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BeyondHeadlines > India > खालिद जैसे बेगुनाहों की हत्या साबित करती है कि भारत में जनतंत्र नहीं है
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खालिद जैसे बेगुनाहों की हत्या साबित करती है कि भारत में जनतंत्र नहीं है

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published July 6, 2013
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10 Min Read
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BeyondHeadlines News Desk

लखनऊ: देश में लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए चल रहे तमाम आंदोलनों के अम्ब्रेला संगठन कोर्डिनेशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (सीडीआरओ) और पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर) खालिद मुजाहिद के न्याय के लिए चल रहे रिहाई मंच के अनिश्चित कालीन धरने के 46 वें दिन समर्थन में आए. आज उपवास पर फर्रुखाबाद से आए योगेन्द्र सिंह यादव और तारिक शफीक बैठे.

रामपुर सीआरपीएफ कैंप पर हुए कथित आतंकी हमले के आरोप में फंसाए गए कुंडा के कौसर फारुकी के भाई अनवर फारुकी ने कहा कि हम पिछले पांच साल से ज्यादा समय से अपने बेगुनाह भाई का मुक़दमा लड़ रहे हैं. सरकार ने वादा किया था कि वो आतंकवाद के नाम पर बेगुनाहों को रिहा करेगी पर अब तक नहीं किया.

Killing of innocents like Khalid proves there is no democracy in indiaहमने बार-बार कहा कि बहुत सारे मानवाधिकार संगठन रामपुर सीआरपीएफ कैंप पर आतंकी हमले की बात को झूठा कहते हैं और साबित करते हैं कि वहां पर सीआरपीएफ के जवानों ने शराब के नशे में धुत होकर आपस में गोली बारी की, हमने रिहाई मंच के इस धरने से दो बार मुख्यमंत्री को ज्ञापन भी भेजा कि वो रामपुर सीआरपीएफ कैंप पर हुए कथित आतंकी हमले की सीबीआई जांच करवाए पर जांच की तो बात दूर छोडि़ए प्रदेश के मुख्यमंत्री को सपरिवार अमेरिका घूमने से फुरसत मिल तो वो हम मज़लूमों की कोई बात सुनें.  यह बहुत शर्म की बात है कि हम न्याय के वास्ते 46 दिनों तक गर्मी की धूप से बरसात आ गई है और धरने पर बैठे हैं और सरकार कोई जवाब नहीं दे पा रही है.

दिल्ली से आए पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर) के नेता गौतम नवलखा ने कहा कि मौलाना खालिद जैसे बेगुनाह मुस्लिम युवकों की हत्या से साफ हो गया है कि इस देश में वास्तविक जनतंत्र नहीं है. हमारे जनतंत्र में जनसंहार करने वाले मोदी को स्थान प्राप्त है. मनवधिकार संगठनों ने जोर दिया कि इशरत जहां प्रकरण फर्जी है और वह बेनकाब हुआ. हजारों लोगों को देश की सुरक्षा के नाम पर फर्जी मुठभेड़ में मारा गया है. आईबी के स्पेशल डायरेक्टर राजेन्द्र कुमार ने इशरत की हत्या करवाई.

आईबी के अंदर आरएसएस की घुसपैठ है. बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद, शिव सेना ने दंगे करवाए. लेकिन देश की सांप्रदायिक सद्भाव को नेस्तानाबूद करने वाले इन राष्ट्र विरोधी तत्वों के खिलाफ कोई कार्यवाई नहीं की गई. प्रतिबंधित संगठनों के लोग ही नहीं बल्कि उनके परिवार वालों को भी अनलॉफुल एक्टीविटीज प्रिवेंसन एक्ट की धारा 39 के तहत कार्यवाही की गयी जिसमें दस वर्ष की सजा का प्रावधान है.

हम संगठनों के प्रतिबंध की राजनीति के खिलाफ हैं. क्योंकि डेमोक्रेसी में अगर आप अपनी बात नहीं रख सकते तो उसे लोकतंत्र नहीं फांसीवाद कहेंगे. प्रतिबंध के नाम पर संगठनों के साहित्य प्रतिबंधित साहित्य बन जाता है, सिमी को 2001 में प्रतिबंधित किया गया, जबकि उसके खिलाफ कोई भी सबूत नहीं था और जिन लोंगों ने यह प्रतिबंध लगाया उनको हमने 2002 गुजरात में जनसंहार करते हुए देखा. हम उनके खिलाफ सच्चाई को साथ लेकर लड़ते हैं. यदि प्रतिबंध की राजनीति हो रही है तो आखिर क्यों नहीं आरएसएस, बजरंग दल को प्रतिबंधित करते हैं, जिनके खिलाफ सूबूतों के पहाड़ हैं. कश्मरी अलगाववादियों और माओवादियों की हत्याएं की जा रही हैं, पूरा शासक वर्ग उनके खिलाफ एक जुट हो गया है.

पुणे की यर्वदा जेल में कतील की हत्या करावाई गई थी. नक्सलवादी हक़ के लिए संघर्ष में उतरे हुए हैं. अफ़ज़ल को फांसी देकर हत्या की गई. अफज़ल की फांसी के खिलाफ दिल्ली की सड़कों पर उतरी महिलाओं के साथ गलत हरकतें हुईं और वह भी पुलिस की सरपरस्ती में. पुलिस लोगों की रक्षक नहीं है.

