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Reading: परत दर परत खोलती गोरखपुर सीरियल ब्लास्ट पर एक रिपोर्ट
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BeyondHeadlines > India > परत दर परत खोलती गोरखपुर सीरियल ब्लास्ट पर एक रिपोर्ट
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परत दर परत खोलती गोरखपुर सीरियल ब्लास्ट पर एक रिपोर्ट

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published June 29, 2013 3 Views
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60 Min Read
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BeyondHeadlines News Desk

घटना के सम्बंध में दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट:

दिनांक 22 मई, 2007 को समय करीब शाम सात बजे गोरखपुर नगर में तीन बम धमाके हुए जिसके संबंध में राजेश राठौर, जो कि एक पेट्रोल पंप पर सेल्समैन का काम करता था, ने थाना कैंट गोरखपुर में रिपोर्ट दर्ज कराई.

इसके आधार पर मुक़दमा अपराध संख्या 812 सन 2007, अंतर्गत धारा 307 आईपीसी, धारा-3/4/5 विस्फोटक पदार्थ अधिनियम व 7 क्रिमिनल लॉ एमेंडमेंट एक्ट कायम हुआ. दर्ज कराई गई रिपोर्ट के अनुसार वादी ने कहा कि सात बजे उसे जलकल बिल्डिंग की तरफ से धमाके की आवाज़ सुनाई दी और तभी दूसरा धमाका बलदेव प्लाजा पेट्रोल पंप के बगल में हुआ. यह विस्फोट साइकिल पर टंगे झोलों में रखे बम विस्फोट के कारण हुआ. अफरा-तफरी का माहौल हो गया और तभी तीसरा धमाका गणेश चैराहे पर हुआ.

एफआईआर में लिखा है कि तीनों जगह साइकिल पर टंगे झोले में रखे बमों के विस्फोट होने के कारण लगातार एक के बाद एक धमाके हुए. ऐसा मालूम होता है कि आतंक फैलाने के मकसद से भीड़-भाड़ वाले इलाके में ये धमाके हुए. चूंकि इनकी क्षमता कम थी, इसलिए कोई बड़ा हादसा नहीं हुआ. इक्का-दुक्का लोगों को चोटें आई हैं. जागरूक नागरिक होने के नाते सूचना दे रहा हूं.

उपरोक्त रिपोर्ट थाना कैंट में 22 मई को रात्रि 8 बजकर 45 मिनट पर यानी घटना से लगभग पौने दो घंटे बाद दर्ज हुई. इस मामले की जांच विवेचक एसआई राकेश कुमार सिंह थाना कैंट को सौंपी गई. घटना के अगले दिन दिनांक 23 मई, 2007 को प्रमुख सचिव (गृह) के. चंद्रमौली, डीजीपी जीएल शर्मा, एडीजी (एसटीएफ) शैलजाकांत मिश्र ने घटना स्थलों का दौरा किया. इसी दिन गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर बंद का आह्वान किया और बाजार बंद रहे.

विवेचक द्वारा कुछ घायलों के बयान लिखे गए. घायल रामेश्वर पटेल, राजेश शर्मा, संतोष सिंह, संजय राय और गुड्डू चौबे ने बयान अंतर्गत धारा-161 सीआरपीसी दर्ज कराए. इन पांच के अलावा विवेक यादव के घायल होने का जिक्र भी विवेचक ने अपनी विवेचना दिनांक 23 मई, 2007 की केस डायरी में किया है.

वादी और घायल गवाह – नहीं बता सके कि साइकलें किसने खड़ी की

पहला प्रश्न यह है कि जिन पांच उपरोक्त घायलों के बयान विवेचक द्वारा केस डायरी में लिखे गए हैं, उनमें से किसी ने भी यह बयान नहीं दिया है कि विस्फोट किस प्रकार हुआ. उन्होंने केवल इतना ही कहा कि विस्फोट हुआ और वे नहीं समझ पाए कि ये किस प्रकार हुआ. वे घायल हो गए. जो व्यक्ति घटना स्थल पर मौजूद थे और घायल हुए, उनके द्वारा यह नहीं कहा गया कि ये विस्फोट साइकिल में रखे झोलों में हुए थे और ऐसा होते उन्होंने देखा था. परंतु दिलचस्प यह है कि रिपोर्ट दर्ज कराने वाला व्यक्ति राजेश राठौर, जो विस्फोट के समय किसी भी घटना स्थल पर उपस्थित नहीं था और ना ही वह घायल हुआ था, द्वारा अपनी रिपोर्ट में लिखाया गया कि तीनों धमाके साइकिल में टंगे झोलों में रखे बमों के फटने से हुए. इतना ही नहीं, उसके द्वारा यह भी बड़ी बेबाकी से रिपोर्ट में लिखाया गया कि इन धमाकों की क्षमता कम थी, इसलिए कोई बड़ा हादसा नहीं हुआ और संभवतः इक्का-दुक्का लोगों को चोटें आई हैं.

पुलिस द्वारा हिंदु युवा वाहिनी से जुड़े अपराधियों से गहन पूछताछ नहीं की गयी?

पुलिस द्वारा यह मानकर कि बम विस्फोट साइकिल में टंगे झोलों के अंदर रखे बमों के फटने से ही हुए हैं, विवेचना प्रारंभ कर दी गई. दिनांक 24 मई, 2007 के बाद विवेचक द्वारा आशीष कुमार गुप्ता, बेचू लाल, अख्तर के बयान दर्ज किए गए. परंतु इनमें से किसी ने भी अपने बयानों में यकीन से नहीं कहा कि उन्होंने साइकिलों में टंगे झोलों में से बम विस्फोट होते हुए देखा था. यह अवश्य कहा कि घटना स्थल पर साइकिलें टूटी पड़ी थीं. विवेचक द्वारा कुछ संदिग्ध अपराधियों से पूछताछ की गई जो इससे पूर्व बम विस्फोट के मुक़दमों में जेल जा चुके थे. परंतु उनमें से किसी ने भी इन विस्फोटों के बारे में कोई जानकारी नहीं दी.

वे व्यक्ति, जिनसे पूछताछ की गई, उनके नाम राकेश कुमार निषाद, अविनाश मिश्रा, कृष्ण मोहन उपाध्याय और भानू प्रसाद चैहान हैं. ये सभी पूर्व में हुए बम विस्फोट के अलग-अलग मामलों में जेल जा चुके थे और उनके मुक़दमे विचाराधीन थे. यह सभी व्यक्ति जो पूर्व में हुये बम विस्फोटों के मुक़दमों में जेल जा चुके थे, हिंदु युवा वाहिनी से जुड़े हैं परंतु इन से राजनीतिक दबाव में गहन पूछताछ नहीं की गयी.

विवेचक द्वारा विजय कुमार श्रीवास्तव, जो बलदेव प्लाजा के मालिक का गनर है, ओम प्रकाश पासी, जावेद और शमसुल हसन के भी बयान दर्ज किए. परंतु इनके चश्मदीद गवाह नहीं होने के कारण विवेचक को कोई महत्वपूर्ण जानकारी इनसे प्राप्त नहीं हो सकी.

जब कोई चश्मदीद गवाह नहीं तो अपराधियों का स्केच कैसे बना ?

विवेचक द्वारा दिनांक 10 जून, 2007 की केस डायरी पर्चा नंबर-10 में यह उल्लेख किया गया है कि तीन संदिग्ध अपराधियों के स्कैच, जो पूछताछ के बाद बनाया गया था, को पोस्टर के माध्यम से सार्वजनिक स्थानों पर भेजकर चस्पा कराया गया. इन स्कैच को केस डायरी के साथ संलग्न किया गया तथा सूचना देने वाले को 10 हजार रुपये देने की घोषणा की गई.

INPA2311071-1024x680यह दिलचस्प है कि तीन संदिग्ध अपराधियों के स्कैच, जो विवेचक द्वारा बनवाए गए, वह किसकी सूचना के आधार पर, जिसने उन संदिग्ध अपराधियों का साइकिलें रखते हुए देखा हो, बनवाए. ऐसे किसी चश्मदीद गवाह का नाम ना किसी केस डायरी में मिलता है और ना ही उसका कोई बयान दर्ज है. यहां तक कि इसका भी उल्लेख नहीं है कि अपना नाम और पता गुप्त रखने की शर्त पर किसी गवाह ने कोई जानकारी दी हो और जो चश्मदीद साक्षी रहा हो जिसने उन व्यक्तियों को देखा हो जिनके स्कैच उसने बनवाए. चूंकि ऐसा कोई तथ्य अथवा साक्ष्य केस डायरी पर उपलब्ध नहीं है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि विवेचक द्वारा जो स्कैच बनवाए गए, वो मनगढ़ंत थे और संभवतः कुछ ऐसे व्यक्तियों को इस मामले में अभियुक्त बनाने की तैयारी कर ली गई थी जो पुलिस की अभिरक्षा में पहले से ही रहे होंगे.

