#MeToo

स्वीट हार्ट! दिनभर लोगों को बचाओगी तो ख़बर कहां से लाओगी!

Anita Gautam for BeyondHeadlines

लोगों को लगता है इसने मीडिया क्यों छोड़ा? इसका भी नाम, शान, इज्ज़त और एक अच्छे पैकेज वाली तनख्वाह होती? कुछ बातें आज भी हैं. उनके मन में है कि शायद ये कैमरा फेस नहीं कर पाई होगी या स्क्रिप्ट ठीक से नहीं लिख सकती होगी. हो सकता है कि भाषा पर पकड़ न होने के साथ-साथ आवाज़ में भी कुछ गड़बड़ी रही हो, इसलिए वीओ तक नहीं कर पाती होगी. और भी न जाने ऐसी कौन-कौन सी बात आज भी मेरे मीडिया से जुड़े मित्रों के हैं.

मैं आज जब उन्हें चैनलों पर एंकरिंग, रिपोर्टिंग और एडिटिंग करते देखती हूं तो खुशी इस बात की होती है कि मैं ऐसी चमकदार दुनिया से इंसान के रूप में सही सलामत निकल आई और दुख इस बात का कि मेरे मित्र आज इतनी उंचाईयों पर पहुंच तो गए पर इंसान होने के बाद भी इंसानियत, दुख और सामने वाले का दर्द का अहसास भुल चुके हैं.

खैर, गलती उनकी भी नहीं. आखिर पत्रकारिता का पाठ जो पढ़ा है उन्होंने… पर उस पत्रकारिता के पाठ के अलावा, इस क्षेत्र में क़दम रखने के साथ ही संघर्ष की कहानी चालू हो जाती है…

इंटरर्नशिप के नाम पर महीनों-महीनें चप्पल की घिसाई से लेकर पेन की रगड़ाई तक का खर्च भी घर वालों से ही मांगना पड़ता है और बात जब ख़बर की हो तो पैदल चलते-चलते किसी कांफ्रेस के समाप्त होने पर ही सही, भागम-भाग में प्रेस रिलीज से काम चलाना पड़ता है.

पर मेरे मीडिया से दूर जाने का कारण न तो चप्पल की रगड़ाई रहा और न ही क़लम की घिसाई… यहां कारण कुछ और था…

प्रिंट मीडिया से इलैक्ट्रानिक में जाने के बाद दिमाग आसमान में उड़ने लगा था. जिन लोगों को अक्सर एंकरिंग करते देखती  थी, अब मैं उनके साथ बैठकर खाना खाते हुए चेहरे के हावभाव, बोलने के तरीके को सीखने की कोशिश कर रही थी.

यकीनन मेरे मन में भी उन उंचाईयो को हासिल करने की लालसा और लगन दोनों थी. मेरे लिए सब कुछ नया था, वो स्क्रिप्ट, वो एडिटिंग, बहुत बड़ा स्टुडियो, जिसमें 8-10 एसी हमेशा चला करते थे और भरी गर्मियों में मैं पूरे बाजु के कपड़े पहना करती थी. वो वाइस ओवर करने का रूम भी बहुत अच्छा था. सरकारी फाईलों की तरह न्यूज़ टेप वीडियो भी अपडेट लाइन में लगी होती. एडिट्युड और घमंड नाम की चिड़िया का घोंसला भी देखा…

शुरुआती दिनों में तो स्क्रिप्ट ही लिखनी पड़ती थी. पर बाद में रिपोर्टिंग के लिए बाहर भी जाने का मौका मिला. मन में बहुत उत्साह था कि मेरी स्टोरी आने पर मैं भी टीवी पर दिखुंगी…

खैर कुछ दिनों बाद बाबू जगजीवन राम की पूण्यतिथि थी. मैंने मेरे सीनियर को बापू की समाधि के सामने बने जगजीवन राम की समाधि के बारे में बताया और वहां जा कर स्टोरी करने की बात रखी. मेरे बॉस का जवाब था- कुत्ता भी उस जगह नहीं जाता, अपना टाइम बरबाद मत करो. और लगे हाथ दिल्ली हाट में लगे मेले की कवरेज के लिए जाने को बोल दिया.

