BeyondHeadlines News Desk
लखनऊ : मौलाना खालिद मुजाहिद के इंसाफ के लिए विधानसभा लखनऊ धरना स्थल पर रिहाई मंच के अनिश्चित कालीन धरने का आज एक माह पूरा हो गया. इस दौरान प्रदेश की सपा सरकार द्वारा हमारी लोकतांत्रिक मांगों को मानना तो दूर इसके विपरीत सरकार द्वारा पूरी जांच प्रक्रिया को भटकाने की आपराधिक कोशिशें जारी हैं. इस दौरान सरकार द्वारा हमारे आंदोलन को तोड़ने की पुरजोर कोशिशें भी की गईं, लेकिन अवाम की ताक़त और सहयोग के बल पर ऐसी ताक़तों को करारी शिकस्त देते हुए हमारा आंदोलन जारी है. आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों की रिहाई का चुनावी शिगूफा छोड़ने वाली वादा खिलाफ अखिलेश सरकार का सांप्रदायिक चेहरा बेनकाब हो चला है.
18 मई, 2013 को मौलाना खालिद मुजाहिद की पुलिस अभिरक्षा में हत्या के बाद उनके चचा मौलाना ज़हीर आलम फ़लाही द्वारा थाना कोतवाली बाराबंकी में मुक़दमा अपराध संख्या 295/13 कोतवाली बाराबंकी अन्तर्गत धारा 302, 120 बी आईपीसी दर्ज कराई गई. इस रिपोर्ट में पुलिस अधिकारी विक्रम सिंह, बृजलाल, मनोज कुमार झा, चिरंजीवनाथ सिन्हा, एस आनंद एवं आईबी के उच्च अधिकारियों सहित 42 अन्य पुलिस कर्मियों को अभियुक्त नामित किया गया, पर एक महीने से ज्यादा समय बीत जाने के बावजूद कोई गिरफ्तारी नहीं की गई.
19 मई को खालिद की मिट्टी के दूसरे दिन ही प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने गैर जिम्मेदाराना ढंग से बयान दिया कि खालिद की मौत बीमारी से हुई थी. जबकि बाराबंकी में हत्या के बाद फोटोग्राफ सहित अन्य परिस्थिति जन्य साक्ष्य और पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मृत्यु के कारणों का स्पष्ट न होना इस बात की तरफ मज़बूत इशारा था कि खालिद की मौत के पीछे उच्च स्तरीय साजिश है.
घटना के बाद प्रदेश सरकार की तरफ से सीबीआई जांच को लेकर जहां तेजी दिखानी चाहिए थी इसके उलट सरकार द्वारा प्रायोजित अनेक उलेमा और अबू आसिम आज़मी जैसे सपा के मुस्लिम नेताओं ने सरकारी सुर में सुर मिलाते हुए यह बयान जारी किया कि यह स्वाभाविक मृत्यु है. रिहाई मंच ने लगातार मांग की कि किसी भी षडयंत्र की जांच सीबीआई करती है तो इस जांच को भी सीबीआई से जल्द से जल्द शुरु कराया जाय. क्योंकि चाहे वो अखिलेश यादव हों या फिर कोई उलेमा या सपा का मुस्लिम नेता वह कोई जांच एजेंसी नहीं हैं, किसी बेगुनाह की मौत पर इस तरह की बयानबाजियां सपा सरकार की खोखली मानसिकता दर्शाती है.
जिस तरीके से कभी जेल अधिकारी तो कभी चिकित्सकों के परस्पर अन्तर्विरोधी बयान मीडिया में सरकार ने प्रायोजित तरीके से प्रसारित करवाकर भ्रम पैदा किया, उसने खालिद की हत्या की जांच को भटकाने की कोशिश की. अखिलेश सरकार द्वारा खालिद मुजाहिद की हत्या की जांच सीबीअई द्वारा कराए जाने की घोषणा मात्र दिखावा साबित हुई क्योंकि अब तक कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग द्वारा इस संबन्ध में अधिसूचना जारी नहीं की गई.