दिनांक 11 जुलाई, 2007 को विवेचना एसआई श्री दुर्गेश कुमार को सौंप दी गई. दिनांक 27 जुलाई, 2007 को एक विशेष टीम का गठन किया गया और जारी स्कैच के आधार पर ही अभियुक्तों की तलाश शुरू कर दी गई. विवेचक द्वारा रितेश जालान का बयान दर्ज किया गया लेकिन कोई जानकारी नहीं मिली. दिनांक 27 अगस्त, 2007, दिनांक 7 सितंबर, 2007, दिनांक 20 सितंबर, 2007, दिनांक 14 अक्टूबर, 2007 की केस डायरियों के अवलोकन से स्पष्ट होगा कि जारी किए गए स्कैचों के आधार पर ही अभियुक्तों की तलाश की जा रही थी. दिनांक 24 अक्टूबर, 2007 को विवेचना एपी सिंह द्वारा शुरू की गई जो संदिग्ध अभियुक्तों के जारी स्कैच पोस्टरों को लेकर जगह-जगह पूछताछ करते रहे लेकिन उन्हें कोई कारगर जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी.

इस कांड की पूरी विवेचना में अब तक स्पष्ट हुआ कि न तो कई चश्मदीद गवाह ऐसा मिल सका जिसने किसी व्यक्ति को साइकिलों को रखते हुए घटना स्थलों पर देखा हो और उसे पहचाना हो और ना ही कोई ऐसा चश्मदीद गवाह सामने आया जिसके सामने साइकिलों पर टंगे झोलों से बम फटे हों. उन व्यक्तियों के नाम और बयान भी शामिल विवेचना में नहीं है जिन्होंने संदिग्ध अभियुक्तों के स्कैच बनवाए, जिनको लेकर पुलिस विवेचना अधिकारी अभियुक्तों को ढूंढ़ते घूम रही थी. वादी राजेश राठौर का बयान भी विश्वसनीय नहीं माना जा सकता क्योंकि वह किसी भी घटना स्थल पर स्वयं उपस्थित नहीं था और ना ही वह घायल हुआ था.

तारिक़ कासमी की बाराबंकी मामले में गैर कानूनी हिरासत एक महत्वपूर्ण मोड़ गोरखपुर मामले में भी अभियुक्त बनाने की साजिश रची गयी

दिनांक 14 दिसंबर 2007 को विवेचना में उस समय महत्तवपूर्ण मोड़ आया जब थाना प्रभारी निरीक्षक कैंट एपी सिंह जो कि इस कांड के विवेचक थे वरिष्ठ पुलिस अधिक्षक गोरखपुर के निर्देश पर अभियुक्तों का पता लगाने के लिए एंटी टेररिस्ट सेल लखनऊ आए जहां उन्होंने अधिकारियों से संपर्क करके उन्हें संदिग्ध अभियुक्तों को स्केच दिखाकर जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया. इसका उल्लेख एपी सिंह ने केस डायरी पर्चा नंबर 24 दिनांक 14 दिसंबर 2007 में किया है.

यहां यह उल्लेख किया जाना आवश्यक है कि इससे दो दिन पूर्व दिनांक 12 दिसंबर 2007 को तारिक़ कासमी को पुलिस और एसटीएफ की मिलीभगत से उस समय गैर कानूनी हिरासत में ले लिया गया था जब वे आजमगढ़ के रानी की सराय स्थित सड़क मार्ग से अपनी मोटर साइकिल पर सवार होकर कहीं जा रहे थे और इस संबन्ध में समाचार पत्रों में समाचार प्रकाशित हो गए थे तथा आज़मगढ़ जनपद के संबंधित थाना और वरिष्ठ अधिकारियों को भी सूचित किया जा चुका था.

इसलिए इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि जब 14 दिसंबर को एपी सिंह एंटी टेररिस्ट लखनऊ में आए तो उस समय उनके रुबरु तारिक कासमी को न किया गया हो क्योंकि इस बात के सबूत मौजूद हैं कि वह दिनांक 14 दिसंबर 2007 को लखनऊ में ही पुलिस एजेंसियों की गैर कानूनी हिरासत में था.

दिनांक 14 दिसंबर 2007 को लखनऊ से लौटकर एपी सिंह ने दिनांक 15 दिसंबर 2007 और दिनांक 20 दिसंबर 2007 को संदिग्ध अभियुक्तों के स्केच और फोटो आम लोगों को दिखाए और जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न किया पर कोई सफलता नहीं मिली. लखनऊ में तारिक कासमी को विधिक रुप से गिरफ्तार दिखाया जाएगा इसका इंतजार विवेचक करने लगे और 22 दिसंबर 2007 को तारिक कासमी की विधिक गिरफ्तारी की घोषणा होते ही विवेचक द्वारा साइकिल विक्रेताओं की झूठी गवाही, विक्रय की झूठी रसीदों की फोटो स्टेट प्रतियां व मौलाना अफजालुल हक को गवाह के रुप में फिट करने का काम इस योजना के साथ तैयार कर लिया कि इस कांड का मुख्य आरोपी तारिक कासमी को ही बनाना है.

विवेचक की नयी धांधली- साइकिलें खरीद की झूठी गवाही गढ़ना

दिनांक 24 दिसंबर 2007 को विवेचना एपी सिंह से हटाकर क्षेत्राधिकारी कैंट गोरखपुर को सुपुर्द कर दी गई और क्षेत्राधिकारी कैंट गोरखपुर द्वारा विवेचना में नई धांधली शुरु कर दी गई. अपनी विवेचना के प्रथम दिन क्षेत्राधिकारी कैंट गोरखपुर ने दिनांक 25 दिसंबर 2007 को केस डायरी पर्चा नंबर 29 में यह झूठा उल्लेख किया-

‘‘श्रीमान जी उपरोक्त अभियोग में इसके पूर्व जांच के दौरान यह ज्ञात हुआ था कि घटना में प्रयुक्त साइकिलें रेती चौक स्थित जयदुर्गा साइकिल स्टोर व हिन्दुस्तान साइकिल स्टोर से खरीदी गईं थीं और उन्हीं दुकानदारों से पूछताछ के आधार पर घटना में शामिल संभावित अभियुक्तों का स्केच जारी किया गया था.’’

यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि क्षेत्राधिकारी कैंट गोरखपुर द्वारा अपनी विवेचना में उपरोक्त विवरण का झूठा उल्लेख किया गया क्योंकि 25 दिसंबर 2007 के पूर्व की तिथियों में लिखी गई केस डायरी में कहीं भी यह उल्लेख नहीं है कि किसी भी तिथि में किसी भी विवेचक ने रेती चौक स्थित जय दुर्गा साइकिल स्टोर और हिन्दुस्तान साइकिल स्टोर के दुकानदारों से कोई पूछताछ की और दौरान विवेचना यह जानकारी प्राप्त हुई हो कि यह साइकिलें उन्हीं के दुकान से बेची गई थी और उन दुकानदारों ने साइकिल खरीदने वाले व्यक्तियों का कोई स्केच बनवाया हो. जिस तिथि 10 जून 2007 को स्केच बनवाए गए थे उस तिथि तक विवेचना में यह नहीं आया था कि साइकिलें कहां से खरीदी गई हैं. इसलिए पर्चा नम्बर 29 में किया गया उल्लेख झूठा साबित होता है.