मुझे लगा, दिल्ली हाट के मेले और जगजीवन राम में कोई अंतर ही नहीं? क्योंकि उस स्टोरी के पीछे मैंने पहले से काफी मेहनत भी की थी. पर फिर भी चाह कर कुछ न बोल सकी औैर कैमरामैन के साथ दिल्ली हाट की ओर निकल पड़ी.

उस दिन मेरी 4-12 की शिफ्ट थी. और दिल्ली हाट से आने के बाद लगभग 8 बजे कैफेटेरिया में एक सिनीयर रिपोर्टर को एकाएक बोल बैठी. भैया बताओ, ऐसी स्टोरी का क्या मतलब जिसमें चूड़ी, बिंदी और लोगों के खाने के बारे में बताया जाए? जगजीवनराम ने दलितों के लिए कितना कुछ किया. जब बात गांधी की होती है तो पूरा मीडिया क्या गांधी परिवार तक उस एक दिन गांधी समाधि पर दिखाई देता है और आज जगजीवन राम के लिए कोई न्यूज़ ही नहीं?

मेरी उस बात को सुनते ही वो बोले- देखो मीडिया लाइन में कोई किसी का भैया या कोई किसी की बहन नहीं होती. इसलिए बेहतर होगा कि तुम मुझे क्या सबको भैया बोलना छोड़ दो. वरना तुम्हें मीडिया में भैया का मतलब समझते देर नहीं लगेगी…

उनकी ये बात तो उस स्टोरी की बात से ज्यादा दुख देने वाली थी. मैं बिना कुछ बोले चाय उठाते हुए वहां से उठ गई. उन्हीं दिनों खुब बरसात के कारण मैं 5 मिनट लेट ऑफिस पहुंची तो सजा के तौर पर मुझे टेप काउंट करने का काम बताया गया और वो भी उस मशीन पर जो पुराने स्टुडियों में अंदर के रूम में थी.

अक्सर लोग उस स्टुडियों में अकेले जाने से डरते थे और वहां हुई कुछ घटना के बाद रात के समय तो कोई पांव तक नहीं रखता था. मुझे और मेरी एक सहेली को सजा देने के लिए उस जगह बैठा दिया गया वो भी रात साढे 12 तक पर मुझे उस सजा से खासा फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि मेरी गलती थी कि मैं बारिश के कारण 5 मिनट ही सही पर ऑफिस लेट आई थी…

अगले दिन एक घटना का जिक्र हुआ कि एक आदमी ने विरोध प्रदर्शन दर्ज कराने के लिए आत्मदाह कर लिया था, जिसका फुटेज मेरे सहकर्मी के कैमरे में दर्ज  था. मैंने उसे देखा तो रोंगटे खड़े हो गए, पर ये क्या सर आपने इसे बचाया क्यों नही?

तो हमारी एक और सीनियर मैडम बोली- ‘मेरी जान मीडिया में रह कर दूसरों को बचाने का काम करोगी तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा. स्वीट हार्ट! यहां दिल से नहीं दिमाग से काम होता है. हमें सिर्फ फुटेज से मतलब है.  किसी और से नहीं. क्या तुमने कभी न्यूज़ में देखा या सुना है कि कोई रिपोर्टर किसी की जान बचा रहा है, नहीं न?  ऐसा करने से अपने ही पेट पर लात पड़ती है. तुम दिनभर लोगों को बचाओगी तो खबर कहां से लाओगी? ये मीडिया है मेरी जान….!!! ’ तो कल से अपनी भावना के साथ-साथ वेदना और संवेदना को घर ही छोड़कर आना. उनकी ये बात पिछली बातों से ज्यादा कष्ट देने वाली थी.

मैं पूरी रात सोचती रही… मीडिया वास्तव में क्या है और क्या दिखाता है? माना ये कारपोरेट है पर यहां काम करने वाले सभी तो भारतीय है. फिर कोई किसी को भाई या बहन क्यों नहीं बोल सकता? क्यों यहां बॉस आपसी झगड़ो में मोहरा हम जैसों को बनाते हैं. और झगड़े सुलझाने से लेकर एक झटके मे प्रमोशन करने के नाम पर खुल्लेआम बिस्तर तक की बात कर देते हैं? कोई भी स्विट हार्ट, जानेमन, डार्लिंग, चिकनी, मस्त, आईटम कुछ भी बोल देता है, आखिर क्यों???

