Edit/Op-Ed

वजीफा और लैपटाप से जम्हूरियत नहीं बचा सकते…

Anil Chamadia for BeyondHeadlines

मालेगांव की घटना साफ करती है कि हिन्दुत्वादी ताकतें देश में आईबी की मदद से आतंक का माहौल बना रही हैं और निर्दोष मस्लिम समुदाय पर आतंकवाद का आरोप मढ़ रही हैं. ऐसे दौर में जब सरकारें निर्दोष मुस्लिम समुदाय को फंसाने वाली आईबी, एटीएस जैसी संस्थाओं के समर्थन में खुलकर आ रही हैं तो ऐसे में ऐसे सांप्रदायिक राजनीतिक दलों की भूमिका की जांच होनी चाहिए.

मालेगांव ने मुल्क में एक नई बहस खडी़ की है कि जिस तरह पुलिस में एनकाउंटर स्पेशलिस्ट हैं ठीक उसी तरह आईबी में कांस्परेंसी स्पेशलिस्ट भी हैं. क्योंकि इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ में जिस तरह सामने आया कि सिर्फ मुठभेड़ ही फर्जी नहीं थी बल्कि उसको अगवा करके आईबी द्वारा उपलब्ध कराए हथियारों की बरामदगी कर मुस्लिम समुदाय को आतंक के नाम पर बदनाम करने का षडयंत्र रचा गया.

Scholarship and laptop can not save democracyआज जब रिहाई मंच मौलाना खालिद के न्याय के लिए पचास दिनों से लखनऊ विधानसभा के सामने संघर्ष कर रहा है तब इस में हमें तय करना होगा कि हम किसी भी कीमत पर जम्हूरियत को बचाएंगे.

इशरत जहां प्रकरण में जिस तरह आईबी के अधिकारी राजेन्द्र कुमार का नाम आया यह सवाल यहीं तक सीमित नहीं है, इसे व्यापक फलक पर देखने की ज़रुरत है. पुलिस माओवादी नक्सलवादी कहकर नौजवानों को मार देती है. पर हमारी सरकारों को आईबी व पुलिस की चिंता है अवाम की नहीं है.

सरकार ने मुसलमानों पर जो जुल्मों सितम किया और उन्हें डराने का काम किया है ऐसे में इस मंच पर धार्मिक समूहों को देखकर हमें लगता है इस जम्हूरियत को बचाने की लड़ाई में इन संगठनों का बहुत योगदान है, और हमारे इतिहास में ऐसी ढेरो मिसालें हैं. हमारी जम्हूरियत की सरकारों ने अमेरिका से जो रिश्ते कायम किए हैं उनको हमें तोड़ना होगा. देश की खुफिया एजेंसियों की संसद के प्रति जवाबदेही हो. आईबी की जवाबदेही संसद को लेकर बननी चाहिए.

जम्हूरियत खतरे में है और हम जम्हूरियत को बचाना चाहते हैं ऐसे में हमें अपने दोस्तों और दुश्मनों को पहचानना ज़रुरी होगा, जो मुस्लिम वोट के ठेकेदार हमारे जनप्रतिनिधि हैं उनके चेहरे हमें बेनकाब करने होंगे.

अखिलेश जिस तरीके से लगातार आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाह मुस्लिम युवकों की रिहाई से वादाखिलाफी कर रहे हैं उनसे हम साफ करना चाहते हैं कि अवाम ने सरकार को वो ताकत दी है जिससे कोई बेगुनाह जेल में नहीं रह सकता, और रह रहा है तो यह मुल्क में कैसी व्यवस्था किसको हमने सौंप दी इस पर गंभीरता से विचार करना होगा.

मैं देख रहा हूं कि इस सूबे में जब भी हक-हूकूक की बात होती है तो सपा सरकार लैपटाप की बात करती है, इसे देख ऐसा लगता है कि जैसी हम लालची हैं और चंद पैंसों के लिए अपनी अवाज़ उठाना बंद कर देंगे. वजीफा और लैपटाप से जम्हूरियत नहीं बच सकती है. यह देश हमारे बाप-दादाओं के खून पसीने से बना है और हम पर जिम्मा है कि इस देश को खून पसीने से बढ़ाएगे. राज्यसत्ता ने आतंकवाद का ढ़ाचा खड़ा किया है.

आतंकवाद के बड़े दायरे को समझने की ज़रुरत है. सियासतदां, हुकूमतदां दलाल पैदा करते हैं. ऐसे में हम यही चाहेंगे कि बगुनाहों की रिहाई के इस आंदोलन को जम्हूरियत बचाने आंदोलन के तहत मिल्लत जकात की तरह पांच-दस रुपए लोकतांत्रिक आंदोलन के लिए दे.

(लेखक दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार हैं. और यह लेख उनके द्वारा आज खालिद मुजाहिद के इंसाफ के लिए लखनऊ में चल रहे रिहाई मंच के अनिश्चितकालीन धरने के 50वें दिन दिए गए भाषण का एक अंश है.)

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