उक्त विवेचक विश्वजीत श्रीवास्तव प्रभारी उपाधिक्षक कैंट गोरखपुर द्वारा दिनांक 25 दिसंबर 2007 को जय दुर्गा साइकिल स्टोर के मालिक संजीव कुमार का बयान दर्ज किया गया. विवेचक द्वारा यह उल्लेख किया गया कि विस्फोट के स्थल से टूटी साइकिल का फ्रेम नंबर 68467 बरामद हुआ था जिसके संबन्ध में दुकान मालिक द्वारा बताया गया कि इस फ्रेम नम्बर की साइकिल को उसने इफ्तिखार नाम के आदमी को दिनांक 21 मई 2007 को बेचा था. दुकानदार द्वारा उसका हुलिया भी बताया गया था. दुकानदार द्वारा बिक्री करने की रसीद की छाया प्रति भी दिखाई गयी. क्या यह संभव है कि कोई दुकानदार सात माह पूर्व बेची गई साइकिल के खरीदने वाले चेहरे को याद रखे रख सकता है जबकि वह उसे पहले से न जानता हो, इसका उत्तर नकारात्मक ही होगा.

प्रश्न यह पैदा होता है कि इससे पूर्व की विवेचना में कहीं भी यह उल्लेख नहीं है कि घटना स्थल से टूटी साइकिल का जो फ्रेम प्राप्त हुआ उस पर नंबर डीएन 68467 पड़ा था और न ही इसका कोई उल्लेख आया कि दुकानदार ने खरीदार का कोई स्केच बनवाया हो. यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि दिनांक 25 दिसंबर 2007 को संजीव कुमार के इस बयान में यह बात कहीं भी नहीं आई है कि उससे पहले भी किसी विवेचक इस संबन्ध में कोई पूछताछ की थी और उसने साइकिल खरीदने वाले का कोई स्केच बनावाया था. घटना स्थल से टूटी साइकिलों के जो फ्रेम बरामद हुए उन पर नंबर डीएन 69467 पड़ा था, दूसरी साइकिल का फ्रेम नंबर एसएल 390461 था जैसा कि केस डायरी दिनांक 22 मई 2005 में उल्लेखित है, परन्तु यह नंबर विक्रेताओं द्वारा बताए गए नंबरों से मेल नहीं खाते हैं.

दिनांक 28/12/2007 को विवेचक विश्वजीत श्रीवास्तव ने हिन्दुस्तान साइकिल शो रूम के मालिक सुनील शेट्टी का बयान दर्ज किया. सुभाष शेट्टी द्वारा यह जानकारी दी गयी कि जिस व्यक्ति द्वारा साइकिलों की खरीददारी की गयी थी वह सामने आने पर उसको पहचान सकता है. साइकिलों की खरीद की जो रसीद दी गयी उस पर पड़े हुए नम्बरों और जो टूटे हुए साइकिल फे्रम घटनास्थल से बरामद हुए उनके नम्बरों में भिन्नता है.

विवेचक द्वारा साइकिल विक्रेताओं की मूल रसीदों को ही संलग्न केस डायरी करना चाहिए था. जिससे यह साबित होता कि इन उपरोक्त साइकिल विक्रेताओं द्वारा रेग्युलर कोर्स ऑफ बिजनेस में बिक्री की रसीदों को रिकार्ड के रुप में रखा जा रहा है अथवा नहीं. रसीद पर खरीददार के हस्ताक्षर कराए जाते हैं, वह कराए गए अथवा नहीं और वारंटी कार्ड जारी किया गया या नहीं और उस पर किसके हस्ताक्षर ग्राहक के रुप में हैं इन हस्ताक्षरों का मिलान, तारिक कासमी, सैफ, सलमान के हस्ताक्षरों के नमूने लेकर कराया जा सकता था. मात्र रसीद की फोटो स्टेट प्रति साक्ष्य में स्वीकार नहीं हो सकती.

प्रश्न यह भी है कि यह साइकिलें दुकानदारों द्वारा कहां से थोक/रिटेल में खरीदकर अपनी दुकान में विक्रय के लिए रखीं हुई थीं. इसकी भी छानबीन कराना चाहिए. अभियोजन का केस शक की प्रत्येक संभावना और दायरे से बाहर होना चाहिए. परन्तु विवेचकों द्वारा बार-बार की जा रही दोषपूर्ण विवेचना साइकिलों के विक्रय की रशीदों के फर्जी होने का शक पैदा करती हैं. पुलिसिया रौब में यह रसीदें दुकानदारों से बनावा ली गई हैं.

उपरोक्त विवरण से साबित है कि विवेचक विश्वजीत श्रीवास्तव द्वारा फर्जी विवेचना की गई और झूठे साक्ष्य गढ़े गए.

तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद की बाराबंकी में गिरफ्तारी, लिखे गए झूठे इकबालिया बयान

दिनांक 26 दिसंबर 2007 को संपूर्ण कांड में एक नया मोड़ आ गया. पुलिस अधीक्षक बाराबंकी ने फैक्स दिनांक 22 दिसंबर 2007 के द्वारा वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक गोरखपुर को सूचित किया कि एसटीएफ लखनऊ द्वारा हूजी के दो आतंकवादी खालिद मुजाहिद और तारिक कासमी को भारी संख्या में विस्फोटक सामग्री, राड और डेटोनेटर के साथ गिरफ्तार किया है और इस संबंध में थाना कोतवाली बराबंकी में मुकदमा अपराध संख्या 1891 सन 2007 पंजीकृत हुआ और पूछताछ के दौरान अभियुक्तों द्वारा गोरखपुर में हुई विस्फोट की घटनाओं में शामिल होने की स्वीकारोक्ति की गयी है.

यहां यह उल्लेख किया जाना आावश्यक है कि खालिद मुजाहिद को दिनांक 16 दिसंबर 2007 को उसके गृहनगर मडि़याहूं से एसटीएफ की मिलीभगत से पकड़कर अपनी गैरकानूनी हिरासत में रखा गया था जिसके संबंध में समाचार पत्रों में समाचार प्रकाशित हुए और उसके परिजनों द्वारा पुलिस मानवाधिकार आयोग, न्यायालय तक को सूचित किया और विधिक कार्यवाई भी की गई. राजनीतिक दलों द्वारा धरना प्रदर्शन किए गए जिनके विषय में समाचारों का प्रकाशन लगातार 22 दिसंबर 2007 तक लगातार होता रहा.

तारिक कासमी पहले से ही एसटीएफ लखनऊ और पुलिस की गैर कानूनी हिरासत में था, एसटीएफ और जांच एजेंसी द्वारा दोनों के इकबालिया बयान मन गढ़ंत फर्जी लिख लिए गए और लखनऊ, फैजाबाद कचहरी बम धमाकों और गोरखुपर बम धमाकों में मुल्जिम बना दिया गया.

झूठी गढ़ी गई मौलाना अफजालुल हक की गवाही

दिनांक 28/12/2007 को विवेचक विश्वजीत श्रीवास्तव ने रसूलपुर स्थित दारुल उलूम मदरसे में पढ़ाने वाले मौलाना अफजालुल हक का बयान रिकार्ड किया. उन्होने बताया कि उनकी उम्र 80 वर्ष है और जिस्मानी तौर पर वे कमजोर हैं.

उन्होने खुद को ग्राम रघौली  थाना घोसी जनपद मऊ का निवासी बताया. उन्होंने बताया कि दिनांक 21/05/2007 को सायं काल तीन लड़के आये थे. कुछ देर रुके और बाद में चले गये थे. तीनों लड़के नई साइकिले लाये थे. एक लड़के को सब तारिक भाई तारिक भाई कहकर पुकार रहे थे और दूसरे को राजू और तीसरे को छोटू कहकर आपस में बात कर रहे थे. उन्होंने बताया कि तारिक पहले भी यहां आया था.

अपने बयान के संदर्भ में कुछ भी बताने के लिए मौलाना अफजालुल हक अब जिंदा नही हैं. इस लिए उन्होंने विवेचक को यह बयान दिया था अथवा नहीं और इसमें लिखित कितनी बातें सत्य हैं उसका अब कोई महत्व नहीं है. इसे अब साक्ष्य के रुप में नहीं पढ़ा जा सकता क्योंकि जिरह के लिए मौलाना जिंदा नहीं हैं. परंतु यह बयान तब रिकार्ड किया गया जब इसके पूर्व 22/12/2007 को लखनऊ स्थित पुलिस एजेंसियों द्वारा तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद की गिरफ्तारी घोषित की जा चुकी थी और इस संबंध गोरखपुर पुलिस प्रशासन को सूचना मिल चुकी थी.

