथ दिए और अपने-अपने स्तर पर अपने-अपने हिसाब से इंसाफ की मांग रखी.
सीबीआई की अब तक की जांच के बारे में आपकी राय क्या है?
इस पर टिप्पणी करना शायद जल्दी होगी. जब सीबीआई अपना फाइनल रिपोर्ट सबमिट कर देगी फिर अपने वकील से उन बातों को पढ़कर समझ लूंगी तब कोई टिप्पणी की जा सकती है. मीडिया के माध्यम से जो भी खबरें सीबीआई जांच के संबंध में आ रही हैं वो कितना सच है और कितना ग़लत? इसकी हमें कोई जानकारी नहीं है. बस मीडिया के बातों पर यक़ीन कर लेती हूं, और वैसे भी फिलहाल हमारा सोर्स मीडिया ही है.
अब जिंदगी से आप क्या चाहती है?
अब तक एक सादी व खुशी वाली ज़िन्दगी गुज़र रही थी. मेरे पति जॉब में थे और बाबा बनारसी दास कॉलेज ऑफ डेन्टल साइसेंज़, लखनऊ की स्टूडेंट थी. हर वीकेंड का बेसब्री से इंतज़ार रहता था कि कैसे जल्दी से अपने पति के पास पहुंच जाऊं. फिर सोमवार कॉलेज पहुंचकर पढ़ाई शुरू… लेकिन मेरे पति की हत्या के बाद मेरी ज़िन्दगी में भूचाल आ गया. एक ऐसा तुफान आया जो हमारी सारे सपनों को नस्त व नाबूद कर गया. अब जीवन का एकमात्र लक्ष्य मेरे पति के क़ातिलों को सज़ा दिलाना और उन्हें फांसी के तख्ते तक पहुंचाना है ताकि ये क्रिमिनल्स किसी और के परिवार के सपनो को तोड़ न सके. अगर समय बचेगा और सरकार ने छूट्टी व उपर वाले ने साथ दिया मैं आगे की पढ़ाई पूरी करूंगी, क्योंकि मेरे पति का सपना था कि मैं एक बहुत बड़ी व कामयाब डॉक्टर बनूं और गरीब-बेसहारों का इलाज करके देश के विकास में अपना योगदान दूं. मैंने 2 अप्रैल को एक साल दो महीने के स्टडी लीब के लिए आवेदन दिया है, लेकिन अब तक कोई सुनवाई नहीं हुई है और न कोई जानकारी मुझे दी जा रही है. मैं परेशान हूं कि क्या करूं क्योंकि जुलाई में मेरे एग्ज़ाम भी हैं.
क्या आपको लगता है कि राजनीतिक बदलाव के बिना असली बदलाव मुमकिन नहीं है?
जो लोग भी मेरे पति की हत्या से जुड़े हैं वो क्रिमिनल्स हैं. कुंडा की हिस्ट्री शीट निकालकर देख लीजिए कि किस पर कितना मुक़दमा दर्ज है? पर अफसोस कि यह क्रिमिनल्स आज भी खुलेआम सड़कों पर घूम रहे हैं और गुंडागर्दी कर रहे हैं. दरअसल, राजनीतिक व्यवस्था के साथ-साथ हम सब भी ज़िम्मेदार हैं कि हम लोग ही इन्हें वोट देकर जिताते हैं और हमसे कोई इनके खिलाफ आवाज़ नहीं उठाता. यह ज़ुल्म करते रहते हैं और हम सहते रहते हैं, लेकिन मैं अब चुप नहीं बैठूंगी. हर समय इनके खिलाफ आवाज़ उठाती रहूंगी तब तक जब तक इनको सज़ा न हो जाए.
आपने सरकार के सामने अपनी क्या मांगे रखी थी. क्या वो मांगे पूरी हुई?
हमने उत्तर प्रदेश सरकार से अपनी पांच मांगे रखी थीं. हमारी पहली मांग यह है थी कि शहीद ज़ियाउल हक़ से संबंधित सीबीआई जांच के अधिकारी सिर्फ दिल्ली को हों, लखनऊ के न हों. लखनऊ शाखा के सीबीआई अधिकारी होने पर जांच प्रभावित हो सकती है. हमारी दूसरी मांग यह थी कि फास्ट ट्रैक कोर्ट गठित कर दिल्ली गैंगरेप के तर्ज पर रोज़ के रोज़ सुनवाई हो. तीसरी मांग थी कि सीबीआई के अधिकारी जो भी सबूत इकट्ठा करें वो सीधे-सीधे सीबीआई कोर्ट को रिपोर्ट करें न कि अपने मातहत सीबीआई अधिकारी को. हमारी चौथी मांग यह थी कि फास्ट कोर्ट उत्तर प्रदेश के बाहर गठित हो अन्यथा जांच प्रभावित हो सकती है. और हमारी आखिरी मांग थी कि इस जांच से संबंधित जितने भी सीबीआई अधिकारी जांच कर रहे हैं, उनका बायोडाटा मुझे उपलब्ध कराई जाए.
लेकिन अफसोस कि उत्तर प्रदेश ने शायद मेरे एक भी मांग को नहीं मानी और न ही इस संबंध में कोई जानकारी ही मुझे दी गई.
आपके इंसाफ की इस लड़ाई में सबसे ज़्यादा साथ किसने दिया?
मीडिया ने शुरू से ही मेरी मदद की है. और आगे भी मुझे मीडिया पर ही भरोसा है कि वो मेरी मदद करेगी. बहुत सारी बातें व सबूत इंवेस्टीगेशन में नहीं आ पाते हैं, लेकिन कई केसेज़ में देखा गया है कि मीडिया ने सहयोग करके बड़े-बड़े सबूत सरकार के समक्ष लाई है. जिससे बहुत सारी केस में नई जान आ गई. दरअसल इस ज़माने में मीडिया का बहुत बड़ा रोल है इंसाफ दिलाने में…
आजकल आप क्या कर रही हैं?
आजकल लखनऊ में रिजर्व पुलिस लाइन में रहते हुए 18 मार्च, 2013 से ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी के तौर पर डीजीपी ऑफिस में काम कर रही हूं, जहां वेलफेयर डिपार्टमेंट में पुलिस वेलफेयर का काम देखना होता है.