19 मई को कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीवोपीटी) सीबीआई जांच के लिए पत्र लिखा गया, परन्तु दिल्ली स्पेशल पुलिस स्टेबलिसमेंट एक्ट की उक्त धारा-5 के अन्तर्गत डीवोपीटी द्वारा सीबीआई को अधिसूचना जारी नहीं की गई, जो की सीबीआई द्वारा जांच अपने हाथ में लेने के लिए आवश्यक है. यूपी सरकार ने डीएसपीई एक्ट के सेक्सन 6 के अनुसार विवेचना के लिए अपनी सहमति का पत्र दिया था. सपा सरकार ने अपनी एजेंसियों से तेजी से जांच करवाकर दोषियों को बचाना चाहती है, और इसी फिराक में डीवोपीटी विभाग ने अब तक नोटिफिकेशन नहीं किया.
ऐसे में खालिद के न्याय के लिए तत्काल प्रदेश सरकार द्वारा कराई जा रही जांच की कार्यवाई तुरंत समाप्त कर उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा की जा रही विवेचना को अविलंब रोककर सीबीआई द्वारा तुरंत विवेचना कराया जाना सुनिश्चित किया जाय. शासन एवं प्रशासन के स्तर पर जनसंचार साधनों के माध्यम से मीडिया ट्रायल करके जांच को प्रभावित करने की कोशिश बंद की जाए. न्यायहित में यह आवश्यक है कि उत्तर प्रदेश सरकार सीबीआई को समस्त तथ्यों को प्रेषित करते हुए तत्काल सीबीआई जांच कराना सुनिश्चित करे.
निष्पक्ष विवेचना न्याय का आधार होती है. यदि सरकारी मशीनरी द्वारा किसी नागरिक को निष्पक्ष विवेचना उपलब्ध न करायी जाय और अभियोजन द्वारा झूठी कहानी और साक्ष्य गढ़कर किसी निर्दोष को फंसाया जाय, उसका जीवन बर्बाद किया जाय तो यह केवल उस पीडि़त व्यक्ति के लिए ही नहीं बल्कि संपूर्ण नागरिक समाज के लिए गंभीर चिंता का विषय है.
रिहाई मंच द्वारा यह मांग खालिद मुजाहिद की मृत्यु से पहले ही की जा रही थी कि निमेष कमीशन की रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाय. परन्तु 31 अगस्त 2012 को निमेष आयोग द्वारा सरकार को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट के मिलने के बावजूद सरकार इसे सार्वजनिक करने के लिए तैयार नहीं थी और एक रहस्यमयी चुप्पी साध रखी थी, जबकि सपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में यह वादा किया था कि वह आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाह मुस्लिम युवकों से मुकदमें वापस लेगी.
ऐसी स्थिति में सपा से यह आशा थी कि यह सरकार इस रिपोर्ट को सन 2012 के अंत में आहूत विधानसभा सत्र में एक्शन टेकन रिपोर्ट के साथ इसे प्रस्तुत करेगी. यहां बताना आवश्यक है कि निमेष आयोग का गठन कमीशन ऑफ इन्क्वारी एक्ट की धारा-3 के अन्तर्गत 14 मार्च 2008 को तत्कालीन सरकार ने किया था. विधि के अनुसार किसी भी गठित कमीशन की रिपोर्ट को सरकार को मिलने के उपरान्त यह सरकार के लिए अनिवार्य हो जाता है कि 6 महीने के अंदर रिपोर्ट को एक्शन रिपोर्ट के साथ विधानसभा पटल पर रखे. सरकार द्वारा ऐसा न करना एक बड़े षडयंत्र का हिस्सा था.
सरकार ने खालिद की मौत के बाद पूरे प्रदेश में उपजे जनांदोलनों के दबाव पर कैबिनेट में निमेष आयोग की रिपोर्ट रखी. रिहाई मंच ने साफ तौर पर कहा था कि हमने 18 मार्च 2013 को ही आरडी निमेष रिपोर्ट को जनहित में जारी कर दिया था, ऐसे में सरकार कैबिनेट में एक्शन टेकन रिपोर्ट के साथ इसे रखे, पर सरकार ने ऐसा नहीं किया.