दिनांक 29/12/2007 को विवेचक विश्वजीत श्रीवास्तव कोतवाली बाराबंकी पहुंचे और उन्होंने  मुकदमा अपराध संख्या 1891/2007 की एफआईआर और तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद द्वारा दिये गये कथित बयान की और फर्द बरामदगी की प्रति हासिल की. इस संबंध में विवेचक द्वारा केस डायरी दिनांक 29/12/2007 में उल्लेख किया गया है.

कौन है राजू उर्फ मुख्तार और छोटू ? तारिक कासमी के तथाकथित सहयोगी

गोरखपुर बम धमाका कांड की विवेचना अब बाराबंकी में दिनांक 22 दिसंबर 2007 को गिरफ्तार घोषित किये गये तारिक कासमी के तथाकथित कबूलनामें पर केन्द्रित हो गयी. यद्यपि तारिक कासमी दिनांक 12 दिसंबर 2007 से ही पुलिस और दूसरी एजेंसियों की नाजायज हिरासत में था. अपने इस तथाकथित कबूलनामे में तारिक कासमी ने कहा है कि-

‘इससे पहले मैनें हेजाजी के कहने पर राजू उर्फ मुख्तार के साथ गोरखपुर बम ब्लास्ट की योजना बनाई थी और स्वयं गोलघर के आस पास रेकी कर मुख्तार उर्फ राजू व छोटू को लेकर हिदायत अनुसार विस्फोट कराया था.’

निमेष आयोग की रिपोर्ट

प्रश्न यह हे कि तारिक़ कासमी का उपरोक्त कुबूलनामा क्या सही है? चूंकि निमेष आयोग की सरकार को प्रस्तुत दिनांक 31 अगस्त 2012 रिपोर्ट से यह साबित हो चुका है कि तारिक कासमी पुलिस एजेंसियों की गैरकानूनी हिरासत में पहले से ही थे, इसलिए उपरोक्त तथा कथित कुबूलनामे का और उनसे की गयी किसी तथा कथित बरामदगी का कोई कानूनी महत्व नहीं है. यह सब पुलिस एजेंसियों द्वारा बनाई गयी कहानी और झूठे गढ़ गये साक्ष्य है.

उपरोक्त तथाकथित कुबूलनामा तारिक कासमी ने अपनी स्वतंत्र इच्छा से और मुक्त वातावरण में नहीं दिया है बल्कि यह पुलिस की गैरकानूनी अभिरक्षा में जिसे बाद में 22/12/2007 को गिरफ्तारी की घोषणा करके, विधिसंगत बना दिया गया, लिखा गया हैं. इसलिए इसका कोई कानूनी महत्व नहीं है और इसे साक्ष्य के रूप में तारिक कासमी और किसी भी सह अभियुक्त के विरुद्ध नही पढ़ा जा सकता है.

धारा 161 के बयानों में विरोधाभास

विवेचक विश्वजीत श्रीवास्तव अब मुख्तार उर्फ राजू और छोटू की तलाश में लग गये. इसके पश्चात गोरखपुर बम धमाके की पूरी विवेचना तारिक कासमी के तथाकथित कबूलनामे पर केन्द्रित हो गयी. दिनांक 29/12/2007 को विवेचक विश्वजीत श्रीवास्तव द्वारा लखनऊ एसटीएफ कार्यालय में गोरखपुर में हुई घटना के संदर्भ में तारिक़ से पूछताछ की और उसका बयान रिकार्ड किया गया. रिकार्ड किये गये इस तथाकथित बयान में तारिक कासमी ने अपना संबंध हूजी से होना स्वीकार किया और अपने साथी राजू उर्फ मुख्तार तथा छोटू के साथ योजना बनाकर दिनांक 22/05/2007 को गोरखपुर में तीन बम धमाकों को करना भी स्वीकारा. तथाकथित कुबूलनामे में तारिक कासमी ने यह भी स्वीकारा कि उसने अपने उक्त साथियों के साथ गोरखपुर में तीन साइकिलों की खरीददारी जयदुर्गा साइकिल स्टोर और हिन्दुस्तान साइकिल स्टोर से की थी जिन्हें लेकर वे मौलाना अफजालुल हक़ के मदरसे में भी गये थे.

तारिक़ कासमी ने मौलाना को आज़मगढ़ का रहने वाला बताया और यह भी कहा कि उसे राजू उर्फ मुख्तार और छोटू के असली नाम पते की जानकारी नहीं है क्योंकि हूजी से आदेश हुआ था कि कोई भी अपने किसी साथी से उसके नाम व पते की जानकारी नहीं करेगा.

यह उल्लेखनीय है कि तारिक कासमी ने अपने इस तथाकथित कबूलनामे में अपने साथी के रुप में आतिफ व शादाब का नाम नहीं लिया, सिर्फ राजू उर्फ मुख्तार जिसे बाद में पुलिस ने सैफ बताया और छोटू जिसे बाद में पुलिस ने सलमान बताया, के नाम कथित रुप से लिए.

दिनांक 06/02/2008 की केस डायरी में विवेचक द्वारा यह उल्लेख किया गया है कि वे तारिक कासमी का फोटो लेकर गवाह मौलाना अफजालुल हक के पास गये और उन्हें तारिक कासमी का फोटो दिखाया जिसे मौलाना ने पहचाना और बताया कि यही तारिक कासमी है जो अपने दो साथियों के साथ दिनांक 21 मई 2007 को साइकिलें लेकर मदरसे में अपने साथियों के साथ आया था और कुछ समय रुका भी था. क्या यह संभव हैं कि अस्सी वर्षीय व्यक्ति जो शारीरिक रुप से कमजोर है, 9 माह बाद किसी व्यक्ति के फोटो को देखकर पहचान सकता है कि वही व्यक्ति नौ माह पूर्व आया था.

दिनांक 12 फरवरी 2008 की केस डायरी में विवेचक द्वारा यह उल्लेख किया गया है कि उन्होंने जयदुर्गा साइकिल स्टोर के मालिक संजीव को तारिक कासमी की फोटो दिखाई जिसे पहचान कर संजीव ने बताया कि इसी व्यक्ति ने इफ्तेखार के नाम से दिनांक 21 मई 2007 को एटलस साइकिल खरीदी थी संजीव ने कहा कि यह फर्जी पते से मेरे पास आया था और इससे पहले मैने इसे नहीं देखा था. जो साइकिल बेची गयी थी उसका फ्रेम नम्बर 68467 था.

दिनांक 24 फरवरी 2008 की केस डायरी में विवेचक द्वारा यह उल्लेख किया गया है कि उन्होंने हिन्दुस्तान साइकिल स्टोर के मालिक सुभाष शेट्टी को तारिक कासमी का फोटो दिखाया जिसे पहचानते हुए उसने कहा कि यही वह व्यक्ति है जो दिनांक 21/05/2007 को अपने दो साथियों के साथ आया था और हीरो जेट साइकिल व एक एटलस साइकिल खरीदी थी.

यहां यह उल्लेख किया जाना आवश्यक है कि पूर्व विवेचक द्वारा दिनांक 10/06/2007 को संदिग्ध अपराधियों का स्कैच पूछताछ के आधार पर बनाया गया था, सार्वजनिक स्थानों पर चस्पा कराया गया. कोई भी स्केच उन चश्मदीद गवाहों के द्वारा बनवाया जाता है जो अपराधी को घटनास्थल पर अपराध करते हुए देखते हैं परन्तु विवेचक द्वारा उन गवाहों के नाम पते और बयान दर्ज नहीं किये गये. इसके पश्चात दिनांक 25/12/2007 को विवेचक द्वारा केस डायरी में यह लिखा गया कि पूर्व जांच में यह पता चला था कि घटना में प्रयुक्त साइकिलें जय दुर्गा सायकिल स्टोर और हिन्दुस्तान सायकिल स्टोर से खरीदी गयी थीं और इनके दुकनदारों से पूछताछ के आधार पर घटना में शामिल संभावित अभियुक्तों का स्कैच जारी किया गया था.

