Syed Shahroz Quamar for BeyondHeadlines
रांची की नाजिया तबस्सुम उन सबकी आवाज़ बनकर मुखर हुई है, जिनके लबों पर बरसों से ताले जड़े हुए थे. इस युवा लड़की की बेबाकी, ऊर्जा, साहस और आत्मविश्वास देख पुरान पंथी सकते में आ गए हैं. वह ऐसे सवाल पूछने लगी है जिनके जवाबों पर वह कुंडली मार बैठे थे. लेकिन मुस्लिम वोट के कारोबरियों को एक स्त्री का सामने आना रास नहीं आ रहा है.
उसने जब मौलाना अबुल कलाम आजाद द्वारा स्थापित अंजुमन इस्लामिया की सदस्यता के लिए आवेदन किया तो उसे यह कहकर निरस्त कर दिया गया कि महिलाओं के लिए यहां कोई जगह नहीं है. इस जवाब ने उसके तेवर बदल दिए और अंजुमन में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए उसने कमर कस ली. इमारते शरीया और महिला आयोग तक वह मुद्दे को लेकर गई. सभी जगह उसकी जीत हुई.
नाज़िया के ख़िलाफ़ लोगों को लामबंद करने की कोशिश की जा रही है. जबकि उसके हौसले की दाद दी जानी चाहिए थी. उनके विरोधियों को पता होना चाहिए कि अंजुमन महज़ सामाजिक संस्था है. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में भी महिला सदस्य हैं. वहीँ पड़ोस के बिहार में सुगरा वक्फ़ की मुतवल्ली तक एक महिला रह चुकी है. लेकिन धर्म-जमात की सियासत करने वालों को एक लड़की का इस तरह सामने आना हजम नहीं हो रहा है.
उर्दू अखबारों ने तो उसके ख़िलाफ़ मोर्चा ही खोल लिया है. मानो मुसलमानों का ठिका मिल गया हो. उन्हें शहर के प्रतिष्ठित मौलानाओं और इमामों का एक सियासी दल के प्रमुख के साथ मुस्कुराते हुए तस्वीर खिंचवाना (मौक़ा दल की सदस्यता लेने का) दिखाई नहीं देता. चुनाव से पहले की यह कौन सी क़वाइद है, जनता अब सब जानती है!
लेकिन दंश से लापरवाह मशाल थामे नाज़िया चल पड़ी है. नारा सिर्फ एक है : पढ़ो और पढऩे दो… इसके कारवां में शामिल युवाओं को विश्वास है कि लिंगभेद, निरक्षरता और अंधविश्वास के अंधेरों को वे ज़रूर छांट लेंगे…
लेदर कारोबार करनेवाले इब्राहिम कुरैशी की छोटी बेटी नाजिया ने मोहल्ले के कुरैश अकादमी से सन 2003 में मैट्रिक किया. जब मौलाना आजाद कालेज में आई तो हर मामले में बरते जा रहे लिंगभेद से उसे कोफ्त हुई. उसने छात्र संघ चुनाव में हिस्सा लिया और सचिव निर्वाचित हो गई. उत्साह बढ़ा तो अगले वर्ष 2008 में रांची विश्वविद्यालय छात्र संघ की संयुक्त सचिव का पद जीतकर उसने इतिहास रच दिया.
झारखंड और बिहार में ऐसा पहली बार हुआ कि किसी विश्वविद्यालय छात्र संघ की कोई मुस्लिम लड़की पदाधिकारी बनी. इस जीत ने उसे युवाओं का आईकान बना दिया. मुस्लिम लड़के-लड़कियों में इनका क्रेज बढ़ा और इसके साथ नाज़िया के हौसले भी. फिर उसने दुबारा पीछे मुड़कर नहीं देखा.
उसे धमकियां तक मिलीं. लेकिन इसने उसके हौसले को और बुलंद ही किया. छात्रा के साथ छेड़छाड़ हो… किसी की फीस माफ कराना हो… नाजिया हर जगह खड़ी मिलती है. मुबंई में हुए आतंकी हमले से वह उद्वेलित हो उठती है. लोगों को जमा कर शहर में एकजुटता के लिए मानव श्रंखला बना देती है. इसने झारखंड लोकसेवा आयोग में नियुक्ति में हुई धांधली के विरुद्ध लगातार प्रतिकार किया. नशा मुक्ति के लिए कालेजों में हस्ताक्षर अभियान चलाया.
विश्वविद्यालय में 180 दिनों की पढ़ाई, ग्रामीन इलाके के कालेजों में प्रोफेश्नल व वोकेश्नल कोर्स शुरू कराने सहित राम लखन यादव कालेज की ज़मीन बचाने में नाजिया ने अहम भूमिका निभाई है.
रांची के सोशल एक्टिविस्ट हुसैन कहते हैं कि नाज़िया का विरोध करने वाले उस लड़की में हिम्मत के ही बीज बो रहे हैं. वहीं लेखक-पत्रकार ज़ेब अख्तर उसके हौसले की दाद देते हैं. जबकि चर्चित पत्रकार नदीम अख्तर का लहजा ज़रा तल्ख़ है. कहते हैं जो लोग धर्म के आधार पर लैंगिक असमानता की वकालत करते हैं. उन्हें खाली डिब्बा कहना उचित होगा. धर्म को परिवर्तन काल से गुजारना ही चाहिए, ताकि वक्त के साथ हुए आविष्कारों से संबंधित धर्म के लोगों को भी फायदा मिल सके. अगर नहीं बदलना चाहते हैं तो आज भी ऊंट पर सवार होकर तिजारत करनी चाहिए. काहे को चढ़ते हैं हवाई जहाज में… महिलाओं को महिला कहकर ट्रीट ही नहीं किया जाना चाहिए. वो भी इंसान हैं हमारे-आपके जैसे. उनमें भी सारी सलाहियत व काबिलियत है और कुछ मामलों में पुरुषों से ज्यादा हैं. सिर्फ महिला कहकर धर्म का हवाला देकर उन्हें अछूत रखने की दोगली मानसिकता पितृसत्ता के स्थापित मानदंडों को ही आगे बढ़ाने जैसा है. इसकी जितनी भर्त्सना की जाये, कम है.
नाजिया ऐसे समाज से आती हैं, जहां सच को कभी सच की तरह स्वीकार नहीं किया जाता. लेकिन इस लड़की ने तमाम परिभाषाओं को नए मायने दिए हैं. उसने ऐसी मशाल रौशन की है जिसके प्रकाश में अन्याय, अनीति के दुर्दांत चेहरे मद्धिम पड़ते जा रहे हैं. हम नाजिया के ऐसे जज्बे को सलाम करते हैं….