सरकार के नुमाइंदों ने मुस्लिम समाज में भ्रम फैलाने की कोशिश की कि कैबिनेट में यह एक्शन नहीं लिया जा सकता पर इस देश में जब किसानों-मजदूरों के खिलाफ जनविरोधी कानूनों को ऐसी कैबिनेट में तत्काल मंजूरी मिलती है तो फिर बेगुनाहों की रिहाई से जुड़ी इस महत्वपूर्ण रिपोर्ट को क्यों नहीं लाया गया?
यह बात काबिले गौर है कि अगर खालिद मुजाहिद की रिहाई होती और उनकी गवाही पर प्रदेश सरकार के कई आला पुलिस व आईबी अधिकारी जेल की सीखचों के पीछे नजर आते और सिर्फ गिरफ्तारी ही नहीं आतंकी घटनाओं में पुलिस, एसटीएफ, एटीएस और आईबी की संलिप्तता का पर्दाफाश होता. क्योंकि दिनांक 22 दिसंबर 2007 को तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद को एसटीएफ और पुलिस द्वारा बाराबंकी रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार दिखाया गया था, और उनसे डेढ़ किलो आरडीएक्स, जिलेटिन के छड़ों सहित अन्य सामग्री की बरामदगी का दावा किया गया. अब जब सबके सामने आ गया है कि गिरफ्तारी संदिग्ध है तो इस बात का उठना लाजिमी था कि एसटीएफ को किसने विस्फोटक पदार्थ मुहैया कराया था?
रिहाई मंच ने इस बात को बार-बार सरकार के सामने उठाया है कि जिस तरह से मालेगांव और गुजरात में इशरत जहां के मामले में पुलिस की विशेष शाखाओं और आईबी द्वारा न सिर्फ बेगुनाह मुस्लिम युवकों को फंसाया गया बल्कि हिन्दुतवादी आतंकी संग्ठनों को बचाया गया यह हिन्दोस्तांन जैसे बड़े धर्मनिरपेक्ष देश में अराजकता फैलाने की कोशिश है और यही कोशिश तारिक-खालिद प्रकरण में भी नज़र आती है.
प्रदेश सरकार खालिद के न्याय की लड़ाई को किस तरह से कमजोर करना चाहती है. इसका जीता जागता उदाहरण फैजाबाद है जहां सपाई गुंडों और हिन्दुत्वादी संगठनों के लोगों ने मुस्लिम वकीलों पर जानलेवा हमला किया और यहां तक कि उनकी बार एसोसिएशन की सदस्यता को भी खत्म कर दिया.
इसी तरह खालिद की मौत बीमारी से हुई यह बयान सपा के अबू आसिम आज़मी के देने के बाद पूरे प्रदेश में जगह-जगह प्रदर्शन हुए। आज़मगढ़ में अबू आसिम का पुतला फूंकने वालों पर जिस तरीके से फर्जी मुक़दमें लादे गए वो बताता है कि सरकार हक़ की हर आवाज़ को दबाना पर आमादा है.
उपर्युक्त घटनाओं से यह साफ हो चला है कि सूबे की सत्ताधारी सपा सरकार की नियति बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों की रिहाई के मामले में साफ नहीं है. इसलिए खालिद मुजाहिद के इंसाफ के लिए रिहाई मंच द्वारा जारी मुहीम न्याय मिलने तक जारी रहेगी. हम तमाम लोकतंत्र पसन्द अवाम, जनांदोलनों की ताकतों, राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों, मानवाधिकार कर्मियों, बुद्धिजीवियों और मीडिया कर्मियों से इंसाफ की मांग के लिए एक माह से चल रहे रिहाई मंच के आंदोलन में भागीदारी की पुरजोर अपील करते हैं.