विवेचक द्वारा किया गया यह उल्लेख और विवेचना पूरी तरह झूठ और दोषपूर्ण है क्योंकि दिनांक 25 दिसंबर 2007 से पहले की किसी भी तिथि में यह उल्लेख केस डायरी में नहीं है कि घटना में प्रयुक्त साइकिले इन्हीं उक्त दुकानों से खरीदी गयी थीं और इन्हीं उक्त दुकानदारों ने संभावित अपराधियों के स्कैच पुलिस से बनवाये थे और कोई बयान रिकार्ड कराया था और खरीददारी की बाबत कोई रसीद अथवा दस्तावेजी सबूत पुलिस को उपलब्ध कराया था. नौ माह पूर्व किस विक्रेता को साइकिलें बेची गई हैं, उनका फोटो देखकर कोई दुकानदार कैसे उनकी शिनाख्त कर सकता है कि अमुख तिथि को अमुक रसीद नंबर पर जो साइकिल बेची गई है, वह इसी फोटो वाले व्यक्ति ने खरीदी थी.

शिनाख्त के लिए दिखाए गए साइकिल विक्रेता गवाहों को तारिक कासमी के फोटो, क्या ऐसे ही होती है शिनाख्त?

किसी भी अपराधी की शिनाख्त के विषय में कानून की व्यवस्था यह है कि घटना घटित होने के पश्चात निश्चित समय सीमा के भीतर जो अधिकतम तीन माह हो सकती है किसी अपराधी को शिनाख्त करने के लिए गवाह के सम्मुख पेश किया जाता है. इस मामले में अभी तक तारिक कासमी अथवा किसी भी अन्य व्यक्ति को शिनाख्त करने के लिए साइकिलें बेचने वाले दुकानदारों के सम्मुख पेश नहीं किया गया.

वस्तुतः इस मामले में घटना के समय घटना स्थल का कोई गवाह है ही नहीं जो यह कह सके कि उसने तारिक कासमी और उसके साथियों को साइकिलें रखते और विस्फोट होते देखा था. मौलाना अफजालुल हक का निधन हो चुका है इसलिए वो गवाही के लिए उपलब्ध नहीं हैं. इस मामले में पुलिस द्वारा पहले जो स्केच संदिग्ध अपराधियों के जारी किए गए वो किसकी निशानदेही पर बनाए गए थे और किसके थे वो अभी तक स्पष्ट नहीं है.

दूसरे यह कि लखनऊ में तारिक कासमी की गिरफ्तारी के बाद विवेचक विश्वजीत श्रीवास्तव ने दिनांक 12 फरवरी 2008 और दिनांक 24 फरवरी 2008 को साइकिल विक्रेताओं को तारिक कासमी की फोटो दिखाकर पहचान कराई. यह शिनाख्त कराने का विधि संगत तरीका नहीं है. प्रश्न यह है कि विवेचक को यह किसने अधिकार दिया था कि वह तारिक कासमी का फोटो हासिल करके साइकिल विक्रेता गवाहों को दिखाए और उनकी पहचान कराए. यह साबित करता है कि सभी गवाह और पूरी विवेचना दुर्भावनापूर्वक यह साबित करने के लिए की जा रही थी कि इस मामले में तारिक कासमी मुख्य अपराधी है.

दिनांक 28 सितंबर 2008 को विवेचक विश्वजीत श्रीवास्तव ने केस डायरी पर्चा 56 में यह उल्लेख किया है कि महराजगंज जनपद में कैफी निवासी जनपद सिवान नामक एक व्यक्ति और उसके साथी ताबिश आजमी को बिठाकर रखा गया है. जिस सूचना पर विवेचक थाना नौतनवा में गिरफ्तार इन व्यक्तियों से पूछताछ के लिए लिए गए और उन्हें वह स्केच दिखाए गए जो गोरखपुर ब्लास्ट के संदिग्ध व्यक्ति थे और उनसे कैफी और ताबिश का मिलान भी किया गया परन्तु कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी.

कुछ अन्य विरोधाभास

विवेचक द्वारा लगातार राजू उर्फ मुख्तार और छोटू की तलाश की जा रही थी, जिनके बारे में तारिक कासमी ने कथित कबूलनामें में जिक्र किया था और यह भी कहा था कि उसको इन दोनों के असल नाम व पते ज्ञात नहीं हैं क्योंकि हूजी द्वारा यह निर्देश दिए गए थे कि कोई भी व्यक्ति अपने साथियों से उसके असल नाम व पते नहीं पूछेगा. परन्तु यहां उल्लेख करना आवश्यक होगा कि मौलाना अफजालुल हक के बयान में यह आया है कि जब तारिक कासमी उनके मदरसे में आया था तो उसने अपना नाम तारिक कासमी ही बताया था और उसके साथ आए उसके दोनों साथी उसे तारिक भाई-तारिक भाई कह रहे थे जबकि दूसरे को राजू-राजू और तीसरे को छोटू कह रहे थे.

प्रश्न यह है कि तारिक कासमी ने अपना कोई दूसरा नाम क्यों नहीं रखा और क्यों नहीं अपना परिचय किसी दूसरे नाम से मौलाना अफजालुल हक को कराया, बल्कि क्यों असली नाम से परिचय कराया जबकि कथित रुप से मुख्तार उर्फ राजू उर्फ छोटू अपना असल नाम छिपाए हुए थे और दूसरे नामों से अपना परिचय पेश कर रहे थे, तारिक कासमी को उसके असली नाम से तारिक-तारिक कह कर पुकार रहे थे.

यहां यह उल्लेख करना भी उचित होगा कि तारिक कासमी ने अपने तथाकथित कबूलनामे में मौलाना अफजालुल हक को आजमगढ़ का निवासी बताया था, जबकि मौलाना अफजालुल हक आजमगढ़ से लगभग साठ किलोमीटर दूर ग्राम रघौली थाना घोसी जनपद मऊ के निवासी थे. इस प्रकार उपरोक्त सारी कहानी विवेचक द्वारा गढ़ी गई साबित होती है. जिसमें गवाहों को फिट किया गया है.

सैफ और सलमान को अभियुक्त बनाया जाना

दिनांक 9 मार्च 2009 को विवेचक श्री वीके मिश्रा ने पर्चा नंबर 65 केस डायरी में उल्लेख किया है कि पुलिस अधिक्षक (वीके) अभिसूचना लखनऊ के पत्र दिनांक 26 फरवरी सन 2009 द्वारा अवगत कराया गया है कि दिनांक 19 सितंबर 2008 को दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए इंडियन मुजाहिदीन संगठन के मोहम्मद सैफ ने निवासी संजरपुर थाना सरायमीर जनपद आजमगढ़ पूछताछ पर गोलघर गोरखपुर में हुई घटना में शादाब, शकील, आतिफ और सलमान को शरीक जुर्म बताया है. विवेचक द्वारा वादी मुकदमा राजेश राठौड़ और दोनों साइकिल विक्रेताओं संजीव और सुभाष शेट्ठी को तलब कर उनसे शादाब, शकील, आतिफ और सलमान के संबध में जानकारी प्राप्त की परन्तु कोई अहम जानकारी प्राप्त नहीं हुई.

सैफ का कथित कबूलनामा रिकार्ड पर लिए बिना उसे अभियुक्त बनाया गया

प्रश्न यह है कि सैफ का तथाकथित कबूलनामा दिल्ली पुलिस द्वारा कब किस तिथि में लिखा गया. जब वह 19 सितंबर 2008 को दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तार हो गया था तो उसका यह कबूलनामा कि गोरखपुर ब्लास्ट भी उसने किया है, इसकी सूचना को छह माह तक गोरखपुर पुलिस से छुपाया रखा गया. और इसके विषय में दिल्ली पुलिस द्वारा तुरंत ही गोररखपुर पुलिस को सूचित क्यों नहीं किया गया. दिल्ली पुलिस द्वारा सैफ का यह तथा कथित कबूलनामा केस डायरी पर उपलब्ध नहीं है और सैफ को गोरखपुर पुलिस द्वारा अभियुक्त बना दिया गया है.

यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है दिनांक 19 सितंबर 2008 को दिल्ली पुलिस के हाथों गिरफ्तार होने के बाद तथाकथित संगठन इंडियन मुजाहिदीन के तथाकथित सदस्य मोहम्मद सैफ ने यह स्वीकार नहीं किया कि उसका कोई दूसरा नाम मुख्तार उर्फ राजू भी है और न ही सैफ ने यह स्वीकार किया है कि सलमान का दूसरा नाम छोटू है.