गौतम नवलखा ने कहा कि हम प्रतिबंध की राजनीति के खिलाफ हैं. हम माओवादियों पर भी प्रतिबंध के खिलाफ हैं. 1991 में कश्मीर में औरतों के साथ बलात्कार किया गया. अब 20 साल बाद अदालत ने संज्ञान में लिया. 20-20 साल तक न्याय न देकर राज्य लोगों को बंदूक उठाने पर मजबूर कर रहा है. विदेशी पूंजी निवेश के लिए फौज का इस्तेमाल हुआ है. पास्को में तो माओवादी नहीं बल्कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का आंदोलन है फिर भी आंदोलनकारियों पर दमन चक्र जारी है. संघर्ष का रास्ता हम नहीं छोड़ सकते.

रिहाई मंच के आंदोलन समेत देश में जो भी आंदोलन चल रहे हैं वो देश को असली आजादी दिलाने का काम करेंगे. रिहाई मंच के संघर्ष की आवाज दूसरे राज्यों में भी है. मक्का मस्जिद धमाकों के मामले में 43 लोगों को पकड़ा गया जो निर्दोष थे और इसमें इस धमाके को कराने समेत निर्दोष मुस्लिम नौजवानों की गिरफ्तारी में आईबी का हाथ था. हेमंत करकरे ईमानदार अफसर थे उनको मार दिया गया. समझौता एक्सप्रेस आतंकी वारदात में आरएसएस का हाथ था.

रिहाई मंच से सीख लेकर अन्य प्रदेशों में भी आंदोलन शुरु हुए हैं. कश्मीर में सेना पीछे हटने को तैयार नहीं है, यही स्थिति खनिजों से भरपूर राज्यों की भी है. न्यालय भी हुक्मरानों का साथ देते हैं, और निर्दोषों को कभी बिना किसी सूबूते सजा हो जाती है तो कभी जनता की भावना को संतुष्ट करने लिए किसी को फांसी पर चढ़ा देती है. यह व्यवस्था बताए कि उसके इस लोकतंत्र में मुसलमानों, आदिवासियों, दलितों के लिए सिवाए जनसंहार के और क्या है?

धरने के समर्थन के दिल्ली से आए कोर्डिनेशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (सीडीआरओ) के नेता आशीष गुप्ता ने कहा कि खालिद की मौत के बाद जिस तरीके से यह इस आंदोलन ने सरकारों की मुस्लिम विरोधी नीतियों पर सवाल उठाया है उससे यह सवाल साफ हो गया है कि यह लड़ाई सिर्फ न्यायालय परिसरों तक सीमित नहीं है बल्कि इसको बिना व्यापक जनता की भागीदारी के लड़ा नहीं जा सकता. जिस तरीके से मौलाना खालिद की हत्या के फोटोग्राफ्स देखकर यह साफ हो रहा है कि उनकी हत्या की गई है. वैसे में यूपी के मुख्यमंत्री का यह कहना कि खालिद की मौत बीमारी से हुई बहुत शर्मनाक बात है.

हमें मालूम चला है कि खालिद की मौत पर उठ रहे सवालों और आरडी निमेष आयोग की रिपोर्ट के आधार पर कार्यवाई न करने के लिए जिस तरीके से सपा सरकार मानसून सत्र नहीं बुला रही है वो लोकतंत्र पर जनता द्वारा चुनी हुई सरकार द्वारा हमला है, ऐसे में इस लड़ाई को हमें हर हाल में जीतना ही होगा. सरकार जिस तरीके से मानसून सत्र नहीं बुला रही है उसमें भी रिहाई मंच के आंदोलन की जीत और दबाव है कि सरकार आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाहों की रिहाई के आंदोलन से किस तरह भयभीत है.

धरने को संबोधित करते हुए वरिष्ठ पत्रकार अजय सिंह ने कहा कि सरकार ने राजा भैया को बचाया, जेल से निकालकर मंत्री बना दिया लेकिन खालिद मुजाहिद को मौत की नींद सुला दिया. आंदोलनकारी सरकार पर दबाव बढ़ाएं कि सरकार मानसून सत्र जल्दी बुलाए और खालिद की हत्या पर अपनी स्थिति स्पष्ट करें.

रिहाई मंच के धरने ने खालिद मुजाहिद की हत्या को राष्ट्रीय सवाल बना दिया है और इसके साथ ही पूरा तंत्र बेनकाब हो गया है.

धरने का संचालन अनिल आज़मी ने किया. धरने में रिहाई मंच के अध्यक्ष मो0 शुऐब, एपवा की ताहिरा हसन, केके वत्स, डा0 अली अहमद कासमी, तारिक शफीक, सोशलिस्ट पार्टी मो0 आफाक, शुऐब, आदियोग, योगेन्द्र सिंह यादव, वरिष्ठ पत्रकार अजय सिंह, रामकृष्ण, मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित संदीप पांडे, कुंडा आए अनवर फारुकी, जैद अहमद फारुकी, एफ मुसन्ना, अजीम, वर्तिका शिवहरे, प्रदीप कपूर, हरेराम मिश्रा, प्रबुद्ध गौतम, पीस पार्टी के रिजवान अहमद, सलीम खान, हाजी फहीम सिद्दीकी, इनामुर्रहमान, दावर इकबाल, मो0 साजिद, अमित मिश्रा, मौलाना कमर सीतापुरी, जुबैर जौनपुरी, डा0 अली अहमद, सोशलिस्ट पार्टी के इमरान सिद्किी, फहीम सिद्दीकी, राशिद खान, शमीम, सऊद अहमद, सुहैल अहमद, अज्जू, मो0 अमीर, खुर्शीद अहमद, अहमर शफीक, शाहनवाज आलम और राजीव यादव शामिल रहे.

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