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राजनीति का अपराधीकरण : जनतंत्र पर एक कलंक

Puja Singh for BeyondHeadlines

राजनीतिक दल यह जान रहे थे कि विधान मंडलों में दागी नेताओं की बढ़ती संख्या आम जनता की बेचैनी का कारण बनने के साथ-साथ खुद उनकी साख को प्रभावित कर रही है. लेकिन वो राजनीति को साफ-सुथरा करने की दिशा में एक भी कदम उठाने के लिए तैयार नहीं.

निर्वाचन आयोग ने कई बार यह कोशिश की कि राजनीतिक दल कम से कम उन लोगों को प्रत्याशी बनाने से बचें, जिनके खिलाफ दायर आरोप पत्र यह इंगित करता हो कि दोषी पाए जाने की स्थिति में उन्हें पांच साल या इससे अधिक की सजा हो सकती है. लेकिन नेतागण निर्वाचन आयोग की पहल को नाकाम भी करते रहे और देश को यह उपदेश भी देते रहे कि हम राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ हैं.

Criminals in politicsट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के ताजा सर्वेक्षण के अनुसार 88 प्रतिशत भारतीय नागरिक राजनीतिक दलों को सबसे भ्रष्ट मान रहे हैं. यह हास्यास्पद है कि राजनीतिक दल एक ओर तो यह दावा करते हैं कि वे जनता की नब्ज जानते हैं और दूसरी ओर उसकी अपेक्षाओं के विपरीत काम करते हैं.

वे अपनी तमाम दुर्दशा के बावजूद चेतते नहीं दिख रहे. क्या इससे बड़ा मजाक और कोई हो सकता है कि जवाबदेही और जिम्मेदारी का राग अलापने वाले राजनीतिक दल सूचना अधिकार कानून/सुधार के दायरे में आने को तैयार नहीं?

राजनीति का अपराधीकरण जनतंत्र पर कलंक है. अपराधीकरण की निंदा सब करते हैं, लेकिन चुनाव में उन्हें प्रत्याशी भी बनाते हैं. माफिया होना उनका अतिरिक्त गुण होता है, वे जिताऊ होते हैं. अनेक प्रबुद्ध जनता को दोष देते हैं कि जनता ही अपराधियों को चुनती है. राष्ट्र अपराधी जन-प्रतिनिधि नहीं चाहता. न्यायालय ने राष्ट्र की इच्छा और संविधान की भावना को ही अभिव्यक्ति दी है.

हमारे देश में नेताओं और विशेष रूप से बाहुबली नेताओं को सजा मिलना एक कठिन काम है. आमतौर पर उनके खिलाफ लोग शिकायत करने से डरते हैं और यदि शिकायत हो भी जाती है तो अदालतों में उनके मामले वर्षों तक खिंचते हैं.

इस दौरान वे यह सफाई देते हुए चुनाव लड़ते और जीतते रहते हैं कि उन्हें राजनीतिक बदले की भावना से फंसाया जा रहा है. हालांकि आम जनता जान रही होती है कि अमुक नेता भ्रष्ट अथवा आपराधिक प्रवृत्ति का है. लेकिन कई बार उसके सामने ऐसे ही नेता प्रत्याशी के रूप में होते हैं. इस स्थिति में जनता अपने को ठगा महसूस करती है.

अब ऐसा नहीं होगा, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 असंवैधानिक, भेदभाव भरी और समानता के सिद्धांत के खिलाफ है. इस पर आश्चर्य नहीं कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला अनेक दलों को रास नहीं आया है. सपा और माकपा समेत कई राजनीतिक दलों ने इस फैसले का खुलकर विरोध किया है.

खुद केंद्र सरकार यह कह रही है कि वह सभी राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श करने के बाद इस फैसले का विरोध करने-न करने का निर्णय लेगी. इसका मतलब है कि उसे इस फैसले से प्रसन्नता नहीं.

केंद्र सरकार के अतिरिक्त विधि मंत्रालय की संसदीय समिति के अध्यक्ष शांताराम नाइक ने साफ तौर पर कहा है यह तो ठीक नहीं कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर करेंगे.

राजनीतिक दलों और सरकार को यह समझना होगा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला लोकतंत्र में आम जनता की आस्था बढ़ाने और राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश लगाने के लिए है.

इस फैसले के विरोध में इस तर्क का कोई खास मतलब नहीं कि उसका दुरुपयोग हो सकता है, क्योंकि देश में ऐसा कोई कानून नहीं जिसका दुरुपयोग न होता हो, यदि इस कानून का दुरुपयोग होता है तो इसके लिए राजनीतिक दल ही जवाबदेह होंगे. उन्हें ही यह बताना होगा कि आखिर ऐसी व्यवस्था क्यों बनी हुई है जिसमें किसी कानून का आसानी से दुरुपयोग हो सकता है?

क्या कारण है कि राजनीतिक दल बदले की भावना से काम करने वाले कानून का गलत इस्तेमाल करने में समर्थ हो जाते हैं? आखिर जब ऐसा आम जनता के साथ होता है तो राजनीतिक दलों को तकलीफ क्यों नहीं होती? क्या राजनीतिक दल यह चाहते हैं कि जनता के लिए अलग तरह का कानून हो और नेताओं के लिए अलग तरह का, अगर कोई जेल जाने पर वोट डालने का अधिकार खो बैठता है तो फिर उसे चुनाव लड़ने का अधिकार क्यों मिलना चाहिए?

राजनीति का अपराधीकरण जनतंत्र के लिए भयावह खतरा है. आजीवन कारावास की सजा पाए ‘मान्यवरों’ को सभा में प्रवेश से वर्जित करने के लिए संसद ने क्या किया? दलतंत्र के बड़े भाग ने अपराधियों को गोद लिया. संवेदनशील राजनीतिक कार्यकर्ता खोटे सिक्के होते गए. आपराधिक चरित्र वाले उन्हें धकियाकर आगे निकल गए. अपराधमुक्त देश जनता की इच्छा है. अपराधमुक्त देश संसद और कार्यपालिका का पहला कर्तव्य है. राजनीति और सत्ता इसी कर्तव्य पालन के उपकरण हैं.

लेकिन यहां राजनीति का ही अपराधीकरण है तो अपराधमुक्त देश की बात सोची भी नहीं जा सकती. भारतीय राजनीति के लिए आत्ममंथन का समय है. अब तक न्यायपालिका नौकरशाही और उद्योगपतियों को ही नसीहत दे रही थी. लेकिन पिछले कुछ समय से राजनीतिक व्यवस्था और राजनीतिक जमात दोनों को सुधारने के लिए फैसलों की झड़ी लग गई है. इन फैसलों में सुधार का संदेश है.

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