लगभग एक वर्ष व्यतीत होने के पश्चात दिनांक 6 मार्च 2010 को विवेचक द्वारा केस डायरी पर्चा नम्बर 79 में यह उल्लेख किया गया है कि दूरभाष पर डीआईजी गोरखपुर से सूचना प्राप्त हुई कि एटीएस लखनऊ द्वारा एक कुख्यात आतंकी गिरफ्तार किया गया है. जिसने गोरखपुर सीरियल बम धमाकों की घटना में शामिल रहना स्वीकार किया है. सूचना पर विवेचक उक्त सलमान का बयान रिकार्ड करने के लिए एटीएस लखनऊ के हवालात मर्दाना में पहुंचे और उक्त सलमान का बयान रिकार्ड किया जिसमें सलमान ने अपना जुर्म स्वीकार करते हुए कहा कि-

‘मेरा ही नाम छोटू भी है और मेरे गांव का रहने वाला सैफ ही मुख्तार उर्फ राजू है. हम लोग तारिक कासमी निवासी सम्मोपुर रानी की सराय से मिले थे और जिहादी काम में लग गए थे. मैंने अपना परिचय तारिक कासमी को छोटू के नाम से दिया था और तारिक कासमी को मैंने अपने मित्र सैफ से भी मिलवाया था और उसका नाम मुख्तार उर्फ राजू बताया था. मेरे गांव में एक इस्लामिक लाइब्रेरी है. हम सभी वहां इकट्ठे होकर एक-दूसरे से विचार विमर्श करते थे. हम लोग आजमगढ़ से बस द्वारा गोरखपुर रेकी करने आए थे और रेकी करने के पश्चात आतिफ (एल 18 बटला हाउस कांड में पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ में मारा गया) ने तीन स्थानों को बम धमाका करने के लिए चुना और दिनांक 21 मई 2007 को हम सभी पांचों लोग पुनः बस द्वारा आजमगढ़ से गोरखपुर आए. आतिफ बम मैटेरियल लेकर आया था. डिब्बे वगैरह उसी में थे, आतिफ सामान लेकर पीछे बैठा था. आतिफ ने कुल तीन डिब्बे दूध रखने वाले दो लीटर स्टील के खरीदकर जूट वाले झोले में रखा था उसके बाद आतिफ ने मुझे, शादाब, सैफ और तारिक को साइकिल खरीदने के लिए भेजा था और हिन्दुस्तान साइकिल स्टोर से दो साइकिल फर्जी नाम पते पर खरीदी. मोहम्मद सैफ ने दूसरी साइकिल की दुकान से एक साइकिल खरीदी. साइकिल खरीदने के बाद हम लोग रेलवे स्टेशन आए और होटल में खाना खाकर साइकिल को रेलवे साइकिल स्टैंड पर जमा कर दिए तथा रेलवे स्टेशन के वेटिंग रुम में रात्रि विश्राम किया. दूसरे दिन दिनांक 22 मई 2007 को हम लोग शहर में इधर-उधर घूमकर समय बिताते रहे. हम लोगों ने दारुल उलूम मदरसा रसूलपुर गोरखनाथ में भी कुछ समय बिताए. उसके बाद हम लोग रेलवे स्टेशन आए और अपनी साइकिल रेलवे स्टैंड से निकाल लिए.’

जिस दिन सलमान उर्फ छोटू का उपरोक्त बयान इस पूरे मामले में अभी तक रिकार्ड की गई किसी भी साक्ष्य और गवाही से मेल नहीं खाता बल्कि वह परस्पर विरोधी है जिसके निम्न आधार हैं-

1-        यह कि केस डायरी दिनांक 29 दिसंबर 2007 को पर्चा नंबर 33 ए में विवेचक द्वारा मोहम्मद तारिक का बयान लिखा गया है. जिसमें उसने अपने साथ केवल दो व्यक्तियों के ही नाम लिए जो कि मुख्तार उर्फ राजू उर्फ छोटू हैं. अपने कुल तीन साथी बताए. उसने कहीं भी अपने बयान में आतिफ, शादाब शकील का नाम नहीं लिया और न ही यह कहा कि वह इन सभी के साथ बस द्वारा आजमगढ़ से गोरखपुर आया था, इस प्रकार तारिक का बयान सलमान उर्फ छोटू के बयान से मेल नहीं खाता.

2-        तारिक के उपरोक्त कथित बयान में यह आया है कि उसने इफ्तिखार के नाम से एक साइकिल खरीदी थी जबकि सलमान उर्फ छोटू के बयान में आया है कि सैफ द्वारा एक साइकिल दूसरी दुकान से खरीदी गई थी. इसलिए तारिक का बयान सलमान उर्फ छोटू के बयान से मेल नहीं खाता.

3-        तारिक के बयान में यह आया है कि वह, राजू उर्फ मुख्तार और छोटू के साथ रसूलपुर स्थित मदरसे में साइकिलें लेकर गया था. इसकी पुष्टि मौलाना अफजालुल हक के कथित बयान से भी होती है कि मदरसे में 21 मई 2007 की शाम को केवल तीन व्यक्ति साइकिलों के साथ आए थे और कुछ देर मदरसे में रुके थे. जबकि सलमान उर्फ छोटू के बयान में यह आया है कि वह सभी पांचों यानि तारिक, आतिफ, शादाब व सैफ शहर घूमने 22 मई 2007 को गए और उसी दिन रसूलपुर मदरसे भी गए. परन्तु उसने यह भी कहा है कि वह इससे पहले दिनांक 21 मई की शाम को उन्होंने साइकिलों को रेलवे के साइकिल स्टैंड पर जमा करा दिया था और उन्होंने रात्रि विश्राम वेटिंग रुम में किया.

यह उल्लेखनीय है कि तारिक कासमी के अलावा चारों व्यक्ति यानि आतिफ, शादाब, सैफ और सलमान पूर्व परिचित हैं और सभी एक ही गांव के निवासी हैं. तारिक कासमी पेशे से हकीम है और उसका गांव भी उक्त चारों के ग्राम संजरपुर से कुछ ही दूरी पर स्थित है. तारिक़ कासमी एक मशहूर हकीम के रुप में क्षेत्र में जाने जाते हैं और उनके पास प्रत्येक ग्राम से मरीजों का आना-जाना लगा रहता था. सलमान के बयान में यह बात भी आई है कि ग्राम संजरपुर में लाइब्रेरी में सभी लोग इकट्ठा होते थे (यानि तारिक कासमी भी इस्लामी लाइब्रेरी में किताब पढ़ने आया करते थे). इस्लामी लाइब्रेरी का मतलब यह है कि वहां धार्मिक पुस्तकें रहती थीं.

रिहाई मंच की छानबीन में यह तथ्य भी सामने आया है कि हकीम तारिक कासमी रविवार के दिन शाम के समय ग्राम संजरपुर में यूनानी दवाखाने पर बैठते थे और मरीजों को देखते थे. इसलिए इन परिस्थितियों में यह नहीं माना जा सकता कि तारिक कासमी ने सैफ और सलमान को गांव में न देखा हो और उन्हें न जानते हों. सलमान उर्फ छोटू का यह कथित बयान सत्य प्रतीत नहीं होता कि उसने और सैफ ने अपने दूसरे फर्जी नाम क्रमशः छोटू और मुख्तार उर्फ राजू रखकर अपना परिचय तारिक कासमी को कराया हो. इसलिए यह विवेचक की दिमागी चालाकी ही कही जा सकती है कि उसने दो नए किरदार राजू उर्फ मुख्तार तथा छोटू गढ़ लिए और उन्हें सैफ और सलमान के चेहरे पहना दिए और उनके तथाकथित बयान लिखकर विवेचना की पटकथा पूरी कर दी.

सलमान के तथाकथित बयान के अनुसार विस्फोटक सामग्री आतिफ व सैफ के पास थी और उन्होंने ही इस विस्फोट के लिए तैयार किया था और टाइमर लगाए थे और फिर झोलों में रखा था. परन्तु इस बयान में यह कहीं नहीं आया है कि किसने किस साइकिल को विस्फोटकों के साथ कौन से विस्फोट के घटनास्थल पर खड़ा किया.

इस बारे में सारा विवरण जो तारिक कासमी के बयान में उल्लेखित है वह सलमान के बयान से मेल नहीं खाता क्योंकि उसमें आतिफ और सैफ की वह भूमिका नहीं बताई गई है.