मैंने सोचा ये बातें सीनियर एडिटर से बताई जाए तो, वो तो महिला हैं, वो मेरी बात ज़रूर सुनेंगी… मैं रात 11 बजे करीब उनके रूम में जाने लगी तो रूम अंदर से बंद था, मैंने खटखटाया तो अंदर से कोई आवाज नहीं आई. मुझे लगा मैडम रेस्ट कर रही होंगी और मैं वापिस आ गई. आधे घंटे बाद पुनः वहां पहुंची तो देखा मैडम के रूम का डोर खुला था. पैन की जगह हाथ में शराब का गिलास और मालबोरे की सिगरेट थी.

खैर, मैडम के हाथ में सिगरेट पहली बार नहीं देखी थी. अक्सर सिगरेट के पैकेट वो जेब में रखती थीं… पर शराब का गिलास देख झटका लगा. पर ये क्या टेबल पर एक और गिलास था.

अब न जाने क्यों मैडम से बात करने में डर लग रहा था. पर उनके रूम तक आकर बिना कुछ बोले जाने में ज्यादा डर था. मैंने हिम्मत करके सब बोल दिया. मैडम ने मेरी बातों को ध्यान से सुना और जोर से हंसने लगी.

बोली स्विट हार्ट! तुम काबिल हो… अच्छा वीओ भी करती हो… भाषा पर पकड़ भी ठीक-ठाक ही है… कुछ दिनों परफैक्ट हो जाओगी. मुझे नहीं लगता तुम्हें किसी की बातों को ध्यान देना चाहिए. और रही बात सोने की तो ये तो मीडिया है. प्यार-प्यार में तो तरक्की हो जाती है वरना एक बार कोई खुंदक खाकर बैठ गया तो जिंदगी भर पीछा नहीं छोड़ेगा. चाहे कहीं भी क्यों न चली जाओ… अब तुम सोचो तुम्हें कैसे आगे बढ़ना है?

मैं मैडम की उस बात को सुनकर बिना जवाब दिये सिर नीचे किये नीचे आ गई. मेरे ड्रावर में कुछेक ज़रूरी पेपर, चार्जर और एक स्टाल रखा था उसे बैग में डाल कर ऑफिस कैब से घर आ गई. अगले दिन 15 दिन के बाद 1 दिन की छुट्टी मिली थी. आराम से सोई और उसके बाद आज तक चैनल की छुट्टी ही मना रही हूँ.

मैं उन लोगों का भी शुक्रिया अदा करती हूं जिन्होंने आत्मीयता के कारण मुझे बार-बार फोन करके पुनः आने के लिए बुलाया. कुछेक को भविष्य में मुझे नौकरी में दिक्कत न हो. एक्सपिरियेंस सर्टिफिकेट लेने तक की चिंता जताई. पर मेरे लिए उस सर्टिफिकेट का कोई अर्थ नहीं क्योंकि मैंने तय कर लिया था कि मैं अब मीडिया में क़दम नहीं रखूंगी…

उसके बाद भी यदाकदा मित्र पुरानी बातें भूल दुबारा कहीं और ज्वाइन करने के लिए बोलते है पर क्या करूं वो दो बातें जो दो औरतों के मुंह से बोली गई आज तक भुलाए नहीं भुलती.

ऐसा नहीं था कि वहां सब लोग बुरे थे. पर हां! वो माहौल शायद मेरे लिए था ही नहीं. मानसिक शोषण से लेकर शारीरिक शोषण तक के सफ़र में मेरे ही साथ के कुछ मित्र शोषण और बुद्धि के प्रयोग से आगे बढ़ गए. और मैं आज वहीं की वहीं हूं. पर इसका मतलब ये नहीं कि मैं हार गई.

समझौते की नींव बहुत ही ऊंची पर कच्ची होती है. उसी के चलते आज उस चमचमाती नगरी में मेरी कोई पहचान नहीं. कोई नाम नहीं, पर मैं उस चुभने वाली रोशनी से दूर एक सुकुन जिंदगी बिता रही हूं, जिसकी नींव बहुत गहरी है…

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