उपरोक्त से स्पष्ट है कि तारिक कासमी और सलमान उर्फ छोटू के तथाकथित कबूलनामे और बयानों में समानता नहीं है और दोनों ने परस्पर विराधी बातें कहीं हैं. वास्तविकता यह है कि यह कबूलनामे वास्तव में तारिक कासमी और सलमान उर्फ छोटू द्वारा कभी किए ही नहीं गए बल्कि विवेचक द्वारा मुक़दमे को रंग देने के लिए लिख लिए गए हैं. सैफ का कबूलनामा रिकार्ड पर उपलब्ध नहीं है.

सलमान नाबालिग है- जयपुर अदालत का फैसला, दिल्ली बम धमाके में आरोपों से डिस्चार्ज होना

संजरपुर आजमगढ़ के सलमान की जन्म तिथि 3 अक्टूबर 1992 है जो कि घटना दिनांक 22 मई 2007 के दिन कुल 14 वर्ष 7 माह की आयु का था. नवंबर 2011 में जयपुर की एक अदालत ने तथ्यों के आधार पर सलमान को अल्पव्यस्क मान लिया. सलमान के परिजन प्रारंभ से ही उसके नाबालिग होने की दलील दे रहे थे. फरवरी 2011 में दिल्ली की एक अदालत ने सलमान से संबधित दस्तावेजों से छेड़-छाड़ और उसे गिरफ्तार करने वाले पुलिस कर्मियों के आपराधिक कृत्य की आलोचना करते हुए, सलमान को दिल्ली बम धमाकों के आरोपों से डिस्चार्ज कर दिया परन्तु गोरखपुर बम धमाके के इस कांड में उसे बालिग मानकर ही उसके विरुद्ध कार्यवाई की गई जबकि उसका केस जुवेनायल कोर्ट में अलग से चलाया जाना चाहिए था.

पुलिसिया पटकथा की नई कड़ी- आफताब अंसारी उर्फ मुख्तार उर्फ राजू

आफताब आलम अंसारी निवासी कोलकाता को, पहली बार तब हमने जाना जब पुलिस ने बताया कि यह व्यक्ति हूजी का एरिया कमांडर है और यह ‘गुपचुप तरीके’ से पश्चिम बंगाल के इलेक्ट्कि सप्लाई कारपोरेशन में काम कर रहा था. गोला बाजार, गोरखपुर के मूल निवासी आफताब को उत्तर प्रदेश की कचहरियों में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों का आरोपी बताते हुए बांग्लादेशी कहा गया था. बाईस दिनों की लंबी पुलिसिया प्रताड़ना के बाद 17 जनवरी 2008 को आफताब रिहा हो गया. मीडिया में बकौल पुलिस, आफताब बांग्लादेशी आतंकी संगठन हरकत-उल-जेहाद-ए-इस्लामी, हूजी का एरिया कमांडर है और पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में इसने आतकंवाद का प्रशिक्षण लिया है.

27 दिसम्बर 2007 को कोलकाता के श्याम बाजार इलाके के चिडि़या मोड़ से दिन में तकरीबन डेढ़ बजे कोलकाता सीआईडी ने लोन के गारण्टर की शिनाख्त के बहाने बुलाकर उसे गिरफ्तार कर लिया. दो दिनों तक आफताब को उल्टा लटकाकर पीटा गया और उसे सोने नहीं दिया गया, जब भी उसने सोने की कोशिश की, उसे लात घूसों से पीटा जाता. आफताब बताता है कि उससे पुलिस ने कहा कि तुम बस इतना कह दो की तुम हूजी के एरिया कमांडर मुख्तार उर्फ राजू हो. मैं बार-बार इंकार करता रहा कि मेरा किसी आतंकी संगठन से कोई ताल्लुक नहीं है, तो वे कहते कि तब तुम्हारे पास डेढ़ किलो आरडीएक्स और खाते में 6 करेाड़ रुपये कहां से आये? तुमने कोलकाता के हावड़ा के रिहायशी इलाके में फ्लैट कैसे खरीदा?

आफताब कहता है कि मेरे लगातार इंकार करने के बावजूद कोलकाता सीआईडी ने मुझे 30 दिसम्बर 2007 को उ.प्र. एसटीएफ को सौंप दिया. मुझसे यह कहकर ‘सादे कागजों’ पर दस्तखत कराया गया की हमको कागजी कार्यवाही करनी है. उ.प्र. एसटीएफ ने मेरे दोनों हाथ, पैर बांध कर टवेरा गाड़ी से मुझे 17 घण्टे की यात्रा के बाद लखनऊ लाया और फिर एसटीएफ ने मेरे सारे कपड़े उतरवाकर टायर की बेल्ट से घंटों तक ठण्डा पानी गिरा-गिरा कर पीटा. वे इस बात को कहने को मजबूर कर रहे थे कि ‘तू बोल की तेरा ही नाम अल्ताफ, मुख्तार राजू है और तूने ही संकटमोचन और कचहरियों में बम धमाके किये.’

दो जनवरी को रिमाण्ड का वक्त पूरा होने के बाद मुझे लखनऊ कारागार में डाल दिया गया. कड़कड़ाती सर्दी में जब पारा गिरता ही जा रहा था, ऐसे में आफताब को एक अदद हाफ टी शर्ट और जींस पैंट में कई दिनों तक रहना पड़ा. उसे न ही कोलकाता सीआईडी ने और न ही उ.प्र. एसटीएफ ने ठंड से बचने के लिए कोई कपड़ा मुहैया कराया.

उधर आफताब की मां आयशा बेगम बेटे की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखा कर दर-दर उसे खोजते हुए भटक रही थी. 29 दिसम्बर 2007 को भी सीआईडी ने लोन के गारन्टर की शिनाख्त के बहाने आफताब के घर छापामार कर उसके फोटो समेत कई ज़रुरी कागजात उठा लायी. आयशा बेगम को जब मालूम पड़ा कि उसके बेटे को आतंकवादी कह पुलिस लखनऊ ले गई तो वह भी लखनऊ चली आईं.

उत्तर प्रदेश बार एसोशिएसन के फरमान के बाद कोई वकील उनका साथ देने को तैयार न था ऐसे में वकील मोहम्मद शुऐब (अध्यक्ष रिहाई मंच) ने उनकी पैरवी के लिए हामी भरी. मो. शुऐब बताते हैं कि आफताब की मां उसका कोलकाता इलेक्ट्कि सप्लाई कारपोरेशन का पुराना व नया दोनों परिचय पत्  लाई जिससे इस तर्क को मज़बूती मिली की वह कोई अल्ताफ, मुख्तार राजू नहीं है बल्कि आफताब आलम अंसारी है. इस पूरे प्रकरण में आफताब का वह मेडिकल सर्टीफिकेट जो इसका प्रमाण था कि वह 23 नवम्बर 2007 को कोलकाता में था, बहुत बड़ा हथियार बना. क्योंकि पुलिस ने उस दिन आफताब को बम धमाकों के सिलसिले में यू.पी. में होने का दावा किया था. बेटे से मिलने की चाहत में आयशा जेल के बाहर, चाय की दुकानों पर कई रातों तक भटकती रही. इस बीच वकील शुऐब ने कोर्ट में कई अर्जियां डालीं, कि आफताब की मां को उससे मिलने दिया जाय पर पुलिस के कान पर जूं तक नहीं रेंगी और न ही कोर्ट ने कोई मदद की.

मो. शुऐब बताते हैं कि मैने कई बार अपने मुवक्किल आफताब से मिलने की कोशिश की पर मुझे नहीं मिलने दिया गया, पुलिस ने कानून को ताक पर रखकर मेरे मुवक्किल को जो यातनाएं दी और जो हमारे साथ सलूक किया गया वह गैर कानूनी था. पुलिसिया मार से लखनऊ कारागार में बन्दी आफताब की तबीयत काफी खराब होने के बावजूद एसटीएफ ने तीन जनवरी को फिर से उसे 7 दिन की ट्रांजिट रिमांड पर ले लिया. लगातार यातनाओं के दौर से गुजर रहे आफताब को पुलिस ने अपनी पटकथा के अनुरुप तोड़ना चाहा पर आफताब टूटा नहीं और अपनी बात पर टिका रहा.

आफताब के वकील शुऐब बताते हैं कि उन्होंने पुलिस विवेचना अधिकारी को यह तथ्य मुहैया कराया कि वह आफताब आलम अंसारी है. अंततः 22 दिन की लम्बी यातना के बाद आफताब को 17 जनवरी 2008 को रिहा कर दिया गया.

अब ये सवाल उठता है कि कोलकाता सीआईडी ने जिस डेढ़ किलो आरडीएक्स, छह करोड़ रूपए और हावड़ा के रिहायशी इलाके में फ्लैट की बात कही थी, वह किसका था और कहां गया? यह वह सवाल है जिसे किसी आतंकी की गिरफ्तारी के बाद पुलिस उठाती है. आतंकवादी सिद्ध होने पर तो यह संपत्ति उस आतंकी की हो जाती है, पर बरी हो जाने पर सवाल अंधेरे में रह जाता है. ऐसे में जब आफताब निर्दोष साबित हो चुका है तब कोलकाता सीआईडी सवालिया घेरे में आती है कि उसे डेढ़ किलो आरडीएक्स कैसे प्राप्त हुआ? आफताब ने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्या से मिलकर अस्सी हजार रूपए की मांग की थी. जिस पर सरकार ने उसे तीस हजार रूपए दिए. मुआवजे के मांगे अस्सी हजार रूपयों में उसकी मां के कचहरियों के चक्कर काटने के दौरान खर्च रूपयों के समेत वह सोलह हजार रूपए भी हैं, जो उसकी बहन की सगाई में दिए वह रूपए हैं जो उसके आतंकी होने की खबर के बाद टूट गई.

आफताब कहता है ‘इन लोगों की वजह से मेरी बहन की शादी टूट गई, मेरी मां पागलों की तरह दर-दर की ठोकरें खाई, खुदा न करे मेरी मां को कुछ हो जाता तो’ यह कहते-कहते आफताब रो पड़ता है. यह पूछने पर कि वह पुलिस के खिलाफ केस करेगा तो वह कहता है ‘करके क्या पाउंगा, पुलिस से तो जीत नहीं सकता’. तब ऐसे में आफताब का यह अनकहा सवाल इस लोकतंत्र में कितना वाजिब हो जाता है कि लोक पर पुलिस तंत्र कितना हावी हो चुका है. वर्तमान व्यवस्था इतनी हावी हो चुकी है कि इसे आफताब जैसा व्यक्ति चुनौती देने का दम नहीं भर पा रहा है.

उपरोक्त से साबित होता है कि पुलिस एजेंसियां किस प्रकार निर्दोष लोगो को झूठा फंसाती हैं, पहले मुख्तार उर्फ राजू का झूठा नकाब आफताब आलम अंसारी को पहनने को मजबूर किया गया और फिर इस काल्पनिक मुख्तार उर्फ राजू को तारिक कासमी का साथी बताया गया और उसे गोरखपुर सीरीयल ब्लास्ट से जोड़ दिया गया और इस काल्पनिक व्यक्ति के नकाब को सैफ के चेहरे पर ओढ़ा दिया गया. इस पूरे मामले की विवेचना दोषपूर्ण और दुर्भावनापूण है, जिसमें विवेचकों द्वारा एक निश्चित दूषित मानसिकता के तहत मुस्लिम युवकों को फंसाने के लिए झूठी कहानी गड़ी और सबूतो को मिटाया और फर्जी सबूतों को गढ़ा. इसलिए आवश्यक है कि संपूर्ण मामले की पुर्नविवेचना निष्पक्ष जांच एजेंसी से कराई जाए.

राज्य सरकार द्वारा मुक़दमा वापसी का प्रार्थना पत्र, हमारी आपत्तियां और पुर्नविवेचना कराने का निवेदन

न्यायालय में अभी अभियुक्तों पर आरोप निर्धारित नहीं किए गए हैं. अभी राज्य सरकार द्वारा धारा 321 सीआरपीसी के अन्तर्गत सक्षम न्यायालय गोरखपुर के समक्ष प्रार्थना पत्र और शपथ पत्र देकर तारिक कासमी के विरुद्ध मुकदमा वापसी की प्रार्थना की गई है, इस संबन्ध में हमारी निम्न आपत्तियां हैं-

1-        सरकार द्वारा दाखिल किया गया मुकदमा वापसी का प्रार्थना पत्र केवल तारिक कासमी के ही पक्ष में है, जबकि सैफ, सलमान और अन्य अभियुक्तों के विरुद्ध भी जो आरोप लगाए गए हैं वे भी सही नहीं है, और झूठे हैं. और एक ही पटकथा का हिस्सा हैं. इसलिए सभी के विरुद्ध लंबित मुकदमे को वापिस लेने का प्रार्थना पत्र दिया जाना चाहिए था.

2-        आर डी निमेष आयोग की रिपोर्ट कैबिनेट द्वारा मंजूर की जा चुकी है. इसलिए उचित यह होता कि इस संपूर्ण मामले की पुर्नविवेचना कराई जाती और उन सभी बिन्दुओं पर भी गहन विवेचना होती कि जिन्हें इस रिपोर्ट में इंगित किया गया है. इससे उन पीडि़तों को न्याय मिलता जो झूठे फंसाए गए और मुआवजा हासिल करने के भी हकदार बनते तथा दोषी पुलिस अधिकारियों के प्रति कार्यवाई होती और देश के आम नागरिक को भी सच्चाई जानने का अवसर मिलता.

3-        इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि तीन सीरियल ब्लास्ट गोरखपुर में हुए. जिसमें कई व्यक्ति गंभीर रुप से घायल हुए. यह किसने, किस मकसद से किए यह सत्य अभी सामने आना बाकी है. क्या इस सबके पीछे सांप्रदायिक हिन्दुत्वादी वही माड्यूल्स काम कर रहे हैं जो मक्का मस्जिद, मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस बम विस्फोटों और आतंकी मामलों में पुर्नविवेचना के बाद खुलासे में सामने आए. इन सभी साइकिल का प्रयोग किया गया था. जोकि गोरखपुर सीरियल बम धमाकों में भी लाई गई है. उल्लेखनीय है कि गोरखपुर के भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ और उनके संगठन हिंदू युवा वाहिनी की गतिविधियां सांप्रदायिक हैं. यह उल्लेखनीय है कि वर्ष 2006 के अंतिम माहों और वर्ष 2007 में सांप्रदायिक रुप से गोरखपुर मंडल बहुत ही संवदनशील रहा, पूरे मंडल में दंगे हुए. विवेचक द्वारा उन संदिग्ध अपराधियों से भी पूछताछ की गई थी जो इसके पूर्व बम धमाकों के मुकदमें जेल जा चुके थे और जिनके विरुद्ध मुकदमें लंबित हैं. परन्तु यह जांच गहन रुप से नहीं की गई. इन संदिग्ध व्यक्तियों के नाम केस डायरी दिनांक 25/05/2007 पर्चा नंबर 4 में आ चुके हैं जोकि अविनाश मिश्रा, राकेश कुमार निषाद, कृष्ण मोहन उपाध्याय, भानु प्रसाद चौहान हैं, जो कि सभी गोरखपुर नगर के निवासी हैं और भाजपा तथा हिन्दु युवा वाहिनी के सदस्य हैं.

रिहाई मंच की तरफ से मोहम्मद शुएब, मोहम्मद सुलेमान, संदीप पाण्डे, असद हयात, मो0 अहमद, मसीहुद्दीन संजरी, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, तारिक शफीक, मो0 आफाक, ताहिरा हसन, शिवदास प्रजापति, हरेराम मिश्र, मो0 आरिफ, अनिल आजमी, सैयद मोइद अहमद, वकारुल हसनैन, जैद अहमद फारुकी, शुएब, हाजी फहीम सिद्दीकी, अंकित चौधरी, साकिब, मो0 राफे, रणधीर सिंह सुमन, जमाल अहमद, मो0 समी, आदियोग, एहसानुलहक मलिक, एखलाख चिश्ती, नदीम अख्तर, इशहाक, शमीम वारसी, अनवर, शेरखान, शाहीन, आफताब, आरिफ नसीम, गुफरान सिद्दीकी, जुबैर जौनपुरी, लक्ष्मण प्रसाद, सादिक, कमरुद्दीन कमर, अबु आमिर, कमर सीतापुरी, जुबैर जौनपुरी, योगेन्द्र यादव, आफताब, अबुजर, शाहनवाज आलम और राजीव यादव द्वारा जनहित में जारी…

TAGGED:Report on unfair & bias investigation of 2007 Gorakhpur serial blastपरत दर परत खोलती गोरखपुर सीरियल ब्लास्ट पर एक रिपोर्ट
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